Dainik Jagran 2021-07-29

दानिश सिद्दीकी की हत्या में छिपा संदेश

हाल ही में भारतीय छायाचित्र-पत्रकार दानिश सिद्दीकी की अफगानिस्तान में तालिबान ने हत्या कर दी। यह पूरा घटनाक्रम बहुत दुखद है। दानिश इस इस्लामी देश के पुन: तालिबानीकरण को अपने कैमरे में कैद करने अफगानिस्तान में थे। कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस दानिश ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से हिंदू समाज और भारत को विश्वभर में बदनाम करने वाला विमर्श चलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया, उनकी नृशंस हत्या इस्लाम के नाम पर जिहाद करने वाले दानवों के हाथों हुई। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले मुस्लिम समाज में व्याप्त विसंगति और विरोधाभास को रेखांकित किया है। एक भारतीय न्यूज़ चैनल से बात करते अफगान सैन्य अधिकारी ने बताया कि तालिबानियों ने 16 जुलाई को दानिश को गोली मारी, जिससे उसकी मौत हो गई। जैसे ही उन्हें पता चला कि उसकी राष्ट्रीय पहचान "भारतीय" हैं, तब उन्होंने शव पर वाहन चढ़ाकर उसका सिर कुचल दिया। विडंबना देखिए कि दानिश जिस भारत और उसकी मूल वैदिक संस्कृति को दुनियाभर में गरियाता था, वह उससे जनित बहुलतावादी "इको-सिस्टम" में पूर्णत: सुरक्षित और स्वतंत्र था। किंतु जिस मजहब का दानिश अनुयायी था, उसके पैरोकारों ने इस्लाम के नाम पर क्रूरता के साथ उसकी हत्या कर दी। दानिश की निर्मम हत्या के बाद उसकी जीवनी, विचार और उसके पेशेवर काम पर चर्चा होना स्वाभाविक था। दानिश ने भारत में कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान हिंदुओं की जलती चिताओं की तस्वीरें खींची थी, जिसे लेकर देशविरोधी शक्तियों (अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान सहित) ने वैश्विक अभियान चलाया और विपक्षी दल मोदी-विरोध के नाम पर दुनियाभर में देश की छवि पर कालिख पोतने में सहभागी बने। जब यह सब सोशल मीडिया और मीडिया पर पुन: वायरल हुआ, तब तालिबान ने एकाएक दानिश की हत्या पर खेद व्यक्त कर दिया। ऐसा करके तालिबान ने जो संदेश दुनिया को दिया है- वह उतना ही स्पष्ट है, जितना तालिबानियों का दानिश की मौत पर पछतावा है।
Amar Ujala 2021-07-18

