दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा क्यों भड़की?

देश की राजधानी दिल्ली का उत्तर-पूर्वी हिस्सा 23 फरवरी की रात से अगले 48 घंटों तक हिंसा की आग में जलता रहा। इसकी लपटें सड़क से संसद के भीतर तक भी उठती दिखीं। हिंसा में अबतक सुरक्षा अधिकारी अंकित शर्मा और पुलिसकर्मी रतनलाल सहित 53 लोगों की मौत हो चुकी है, तो 200 से अधिक लोग घायल बताए जा रहे है। मामले में पुलिस ने 250 से अधिक प्राथमिकी दर्ज की है और शाहरुख पठान सहित 900 से अधिक लोगों को या तो गिरफ्तार किया है या फिर हिरासत में लिया है। ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न है कि आखिर दिल्ली में हिंसा क्यों भड़की? क्या इसे समय रहते रोका जा सकता था? निर्विवाद रूप, हिंसा में दोनों पक्षों के जान-माल को भारी क्षति पहुंची है। किंतु मीडिया (अंतरराष्ट्रीय मीडिया सहित) का एक वर्ग इसके लिए खुलकर और एकपक्षीय रूप से भाजपा नेता कपिल मिश्रा के एक वक्तव्य को जिम्मेदार ठहराकर हिंदुओं को दमनकारी, तो मुस्लिम पक्ष को पीड़ित बता रहे है। क्या राजनीतिक रूप से ऐसा संभव है कि केंद्रीय सत्तारुढ़ दल का कोई भी आधिकारिक सदस्य या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थक/प्रशंसक ऐसे समय कोई भड़काऊ वक्तव्य देगा या फिर किसी हिंसा को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से बढ़ावा देने के बारे में सोचेगा, जब विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के राजकीय दौरे पर हो? नहीं। आखिर दिल्ली के दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम से सर्वाधिक लाभ किसे पहुंचा? क्या यह सत्य नहीं कि देश का एक वर्ग- जो स्वयं के सेकुलरिस्ट, उदारवादी और प्रगतिशील होने का दम भरते थकता नहीं है- वह समूह विकृत तथ्यों के माध्यम से पाकिस्तानी एजेंडे का हिस्सा बनकर और मोदी से घृणा-विरोध के कारण भारत की लोकतांत्रिक, सहिष्णु और बहुलतावादी छवि को वर्ष 2014 से दुनियाभर में धूमिल कर रहा है? सच तो यह है कि इस हिंसा से भारत और मोदी विरोधी जमात के उद्देश्यों की सर्वाधिक पूर्ति हुई है। जो लोग केवल कपिल मिश्रा को हिंसा के लिए कटघरे में खड़ा कर रहे है, वह उन सभी पर सुविधाजनक रूप से चुप्पी साधे हुए है, जिन्होंने मुस्लिम समुदाय को मिथक प्रचार के माध्यम से नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ सड़क पर उतरकर "संघर्ष" करने और "कुर्बानी" देने के लिए भड़काया था। इस जमावड़े में जहां जिहादी, वामपंथी और शहरी नक्सली अपनी-अपनी विचारधाराओं के कारण शामिल है, वही विरोधी दल के अधिकांश नेता यह जानते हुए कि इससे भारत की प्रतिष्ठा को सर्वाधिक धक्का पहुंचेगा- उसकी अवहेलना करते हुए और मोदी विरोध से प्रेरित होकर आज भी विषवमन कर रहे है। मैं अपने कॉलम में पहले ही विस्तार से लिख चुका हूं कि तीन तलाक विरोधी कानून, अनुच्छेद 370 के संवैधानिक क्षरण और रामजन्मभूमि पर आए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की संयुक्त बौखलाहट- सीएए विरोधी प्रदर्शन की वास्तविकता है। जिस प्रकार स्वघोषित सेकुलरवादियों और मुस्लिम जनप्रतिनिधियों के आशीर्वाद से स्थापित "शाहीन बाग" प्रदर्शन, जो भारत-हिंदू विरोधी उद्देश्य की पूर्ति हेतु "प्रायोगिक परियोजना" (पॉयलेट प्रोजेक्ट) के रूप में दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले शुरू किया गया था, उसमें प्रारंभिक सफलता मिलने के बाद इस जिहादी-वामपंथी मॉडल को शेष भारत में और आक्रामकता के साथ दोहराने का प्रयास किया जा रहा है। आखिर शाहीन बाग किसका प्रतीक है? संसद द्वारा पारित, राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित और संवैधानिक रूप से देशभर में लागू नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में 15 दिसंबर 2019 से शाहीन बाग में सैकड़ों लोग (अधिकांश मुस्लिम) प्रदर्शन कर रहे है। यहां प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली को नोएडा/ग्रेटर नोएडा और फरीदाबाद से जोड़ने वाले महत्वपूर्ण सड़क मार्ग (13ए और जीडी बिरला मार्ग), जहां प्रतिदिन हजारों छोटे-बड़े वाहनों का आवागमन होता है- वह 82 दिनों अवरूद्ध है, जिससे स्थानीय आर्थिक गतिविधि पूरी तरह बाधित हो गई है। बात केवल यहां तक सीमित नहीं है। शाहीन-बाग जैसे प्रदर्शनों में बहुसंख्यक हिंदुओं का अपमान करती और उनकी भावनाओं को भड़काती तस्वीरों के साथ यहां "जिन्नाह वाली आजादी" और "ला..