दिल्ली स्थित सराय काले खां घटनाक्रम से स्वयंभू सेकुलरवादी, वामपंथी-जिहादी और उदारवादी-प्रगतिशील कुनबा अवाक है। इसके तीन कारण है। पहला- पूरा मामला देश के किसी पिछड़े क्षेत्र में ना होकर राजधानी दिल्ली के दलित-बसती से संबंधित है। दूसरा- इस कृत्य को प्रेरित करने वाली मानसिकता के केंद्रबिंदु में घृणा है। और तीसरा- पीड़ित वर्ग दलित है, तो आरोपी मुस्लिम समाज से संबंध रखता है। "जय भीम-जय मीम" का नारा बुलंद करने वालों और दलित-मुस्लिम गठबंधन के पैरोकारों के लिए इस घटनाक्रम में तथ्यों को अपने विकृत नैरेटिव के अनुरूप तोड़ना-मरोड़ना कठिन है। मामला सराय काले खां से सटे दलित बस्ती में 22 वर्षीय हिंदू युवक के 19 वर्षीय मुस्लिम युवती से प्रेम-विवाह से जुड़ा है। सोशल मीडिया में वायरल तस्वीरों और मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, सुमित नामक युवक ने 17 मार्च को एक मंदिर में हिंदू वैदिक संस्कार और रीति-रिवाज के साथ अपनी प्रेमिका खुशी से विवाह किया था। उसी मंदिर में मुस्लिम युवती ने अपनी इच्छा से मतांतरण भी किया। इस संबंध में युवती ने थाने जाकर सहमति से शादी करने संबंधी बयान भी दर्ज करवाया था। इन सबसे नाराज मुस्लिम लड़की के परिजनों और उनके साथियों ने 20 मार्च (शनिवार) रात दलित बस्ती में घुसकर जमकर उत्पात मचाया और दोनों को जान से मारने की धमकी दी। देर रात 20-25 युवकों की मुस्लिम भीड़ ने हिंदुओं की कुल तीन गलियों को निशाना बनाकर तलवार लाठी डंडे और पत्थरों के साथ हमला कर दिया। आरोपी पक्ष पर आरोप है कि वे "खून की होली" खेलने जैसी धमकियां दे रहे थे। दिल्ली पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज करके युवती के भाई सहित चार युवकों को गिरफ्तार किया है। आलेख लिखे जाने तक, क्षेत्र में फिलहाल शांति है और अर्धसैनिक बल तैनात हैं। पीड़ित प्रेमी-युगल ने एक वीडियो जारी करके स्थानीय प्रशासन से सुरक्षा मांगी है, तो दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुलिस से 6 अप्रैल तक रिपोर्ट। कल्पना कीजिए यदि इस मामले में आरोपी पक्ष मुस्लिम परिवार के बजाय हिंदू समाज से ब्राह्मण, क्षत्रिय या बनिया होता, तो वामपंथी-जिहादी-सेकुलरवादी कुनबा सड़कों पर तख्तियां लेकर एकाएक उतर आता और हिंदू समाज को कलंकित करने का हरसंभव प्रयास करते। भारतीय समाज में जातिभेद एक कटु सत्य है और हिंदू समाज के भीतर से दर्जनों सफल परिमार्जन रूपी प्रयासों के बाद वंचित वर्गों के साथ भेदभाव अभी पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया है। सच तो यह है कि मध्यकाल में विदेशी शक्तियों के साथ आई विकृतियों ने इस समस्या का वस्तुनिष्ठ हल ढूंढने के बजाय इसे अपने एजेंडे के अनुरूप और गहरा करने का काम किया है। छुआछूत और भेदभाव का कभी कोई समर्थन नहीं कर सकता। भारतीय इतिहास में सैकड़ों प्रेरणादायक प्रसंग हैं। त्रेतायुग में भगवान श्रीराम को अपनी नौका में सवार करने वाला केवट उपेक्षित वर्ग से था, नाकि कोई ब्राह्मण। प्रभु राम ने केवट को गले से लगाया और उन्हें अपने हृदय में भरत के समान स्थान दिया। वनवासकाल में श्रीराम का अधिकांश समय निषाद, कोलभील, किरात, वनवासी और भालू और वानरों के साथ गुजरा। उन्होंने गिद्धराज जटायु, जो मांसाहारी था- उनका अंतिम संस्कार अपने हाथों से किया। निसंकोच शबरी के झूठे बेर खाए। असुर विभीषण को अपनाया। रावण का वध किया, जो जन्म से ब्राह्मण था और आचरण से भ्रष्ट व दुराचारी। बात यदि सराय काले खां मामले की करें, तो इस संबंध में एक न्यूज वेबसाइट "द क्विंट" की जो रिपोर्ट सामने आई है, उसने "दलित-मुस्लिम" एकता संबंधित दावे की फिर से हवा निकाल दी है। "द क्विंट" से बात करते हुए लड़की का पिता मजीद कहता है, "...