टीपू सुल्तान की वास्तविकता

क्या मैसूर का शासक रहा टीपू सुल्तान स्वतंत्र भारत के नायकों में से एक है? इस प्रश्न के गर्भ में वह हालिया प्रस्ताव है, जिसे देश के सबसे समृद्ध बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बी.एम.सी.) की एक समिति के समक्ष समाजवादी पार्टी (स.पा.) द्वारा प्रस्तुत किया गया था। इसमें मांग की गई थी कि मुंबई के एक उद्यान का नाम टीपू सुल्तान पर समर्पित किया जाए। यह ठीक है कि हिंदू संगठनों के विरोध पश्चात इसपर निर्णय टल गया। किंतु देश में टीपू के महिमामंडन का प्रयास पहली बार नहीं हुआ है। गत माह आंधप्रदेश के प्रोद्दुतुर में भी सत्तारुढ़ वाई.एस.आर कांग्रेस के विधायक द्वारा इस इस्लामी शासक की मूर्ति स्थापित करने की कोशिश हुई थी। कर्नाटक में मुख्य विपक्षी दल जद(स) और कांग्रेस टीपू सुल्तान की जयंती राजकीय स्तर पर मनाने की पक्षधर है और सत्ता में रहने पर वह ऐसा कई बार कर भी चुके है। मैसूर पर टीपू सुल्तान का 17 वर्षों (1782-1799) तक राज रहा था। स्वघोषित सेकुलरिस्ट, मुस्लिम समाज का एक वर्ग (जनप्रतिनिधि सहित) और वाम इतिहासकारों के कुनबे ने ऐतिहासिक साक्ष्यों को विकृत करके टीपू सुल्तान की छवि एक राष्ट्रभक्त, स्वतंत्रता सेनानी और पंथनिरपेक्ष मूल्यों में आस्था रखने वाले महान शासक के रूप में गढ़ी है। यदि टीपू वाकई भारतीय स्वतंत्रता सेनानी था, जो देश के लिए अंग्रेजों से लड़ा और इस आधार पर उसे मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहिब पेशवा-2 आदि महान योद्धाओं और राजा-रजवाड़ों के साथ गांधीजी, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस आदि राष्ट्रवादियों की पंक्ति में खड़ा किया जाता है, तो पाकिस्तान का दिल टीपू सुल्तान जैसे शासकों के लिए ही क्यों धड़कता है? क्यों पाकिस्तान में गांधी, पटेल, बोस आदि का गुणगान "हराम" है? क्या कारण है कि ब्रितानियों से लड़ने वाला टीपू और अंग्रेजों के प्रति समर्पित सैयद अहमद खां- दोनों भारतीय उपमहाद्वीप में एक विशेष वर्ग के लिए महान है? क्या यह सत्य नहीं कि कासिम, गजनवी, गौरी, बाबर, औरंगजेब और टीपू सुल्तान आदि इस्लामी शासकों के साथ "दो राष्ट्र सिद्धांत" के सूत्रधार सैयद अहमद खां को इस भूखंड का एक वर्ग इसलिए नायक मानता है, क्योंकि वे सभी उसी मानसिकता के साथ भारतीय सनातन संस्कृति, सभ्यता, परंपरा और उसके प्रतीक-चिन्हों से घृणा करते थे, जिसके गर्भ से 1947 में पाकिस्तान का जन्म हुआ था?
Punjab Kesari 2021-03-03

लव-जिहाद से कबतक मुंह मोड़ेगा सभ्य समाज

आगामी दिनों में चार राज्यों- प.बंगाल, केरल, असम, तमिलनाडु और एक केंद्र शासित राज्य- पुड्डुचेरी में विधानसभा चुनाव होंगे। 2 मई को नतीजे क्या आएंगे- इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है। इन प्रदेशों में नई सरकार के निर्वाचन हेतु जहां स्वाभाविक रूप से स्थानीय मुद्दों का दबादबा होगा, वही राष्ट्रीय मुद्दों की भी अपनी भूमिका होगी, जिसमें "लव-जिहाद" विरोधी कानून भी एक है। भारतीय जनता पार्टी ने प.बंगाल, केरल विधानसभा चुनाव में विजयी होने पर इस संबंध में कानून लाने की बात कही है। इस संबंध में भाजपा की कटिबद्धता ऐसे भी स्पष्ट है कि उसके द्वारा शासित राज्यों में लव-जिहाद विरोधी कानून या तो लागू हो चुका है या फिर इसकी रुपरेखा तैयार की जा रही है। गत दिनों ही उत्तप्रदेश सरकार ने विधानसभा में "उत्तरप्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध" नामक विधेयक ध्वनि मत से पारित कराने में सफलता प्राप्त की है। यह विडंबना है कि देश के स्वघोषित सेकुलरवादी और "वाम-उदारवादी" अक्सर लव-जिहाद को भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) का एजेंडा बताकर इसे काल्पनिक बताते है। यह सही है कि हिंदूवादी संगठन इसपर मुखर है। किंतु यह भी एक सत्य है, जिसकी अवहेलना भारत में वैचारिक-राजनीतिक अधिष्ठान का एक बड़ा वर्ग करता है कि लव-जिहाद के खिलाफ सबसे पहले आवाज केरल के ईसाई संगठनों ने 2009 में बुलंद की थी, जिससे वह आज भी आतंकित है। जुलाई 2010 में केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ वामपंथी वी.एस. अच्युतानंदन भी प्रदेश में योजनाबद्ध तरीके से मुस्लिम युवकों द्वारा विवाह के माध्यम से हिंदू-ईसाई युवतियों के मतांतरण का उल्लेख कर चुके थे। यही नहीं, केरल उच्च न्यायालय भी समय-समय पर इस संबंध में सुरक्षा एजेंसियों को जांच के निर्देश दे चुकी है।
Dainik Jagran 2021-01-04

आखिर इस्लाम के कट्टर स्वरूप से विश्व कैसे निपटे?