इल्हा..." जैसे मजहबी और बहुलतावाद विरोधी नारें गुंजायमान हुए, साथ ही जिहादियों द्वारा असम को शेष भारत से अलग करने का खाका भी खींचा गया। देश के संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक बने शाहीन बाग संबंधित मामला अदालत में जनवरी 2020 से लंबित है, जिसपर अगली सुनवाई अब सर्वोच्च न्यायालय में 23 मार्च को होगी। सच तो यह है कि शाहीन बाग प्रदर्शन को सामान्यजन के लिए असुविधाजनक बताने के बाद भी अदालत द्वारा प्रदर्शनकारियों से वार्ता हेतु एक समूह का गठन करने और निर्णायक आदेश को पारित करने में हो रहे विलंब से देशविरोधी ताकतों को बल मिल रहा है। क्या यह सत्य नहीं कि भारत की छवि कलंकित करने के उद्देश्य से और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के 24 फरवरी को दिल्ली पहुंचने से पहले शाहीन बाग की भांति उत्तर-पूर्वी दिल्ली के जाफराबाद, वजीराबाद और चांदबाग की मुख्य सड़क को भी जिहादी-वामपंथियों के संयुक्त संयोजन ने बंधक बना लिया था? इसके पुनःसंचालन और स्थानीय लोगों को हो रही असुविधा से मुक्ति दिलाने हेतु 23 फरवरी को भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने पुलिस से आह्वान करते हुए कहा था- "यदि पुलिस ऐसा करने में विफल होती है, तो उन्हे सड़क पर इसके खिलाफ उतरना पड़ेगा।" अब मुख्य सड़कमार्ग को गैर-कानूनी बंधन से मुक्त कराने का प्रयास- भावनाओं को भड़काने जैसा कैसे हो गया? दिल्ली हिंसा के बाद जिस प्रकार न्यूज चैनलों और समाचारपत्रों की रिपोर्ट्स सामने आई है और संबंधित भयावह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है- वह पर्याप्त साक्ष्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सीएए विरोध के नाम पर दिल्ली को आग के हवाले करने की तैयारी कितने लंबे समय से चल रही थी। दंगाग्रस्त क्षेत्रों से जिन बिखरें ईंटों-पत्थरों को एकत्र किया गया है, जांच में उनका वजन चार लाख किलोग्राम पाया गया है। आम आदमी पार्टी पार्षद (निलंबित) ताहिर हुसैन के घर पर भारी मात्रा में पत्थर-ईंट, पेट्रोल बम के साथ प्रतिबंधित तेजाब (सल्फ्यूरिक एसिड) मिला है। यही नहीं, सामान ढोहने वाले ठेलों को वेल्डिंग के माध्यम से बड़ी गुलेल में परिवर्तित कर दिया गया, जो कई घरों की छतों पर भी पाई गई। क्या इस तरह की तैयारी एक दिन में संभव है? नहीं। स्पष्ट है कि इस प्रकार के घातक उपकरणों को तैयार करने और उन्हे उचित स्थानों पर स्थापित करने में कम से कम सप्ताहभर का समय लगा होगा। यक्ष प्रश्न है कि पुलिसबल समय रहते ठोस कदम क्यों नहीं उठा पाया? इसके दो उत्तर हो सकते है। पहला- किसी भी सांप्रदायिक दंगे की विस्तृत जानकारी सुरक्षा एजेंसियों के पास पहले से उपलब्ध शायद ही होती है। किंतु दिल्ली की हालिया हिंसा में जिस प्रकार देसी कट्टे, रिवॉल्वर, पेट्रोल बम, ईंट-पत्थर, तेजाब, गुलेल, कील, धारदार हथियार आदि का भारी मात्रा में उपयोग हुआ है, उससे साफ है कि दिल्ली को आग में झोंकने की तैयारी काफी पहले से की जा रही थी, जिसकी जानकारी जुटाने में खुफिया विभाग पूरी तरह विफल रहा। दूसरा- यदि पुलिस के पास पूर्वनिर्धारित हिंसा की खुफिया जानकारी पहले से थी, तब वह शायद अपने स्तर पर हिंसा रोकने हेतु आवश्यक कदम- समाज के स्वयंभू सेकुलर वर्ग से मिलने वाली संभावित प्रतिक्रिया के कारण नहीं उठा पाई होगी। जामिया घटनाक्रम इसका मूर्त रूप है। 15-16 दिसंबर 2019 को सीएए विरोधी हिंसक प्रदर्शन के दौरान दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने पुलिस पर जमकर पथराव किया था और जिहादियों व शरारती तत्वों के साथ मिलकर निजी-सार्वजनिक संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाया था। जब उपद्रवी हिंसा करने के बाद विश्वविद्यालय के भीतर छिपकर बैठ गए, तब पुलिस ने अंदर घुसकर उनपर लाठीचार्ज किया था। उस समय, पुलिस की उपयुक्त कार्रवाई को दमन-क्रूरता की संज्ञा देकर देश के स्वघोषित सेकुलरिस्ट उपद्रवियों के संरक्षक बन गए थे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पुलिस की निंदा हुई थी। विडंबना देखिए कि जामिया हिंसा में दिल्ली पुलिस की सक्रियता को कटघरे में खड़ा करने वाले दिल्ली के उत्तर-पूर्वी हिस्से में भड़की सांप्रदायिक हिंसा के समय पुलिस के संयंमपूर्ण और धैर्यपूर्ण व्यवहार पर प्रलाप कर रहे है और संसद के भीतर-बाहर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का त्यागपत्र मांग रहे है। सच तो यह है कि समाज में इस प्रकार की दोहरी मानसिकता से ही देशविरोधी शक्तियों को बल मिल रहा है।