अगर वो हमारे समाज का भी नहीं होता, पर इस समाज का नहीं होता और दूसरे समाज का होता, तो मैं हंसी खुशी कर देता। लेकिन इस समाज का है, वो तो मैंने तो अपनी बेटी के सामने हाथ जोड़ लिए। हम मुस्लिम हैं और वो वाल्मीकि।" बकौल युवक की मां, जब वह अपने परिवार के साथ शादी का प्रस्ताव लेकर खुशी के घर पहुंचे थे, तब उन्हें जातिसूचक शब्दों के साथ तिरस्कृत किया गया था। वास्तव में, दलित परिवार से मुस्लिम युवती के परिजनों के इस घृणास्पद आचरण के पीछे कारण कोई जातिगत नहीं, अपितु मजहबी है। मुसलमान और गैर-मुस्लिम के बीच विवाह एकतरफा रहता है- क्योंकि इस्लाम में मुस्लिम का गैर-मुस्लिम से विवाह "हराम" है। शरीयत में निकाह तभी स्वीकार्य है, जब गैर-मुस्लिम इस्लाम स्वीकार कर लें। इसी मानसिकता के गर्भ से "लव-जिहाद" का जन्म हुआ है, जिसका उद्देश्य बिना किसी भौतिक हथियार से गैर-इस्लामी समाज का इस्लामीकरण करना है। सच तो यह है कि "अस्वाभाविक" दलित-मुस्लिम गठबंधन से अल्पकालीन राजनीतिक हित तो साधे जा सकते हैं, किंतु इससे सामाजिक न्याय की कल्पना बिल्कुल बेमानी है। संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर की पुस्तक "पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इंडिया" की पृष्ठ संख्या- 330 में लिखा है, "इस्लाम का बंधुत्व मानवता का सार्वभौम बंधुत्व नहीं है। यह बंधुत्व केवल मुसलमान का मुसलमान के प्रति है। इस्लाम कभी एक सच्चे मुसलमान को ऐसी अनुमति नहीं देगा कि आप भारत को अपनी मातृभूमि मानो और किसी हिंदू को अपना आत्मीय बंधु।" स्पष्ट है कि अन्य गैर-मुस्लिमों की भांति दलित भी इस्लाम में "काफिर" है, जिनकी नियति पहले से निर्धारित है। स्वतंत्रता से पहले दलित-हित रक्षक जोगेंद्रनाथ मंडल इस विकृति को झेल चुके है। वे मजहबी मुस्लिम लीग के सच्चे समर्थक थे। इसके उपहारस्वरूप, उन्हें पाकिस्तानी संविधान सभा की अध्यक्षता करने का अवसर मिला और वे पहली पाकिस्तानी सरकार में कानून-श्रम मंत्री भी बने। जल्द ही "दलित-मुस्लिम भाई भाई" नारे का यथार्थ मंडल के सामने आ गया। पाकिस्तान का लक्ष्य पा लेने के बाद मुस्लिम लीग अपने दार-उल-इस्लाम को "काफिरों" से मुक्त करने के एजेंडे पर जुट गया। दलितों को इस्लामी कट्टरपंथियों के भयावह उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। इस्लाम के नाम पर कई दलित विरोधी हिंसक घटनाओं का उल्लेख करके उन्होंने 8 अक्टूबर 1950 को तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली को त्यागपत्र दे दिया और टूटे मन के साथ वापस भारत लौट आए। इस्लामी "इको-सिस्टम" और इस्लाम केंद्रित राजनीति में दलित-उत्थान की बात छल है। यह घोषित इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान में शेष हिंदुओं, जिसमें 80 प्रतिशत से अधिक दलित है- उनकी दयनीय स्थिति से स्पष्ट हो जाता है। वहां न केवल स्थानीय प्रशासन की प्रत्यक्ष-परोक्ष सहायता से आए दिन दलितों का मजहबी उत्पीड़न होता है और उनकी बेटियों से जबरन मतांतरण के बाद निकाह करा दिया जाता है, अपितु शौचालयों की साफ-सफाई हेतु केवल गैर-मुस्लिमों अर्थात्- दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों की ही नियुक्ति की जाती है। बांग्लादेश की स्थिति इससे अलग नहीं है। प्रतिकूल इसके भारत में सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त है और हिंदू समाज में दलित-वंचितों के हितों की रक्षा हेतु आरक्षण सहित कई व्यवस्थाएं की गई है। कटु सत्य तो यह है कि खंडित भारत में दलितों के अधिकार उन क्षेत्रों में सीमित है- जहां मुस्लिम बहुसंख्यक है। कश्मीर के इस्लामी स्वरूप को बरकरार रखने हेतु निर्धारित धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण होने तक कश्मीर में 70 वर्षों से दलितों के सभी अधिकार छीनकर उन्हें केवल शौचालयों की साफ-सफाई व कचरा उठाने तक सीमित रखा गया था। हरियाणा के मुस्लिम बहुल मेवात क्षेत्र में भी दलितों की स्थिति चिंताजनक है। पूर्व न्यायाधीश पवन कुमार की अध्यक्षता वाली चार सदस्यीय समिति ने 1 जून 2020 को जारी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मुस्लिम बहुल मेवात हिंदुओं विशेषकर दलितों के लिए कब्रिस्तान बनता जा रहा है। महिलाओं को अगवा करना, दुष्कर्म और जबरन मतांतरण की कई घटनाएं वैसे ही सामने आए हैं, जैसी खबरें पाकिस्तान से आती रहती है। जिस चिंतन के कारण भारत का विभाजन हुआ, वह आज भी खंडित भारत में सक्रिय है और उसे स्वयंभू सेकुलरिस्टों के आशीर्वाद से फिर से कई टुकड़ों में तोड़ने की योजना पर काम कर रही है। वामपंथी-जिहादी-सेकुलरवादी कुनबा वर्षों से जिस सामाजिक अन्यायों की चर्चा कर रहे है, उसका एकमात्र उद्देश्य इनका परिमार्जन नहीं, अपितु समाज में जातीय-संघर्ष को अविरल बनाए रखना है। सराय काले खां घटनाक्रम पर इस जमात की सुविधाजनक प्रतिक्रिया- इसका प्रमाण है।