फ्रांस पुन: सुर्खियों में है। इस बार कारण उसका वह प्रस्तावित अलगाववाद विरोधी विधेयक है, जो आगामी दिनों में कानून का रूप लेगा। इस विधेयक का प्रत्यक्ष-परोक्ष उद्देश्य इस्लामी कट्टरता से अपने सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को सुरक्षित रखना है। फ्रांस का मानना है कि जिहादियों ने मजहब के नाम पर जैसी हिंसा की है- उससे फ्रांसीसी एकता, अखंडता और उसके सदियों पुराने जीवनमूल्यों पर गंभीर खतरा हो गया है। फ्रांस के इन निर्णयों से तिलमिलाए कई इस्लामी देशों ने "फ्रांसीसी वस्तुओं के बहिष्कार" संबंधी आंदोलन को तेज कर दिया है। प्रस्तावित कानून के माध्यम से मस्जिदों को केवल पूजास्थल के रूप में पंजीकृत किया जाएगा। इस समय फ्रांस में 2,600 छोटी-बड़ी मस्जिदें है, इनमें से अधिकांश में मदरसों का संचालन होता है। ऐसा माना जाता है कि बहुत से मदरसे ही फसाद की असल जड़ है, जहां नौनिहालों में बचपन से ही विषाक्त अलगाववादी बीज बो दिए जाते है। इमामों को सरकारी देखरेख में प्रशिक्षण दिया जाएगा। किसी भी न्यायाधीश को आतंकवाद, घृणा या हिंसा के दोषी को मस्जिद जाने से रोकने का भी अधिकार होगा। बहुपत्नी विवाह (लव-जिहाद सहित) को भी काबू किया जाएगा। पेरिस-नीस आतंकवादी घटना के बाद से फ्रांस 75 प्रतिबंध लगा जा चुका हैं, तो 76 मस्जिदों के खिलाफ अलगाववाद भड़काने की जांच कर रहा है।
Amar Ujala 2020-11-26

"लव-जिहाद" की सच्चाई

क्या "लव-जिहाद" वास्तविकता है या मिथक? यह प्रश्न इसलिए उठ रहा है, क्योंकि गत 24 नवंबर को उत्तरप्रदेश सरकार ने गैरकानूनी मतांतरण संबंधी अध्यादेश पारित कर दिया। मध्यप्रदेश, हरियाणा, असम और कर्नाटक की सरकारों ने भी ऐसा ही कानून लाने निर्णय किया है। प्रस्तावित प्रारूप के अनुसार, बहला-फुसलाकर, प्रलोभन, लालच, बलपूर्वक, झूठ बोलकर हुए मतांतरण को अपराध माना जाएगा और ऐसा करने वाले को 1-10 वर्ष कारावास हो सकती है। यह सभी लोगों पर समान रूप से लागू होगा। जैसे ही इसपर सार्वजनिक विमर्श शुरू हुआ, वैसे ही स्वघोषित सेकुलरिस्टों और वामपंथियों के कुनबे ने इसे सांप्रदायिक और प्रतिगामी बताकर सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कटघरे में खड़ा कर दिया। इसी बीच विवाह हेतु मतांतरण पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो निर्णय सामने आए। एक मामले में मुस्लिम युवती समरीन हिंदू से शादी पश्चात प्रियांशी बन गई, जिसे अदालत ने अवैध माना और कहा, "केवल विवाह के लिए मतांतरण वैध नहीं"। वही दूसरे घटनाक्रम में हिंदू युवती प्रियंका, सलामत अंसारी से निकाह पश्चात मुस्लिम बन गई, जिसे उसी न्यायालय ने "पसंद का जीवनसाथी चुनने का अधिकार" बता दिया।
Dainik Jagran 2020-11-12

चीन पर चुप्पी, फ्रांस का विरोध क्यों?

