घोर घृणाग्रस्त और अंधा-लालच या फिर इन दोनों दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति या समूह- समाज को कितने भयंकर संकट में डाल सकता है, इसकी बानगी हमें कोविड-19 के दौर में देखने को मिल रही है। इस विकृत कड़ी में नवीनतम प्रयास कांग्रेस में सोशल मीडिया और डिजिटल संचार के राष्ट्रीय समन्वयक गौरव पांधी ने हाल ही में किया है। उन्होंने कोवैक्सीन में "गाय के नवजात बछड़े का सीरम" होने का दावा किया था। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि पांधी या फिर उनकी पार्टी की गोवंश के प्रति कोई श्रद्धा है। यहां गौरव का उद्देश्य केवल लोगों को वैक्सीन के प्रति पुन: हतोत्साहित करना है। स्मरण रहे कि 2017 में केरल की सड़क पर कांग्रेस के नेताओं ने दिनदहाड़े सरेआम गाय के बछड़े की हत्या और उसके मांस का सेवन करके "सेकुलरवाद" में अपनी आस्था का प्रमाण दिया था। वैश्विक महामारी के खिलाफ भारत विगत वर्ष से संघर्षरत है। किंतु विशुद्ध राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से घृणा करने वालों का कुनबा- इस युद्ध में भारत का पक्ष कमजोर कर रहा है। इस षड़यंत्र के एक छोर पर जहां सांप्रदायिक मानस से प्रेरित उत्तरप्रदेश की कनिष्ठ स्वास्थ्य कर्मचारी निहा खान है, तो दूसरी ओर प्रभावशाली स्थानों पर आसीन स्वघोषित सेकुलरवादियों की जमात- दुष्प्रचार और कुतर्क के आधार पर कोविड विषाणु के साथ खड़ी है। इस कुनबे को "कोरोना बंधु" की संज्ञा से भी परिभाषित किया जा सकता है। वैक्सीन के लिए "खतरनाक", "असुरक्षित", "भारतीय कोई गिनी सुअर नहीं", "लोगों को प्रयोगशाला का चूहा मत बनाओ", "वैक्सीन निर्माता मोदी के मित्र", "भाजपा की वैक्सीन" सहित नपुंसकता बढ़ाने जैसे वक्तव्यों ने न केवल विश्व में भारत की छवि धूमिल करने का प्रयास किया, साथ ही अनगिनत लोगों के जीवन को खतरे में भी डाल दिया। शायद ही ऐसे दुर्भाग्यशाली लोगों को गणना हो पाए, जो भ्रामक दुष्प्रचार के कारण वैक्सीन नहीं लगाने की वजह से कोविड से कालकवलित हो गए। देश में कोविड-19 टीकाकरण अभियान की शुरुआत 16 जनवरी 2021 को हुई थी। तब पहले चरण में तीन करोड़ कोरोना योद्धाओं (स्वास्थ्यकर्मी सहित) को वैक्सीन लगाने का लक्ष्य रखा गया था। उस समय शशि थरुर, जयराम रमेश, मनीष तिवारी सहित विपक्षी नेताओं और सोशल मीडिया पर कई प्रभावशाली लोगों ने स्वदेशी वैक्सीन पर संदेह जताना प्रारंभ कर दिया। परिणामस्वरूप, एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, 28 मार्च 2021 तक मात्र 90 लाख कोरोना योद्धाओं- अर्थात् 30 प्रतिशत ने ही टीका लगवाया। लोकतंत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पसंद और नापसंद करने का अधिकार सभी को है। परंतु क्या निर्दोष लोगों की जान की कीमत पर मोदी विरोध करना उचित है? मई के अंतिम सप्ताह में जारी आंकड़े के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर देश में 6.3 प्रतिशत टीके बर्बाद हुए। राज्यों की बात करें, तो इसमें सबसे ऊपर झारखंड है, जहां 37.3 प्रतिशत अर्थात् हर तीन में से एक टीका बेकार हुआ, तो छत्तीसगढ़ में 30.2 प्रतिशत वैक्सीन किसी के काम नहीं आई। राजस्थान में 11.5 लाख से अधिक टीके खराब हुए। बीते दिनों यहां के 35 वैक्सीन केंद्रों के कचरे में 532 वैक्सीन वायल (2,500 से अधिक खुराक) मिली थी। सोचिए, जो लाखों टीके नष्ट हुए, उनसे कितने लोगों को मौत और कोविड संक्रमण से बचाया जा सकता था। प्रारंभ से मोदी सरकार मुफ्त कोविड टीकाकरण कार्यक्रम का नेतृत्व कर रही थी। किंतु विपक्ष ने राज्यों के संघीय अधिकार का मामला उठाकर