गत कई दिनों से अधिकांश विपक्षी दल पेगासस जासूसी मुद्दे को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ लामबंद है। प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस संबंध में जहां एक जांच समिति का गठन कर दिया है, वही अन्य विरोधी दल- कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी के नेतृत्व मं, संसद के मॉनसून सत्र को बाधित कर रहे है। इस प्रकार की सरकार विरोधी जुगलबंदी नई बात नहीं है। वर्ष 2014 के बाद कभी लोकतंत्र, संविधान, न्यायिक प्रणाली, ईवीएम, असहिष्णुता, संघीय ढांचा और तो अब "निजता पर हमले" के नाम पर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करके विश्व के सबसे बड़े भारतीय लोकतंत्र को कलंकित किया जा रहा है। आखिर पिछले 88 महीनों में ऐसा क्या-क्या हुआ है, जिससे अधिकांश विपक्षी दल हतप्रभ है? इसका उत्तर जानने से पहले पेगासस संबंधित कालक्रम और इसकी जड़ों को खोजना आवश्यक है। पेगासस संबंधित रिपोर्ट को "एमनेस्टी इंटरनेशनल", "फॉरबिडन स्टोरीज" और "सिटीजन लैब" आदि नामक अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठनों ने मिलकर तैयार की है। कई विस्तृत रिपोर्टों से स्पष्ट हो चुका है कि पेगासस संबंधित खुलासे में तथ्य कम, पूर्वाग्रह और भ्रम की भरमार अधिक है। उदाहरणस्वरूप, 750 करोड़ से अधिक आबादी वाले विश्व में 67 में से मात्र 23 मोबाइल फोन में जासूसी हेतु मिले इजराइल निर्मित तथाकथित पेगासस सॉफ्टवेयर को आधार बनाकर दावा किया जा रहा है कि दुनियाभर (भारत सहित) में 50 हज़ार लोगों की जासूसी की गई है। यह आंकड़ा कहां से आया? इससे बढ़कर जिन 23 मोबाइलों में यह सॉफ्टवेयर मिलने का दावा किया गया है, वह कौन है- इसका मूल रिपोर्ट में कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है। क्यों? आखिर ऐसी रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्थाओं की विश्वसनीयता क्या है? गत वर्ष ही एमनेस्टी पर भारतीय कानूनों के उल्लंघन और भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। इस संबंध में प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई (बैंक खाते जब्त सहित) होने के बाद इस संस्था ने देश से भागना उचित समझा था। वही पेरिस स्थित "फॉरबिडन स्टोरीज" संगठन भारत सहित दुनियभार में मीडिया-समूहों (अधिकांश वामपंथ केंद्रित) को सहयोग देने के लिए विख्यात है। "सिटीजन लैब" कनाडा सरकार द्वारा वित्तपोषित संस्था है। यह किसी से छिपा नहीं है कि कनाडाई सरकार भारत की संप्रभुता को कमजोर करने वाले खालिस्तानी आतंकवादियों की कितनी बड़ी समर्थक है। "पेगासस प्रोजेक्ट" हेतु अधिकांश अनुदान विवादित धनवान जॉर्ज सोरोस द्वारा संचालित ओपन सोसाइटी फाउंडेशन से प्राप्त हुआ हैं। आखिर जॉर्ज सोरोस कौन है? सोरोस अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शासन-परिवर्तन के लिए कुख्यात है और उनका वैचारिक झुकाव वामपंथ की ओर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सोरोस की घृणा उनके पूर्ववर्ती बयानों से सर्वविदित है। कश्मीर से धारा 370 समाप्त करने से लेकर नागरिकता कानूनों जैसे मुद्दों पर सोरोस खुलकर मोदी सरकार की आलोचना कर चुके हैं। इस संबंध में गत वर्ष ही उन्होंने घोषणा की थी कि वे भारत जैसे देशों की अंदरूनी राजनीति को बदलने के लिए एक अरब डॉलर का वित्तपोषण करेंगे। क्या पेगासस के माध्यम से भारत की लोकतांत्रिक छवि को धूमिल करने का प्रयास सोरोस के उसी कुटिल षड़यंत्र का हिस्सा नहीं है? विडंबना है कि मोदी विरोध के नाम पर देश के अधिकांश विपक्षी सोरोस के हाथों की कठपुतली बने हुए है। वे पेगासस मामले को लेकर संसद की कार्यवाही नहीं चलने दे रहे है। यह स्थिति तब है, जब देश कोरोना की दूसरी लहर से लगभग बाहर निकल चुका है। केरल और महाराष्ट्र को छोड़ दिया जाए, तो देश के बाकी हिस्सों में तुलनात्मक रूप से कोरोना की दूसरी लहर थम सी गई है। देश के 46 करोड़ से अधिक नागरिकों (विश्व में सर्वाधिक) को कोरोना टीके की कम से कम एक खुराक लग चुकी हैं। निसंदेह, यह स्थिति उन भारत विरोधी शक्तियों (जॉर्ज सोरोस आदि सहित) के लिए अत्यंत निराशा से भरी है, जो कुछ माह पहले तक कोरोनावायरस के नाम पर देश के मूल हिंदूवादी चरित्र और उसकी परंपराओं को शेष विश्व में बदनाम कर रहे थे। अब यह संयोग है या फिर सुनियोजित कि पेगासस मामले और कोविड-19 की दूसरी लहर पर देश के स्वयंभू सेकुलरवादी सहित वामपंथी-जिहादी कुनबे, पाकिस्तान और देशविरोधी ताकतों की भाषा लगभग एक है। वास्तव में, भारत के विरुद्ध इस वैश्विक लामबंदी का एकमात्र उद्देश्य उस वांछनीय व्यवस्था को बहाल करना है, जिसमें दशकों से भारतीयों को स्थानीय सहायता (सेकुलरवाद के नाम पर) से उनकी मूल अनादिकालीन सनातन जड़ों से काटा (मतांतरण सहित) और भारतीय नेतृत्व को राष्ट्रहित को गौण करते हुए विदेशी सत्ता-अधिष्ठानों के अनुरूप काम करने के लिए बाध्य किया जा रहा था। कांग्रेस नीत संप्रगकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एन.