पेरिस-नीस की आतंकवादी घटनाओं पर फ्रांसीसी प्रतिक्रिया के खिलाफ तमाम इस्लामी राष्ट्र और भारतीय उपमहाद्वीप के लाखों मुसलमान गोलबंद है। कराची स्थित इस्लामी उपद्रवियों ने जहां फ्रांस विरोधी प्रदर्शन में हिंदू मंदिर तोड़कर उसमें रखी मूर्तियों को नष्ट कर दिया, तो उन्मादी भीड़ ने ढाका स्थित कोमिला में दर्जनों अल्पसंख्यक हिंदुओं के घरों को आग लगा दी। अब घटना हुई फ्रांस में, किंतु हिंदुओं पर गुस्सा क्यों फूटा? शायद इसलिए, क्योंकि ईसाइयों की भांति हिंदू भी जिहादियों की नज़र में "काफिर" है। भारत में- भोपाल, मुंबई, हैदराबाद आदि नगरों में, जहां हजारों मुसलमानों ने उत्तेजित नारों के साथ प्रदर्शन किया, तो कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों (मुनव्वर राणा सहित) ने फ्रांस की आतंकवादी घटनाओं को उचित ठहराते नजर आए। मुसलमान आखिर किस बात से आक्रोशित है? उत्तेजित प्रदर्शनकारियों की नाराज़गी का कारण पैगंबर मोहम्मद साहब के कार्टून से जनित हिंसक घटनाक्रम में फ्रांस का "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" की रक्षा में डटे रहना है। वह इसे पैगंबर साहब का अपमान और इस्लाम पर हमला मान रहे है। क्या वाकई फ्रांस ने ऐसा कुछ किया है?
Sahara 2020-11-07

इस्लामोफोबिया का सच

हाल के वर्षों में अंग्रेजी शब्दकोश में एक नया शब्द "इस्लामोफोबिया" जुड़ गया है। "सेकुलरवाद" और "उदारवाद" के नाम पर विश्वभर (भारत सहित) के तथाकथित बुद्धिजीवी और अधिकांश मुस्लिम-विचारक इस संज्ञा का उपयोग धड़ल्ले से कर रहे है। इसके माध्यम से वह लोग यह संदेश देने का प्रयास कर रहे है कि इस्लाम के नाम पर लोगों को अकारण भयभीत, मुस्लिमों को प्रताड़ित और मुसलमानों को घृणा का पात्र बनाया जा रहा है। फ्रांस में पैगंबर साहब के कार्टून संबंधित हिंसक घटनाक्रम के संदर्भ में "इस्लामोफोबिया" फिर से सुर्खियों में है। फ्रांस की कुल आबादी 6.5 करोड़ में 8-9 प्रतिशत मुसलमान अर्थात् 55-60 लाख के बीच है। अधिकांश मुसलमान आप्रवासी मूल के है, जिनका संबंध गृहयुद्ध से जूझते या युद्धग्रस्त मध्यपूर्वी इस्लामी देशों से है। प्रश्न उठता है कि फ्रांस जैसे गैर-इस्लामी देश में इन लोगों ने शरण क्यों ली?- वह भी तब, जब विश्व में 56 मुस्लिम बहुल या इस्लामी गणराज्य है- जहां शरीयत का वर्चस्व है। शरण देने वाले अधिकांश यूरोपीय देशों में समस्या तब शुरू हुई, जब इन शरणार्थियों ने वहां की "उदारवादी" जीवनशैली पर जबरन इस्लाम को थोपना चाहा। फ्रांस की हालिया आतंकी घटना- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहां पैगंबर साहब का कार्टून दिखाने पर चार लोगों की हत्या कर दी गई। इस यूरोपीय देश ने "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" पर किसी भी प्रकार का समझौता करने से इनकार कर दिया है। क्या इसे "इस्लामोफोबिया" कहना उचित होगा? क्या फ्रांस के लोगों को अपनी जीवनमूल्यों के अनुरूप जीने का अधिकार नहीं है?





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