विकेंद्रीकरण और आयु-सीमा हटाने के नाम पर टीकाकरण कार्यक्रम में अवरोध खड़ा करना प्रारंभ कर दिया। विवाद खत्म करने और अभियान को निर्विघ्नं बनाने हेतु केंद्र ने इन मांगों को स्वीकार करते हुए एक मई से इसे लागू कर दिया। जब कोई राज्य इसमें सफल नहीं हुआ, तब 7 जून को प्रधानमंत्री मोदी ने पुन: संपूर्ण वैक्सीन कार्यक्रम को नियंत्रण में लिया और 18 आयु से ऊपर सभी नागरिकों के मुफ्त टीकाकरण की घोषणा कर दी। स्पष्ट है कि विपक्ष की हठधर्मिता ने देश का वह उपयोगी समय व्यर्थ कर दिया, जिसमें कई लोगों की जिंदगियां वैक्सीन से बच सकती थी। वैक्सीन विरोध में केवल प्रधानमंत्री मोदी से राजनीतिक, विद्वेष रखने वाले दल ही नहीं, अपितु सहायक नर्स मिडवाइफ (एएनएम) नर्स निहा खान (जिसके नाम का उल्लेख आलेख की शुरूआत में किया है) जैसे भी शामिल है। निहा पर अलीगढ़ (उत्तरप्रदेश) स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में वैक्सीन को कूड़ेदान में फेंककर लोगों को खाली सिरिंज चुभाने का आरोप है। आखिर निहा ने ऐसा क्यों किया? संभवत: इसलिए कि कोरोना वैक्सीन ना लगे, कोविड संक्रमण व्यापक फैले, अफरातफरी हो, चिताओं का अंबार लगे, भारतीय टीके की बदनामी हो और उसकी वैज्ञानिक प्रमाणिकता पर सवालिया निशान लग जाए। निहा एक व्यक्ति नहीं, बल्कि घृणा जनित रुग्ण मानसिकता है। इस प्रकार के सैकड़ों-हजारों लोग समाज में हम लोगों के बीच सक्रिय है, जो अपने उद्देश्यों (मजहबी सहित) की प्राप्ति हेतु किसी भी हद तक जाने को तत्पर है। इनमें से कुछ (निहा सहित) चिन्हित हो गए, तो अधिकतर आज भी गुमनाम है। यह समूह निश्चित रूप से भारत और उसकी कोरोना विरोधी लड़ाई के खिलाफ है। इनपर भी "कोरोना बंधु" की परिभाषा सटीक बैठती है। यह ठीक है कि जब देश में कोरोना की दूसरी लहर आई, तब हमारी चिकित्सीय व्यवस्था (अमेरिका, इटली आदि कई देशों की भांति) चरमरा गई। रातोंरात ऑक्सीजन, वेंटिलेटर, बिस्तर, अन्य चिकित्सीय उपकरणों और जीवनरक्षक दवाओं की मांग कई गुना बढ़ने से स्थिति बेकाबू हो गई। किंतु भारत में "कोढ़ में खुजली" का काम हमारे समाज के उन तुच्छ मानसिकता वालों ने कर दिया, जो त्रासदी के समय मरीजों का शोषण करना नहीं भूले और ऑक्सीजन से लेकर कोविड रोधी दवा सहित की कालाबाजारी करते हुए मनमाने दाम वसूलने लगे। यहां तक नकली वैक्सीन और दवाओं के बाजार में बेचे जाने की खबरें आने लगी। निसंदेह, इन लोगों के लालच ने भी कोरोना को भयावह बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। यह अकाट्य सत्य है कि कोविड-19 के खिलाफ भारत का प्रारंभिक संघर्ष योजनाबद्ध और सफल रहा था। किंतु बाद में हम क्यों पिछड़ गए- इसका उत्तर उपरोक्त घटनाक्रम में छिपा है। यह लगभग स्पष्ट हो चुका है कि कोविड-19 वायरस का जन्म चीन की धरती पर हुआ। हमारी लड़ाई तार्किक तौर पर कोरोना वायरस और उसके जन्मदाता के खिलाफ होनी चाहिए थी। कठिनाइयों के बावजूद हम इसमें सफल होते। किंतु इस युद्ध में हमारी त्रासदी इसलिए कई गुना बढ़ गई, क्योंकि समाज के एक प्रभावशाली वर्ग ने सार्वजनिक विमर्श को हाईजैक कर लिया और आमजन के बजाय शत्रुओं (कोविड सहित) का प्रत्यक्ष-परोक्ष साथ दिया या यूं कहे कि अब भी दे रहे है। फिलहाल, भारत ने कोविड-19 की दूसरी लहर को रोकने में काफी हद तक सफलता प्राप्त कर ली है। किंतु यह समय संतुष्ट होने का नहीं है। एक लड़ाई में हमने निर्णायक बढ़त अवश्य हासिल कर ली है, परंतु युद्ध जारी है। भारत को अभी तीन मोर्चों पर निरंतर लड़ना है। पहला- कोविड-19, दूसरा- इसका जनक चीन, और तीसरा- भारत में सक्रिय "कोरोना बंधुओं" की टोली।