एस.ए.) और भारतीय विदेश सचिव जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे शिवशंकर मेनन का गत वर्ष अमेरिकी पत्रिका में प्रकाशित कॉलम- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। आलेख में मेनन इस बात से नाराज दिख रहे थे कि आखिर अमेरिका कैसे भारत को स्वतंत्र रूप से काम करने दे रहा है। क्या यह भारत की पुरानी विदेश-नीति को स्पष्ट नहीं करता है? यह साफ है कि अधिकांश विपक्षी दल मोदी को हटाना चाहते है, किंतु ऐसा करने के बाद वे देशहित में क्या योजनाएं लागू करना चाहते है- यह स्पष्ट नहीं है। सच तो यह है कि मोदी विरोध के नाम पर विपक्षी दलों की यह अस्वाभाविक एकजुटता- दो विचारों के बीच संघर्ष का प्रतीक है। इसके एक पक्ष का प्रतिनिधित्व- कांग्रेस, तृणमूल, सपा, बसपा आदि विपक्षी दल कर रहे है, जो मई 2014 से पूर्व व्यवस्था के पक्षधर है। सात वर्ष पहले तक तत्कालीन भारतीय नेतृत्व, चीन के खिलाफ 1962 की पराजित मानसिकता से ग्रस्त था। इसी कारण चीन कालांतर में कई सौ वर्ग किलोमीटर भारतीय भूखंड पर कब्जा करने में सफल भी हो गया। किंतु वर्तमान केंद्र सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति, निर्भिकता और उसकी राष्ट्रीय संप्रभुता-सुरक्षा को सुनिश्चित रखने की प्रतिबद्धता ने भारत को पहले 2017 के डोकलाम प्रकरण में, फिर 2020-21 में पूर्वी लद्दाख सैन्य संघर्ष में चीन के विरुद्ध कूटनीतिक सफलता दिलाई है। क्या मोदी विरोधी दलों को यह बदलाव पच नहीं रहा? विपक्षी दलों की उसी वांछित व्यवस्था के अंतर्गत राममंदिर का मामला भी दशकों से लटका हुआ था। पूर्ववर्ती सरकारों की ओर अक्सर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से यह कहते हुए भी संबंधित अदालती कार्यवाही को बाधित और देश को भ्रमित किया जाता रहा था कि इससे देश का सांप्रदायिक माहौल बिगड़ सकता है। किंतु जब सर्वोच्च न्यायालय ने नवंबर 2019 को रामलला के पक्ष निर्णायक फैसला सुनाया, तब देश के किसी भी कोने में किसी सांप्रदायिक तनाव की खबर सामने नहीं आई। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि निष्पक्ष अदालती कार्यवाही में मोदी सरकार की ओर से किसी प्रकार विघ्न नहीं डाला गया और कुछ अपवादों को छोड़कर मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा करोड़ों हिंदुओं की भांति भी इस फैसले से संतुष्ट दिखा। क्या प्रधानमंत्री मोदी से विपक्षी दलों की कुंठा का यह एक बड़ा कारण नहीं है? अधिकांश विपक्षी दल धारा 370-35ए की बहाली के पक्ष में भी है- ताकि घाटी में दलित फिर से अपने अधिकारों वंचित हो जाए, कश्मीरी मस्जिदों से फिर से भारत-हिंदुओं की मौत की दुआ मांगी जाए, निजाम-ए-मुस्तफा को स्थापित करने के नारे पुन: लगे, आतंकियों की ढाल बनकर स्थानीय लोग सुरक्षाबलों पर फिर पत्थर बरसाए, सिनेमाघरों पर ताले लगे रहे और कश्मीरी पंडितों की अपने मूल-निवासस्थान में वापसी न हो पाए। इसके अतिरिक्त, विपक्षी दल पुरानी व्यवस्था के अंतर्गत मुस्लिम महिलाओं को पुन: तीन तलाक रूपी सामाजिक कुरीतियों से घिरे रहने और आढ़तियों के एक वर्ग द्वारा करोड़ों छोटे-मझोले किसानों के शोषण के पैरोकार है। यही नहीं, वे किसी भी सौदे (रक्षा सहित) में कमीशनखोरी की स्वतंत्रता, भ्रष्टाचार करने की छूट, आरोपियों निश्चिंत होकर देश-विदेश घूमने, जवाबदेही मुक्त शासन-प्रशासन, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (2004-14) जैसा समांतर संविधानेत्तर केंद्र स्थापित करने और भारत की विदेश निर्मित उत्पादों पर निर्भरता के पक्ष में भी है। क्या यह सत्य नहीं कि इसी संघर्ष का दूसरा पक्ष उपरोक्त सभी विकृतियों के सामने पिछले सात वर्षों से अवरोधक बनकर खड़ा है? वास्तव में, अधिकांश मोदी विरोधी दलों की एकजुटता समयोचित परिवर्तन के बीच केवल यथास्थितिवादियों की बौखलाहट का परिचायक है।