दिल्ली सीमा पर कृषि-सुधार कानून विरोधी आंदोलन को ढाई माह से ऊपर हो गया है। यह कब समाप्त होगा- कहना कठिन है। किंतु इस आंदोलन में कुछ सच्चाइयां छिपी है, जिससे हमें वास्तविक स्थिति को समझने में सहायता मिलती है। पहला- यह किसान आंदोलन ही है। दूसरा- कृषि सुधारों के खिलाफ आंदोलित यह किसान देश के कुल 14.5 करोड़ किसानों में से मात्र 4-5 लाख का प्रतिनिधित्व करते है। तीसरा- यह संघर्ष नव-धनाढ्य किसानों के वित्तीय हितों और अस्तित्व की रक्षा को लेकर है। और चौथा- इस विरोध प्रदर्शन का लाभ हालिया चुनावों (2019 का लोकसभा चुनाव सहित) में पराजित विपक्षी दलों के समर्थन से जिहादी, खालिस्तानी, वामपंथी, वंशवादी और प्रतिबंधित एनजीओ और शहरी नक्सली जैसे प्रमाणित भारत विरोधी अपने-अपने एजेंडे की पूर्ति हेतु उठा रहे है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 फरवरी को राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए व्यंग-विनोद में "आंदोलनजीवी" शब्दावली का उल्लेख किया था। वास्तव में, यह लोग अलग-अलग रूपों में भारत की मूल सनातन और बहुलतावादी भावना के खिलाफ दशकों से प्रपंच रच रहे है। चूंकि अपनी विभाजनकारी मानसिकता और भारत-विरोधी चरित्र के कारण यह समूह अपने बल पर भारत में कोई भी आंदोलन खड़ा करने में असमर्थ है, इसलिए वे दशकों से- विशेषकर वर्ष 2014 के बाद से देश में सत्ता-अधिष्ठान विरोधी प्रदर्शनों (वर्तमान किसान आंदोलन सहित) में शामिल होकर खंडित भारत को फिर से टुकड़ों में विभाजित करने का प्रयास कर रहे है। गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में उपद्रव, लालकिले के प्राचीर में जबरन घुसकर पंथविशेष का ध्वज फहराना और खालिस्तान समर्थकों द्वारा विदेशों में प्रदर्शन के बाद एक विषाक्त "टूलकिट" का खुलासा होना, जिसमें योजनाबद्ध तरीके से किसान आंदोलन को लेकर भारत-विरोधी अभियान छेड़ने का उल्लेख है- इसका प्रमाण है। सच तो यह है कि दिल्ली सीमा पर नवंबर के अंतिम सप्ताह से जारी किसान आंदोलन- भारतीय कृषक समाज के अभिजात्य वर्ग का दशकों पुराने विशेषाधिकार को यथावत रखने हेतु शेष किसानों (12 करोड़ छोटे-सीमांत किसान सहित) और उनके हितों के खिलाफ संगठित-संसाधन युक्त संघर्ष है। यह सब- अधिकांश आंदोलित किसानों की विलासी जीवनशैली, उनके लंबे-चौड़े मोटर-वाहनों, आधुनिक परिधानों, महंगे स्मार्टफोन और पाश्चात्य भोजन के सेवन से स्पष्ट भी हो जाता है। वास्तव में, नए कृषि कानून संबंधित विवाद पर विश्वप्रसिद्ध अंग्रेजी विद्वान विलियम शेक्सपियर द्वारा लिखित हास्यनाटक का शीर्षक "Much Ado About Nothing" अर्थात्- "बेकार की बातों पर झमेला" बिल्कुल सटीक बैठता है। यह कुछ इस तरह है कि एक 10 मंजिला भवन, जहां लोगों के आने-जाने हेतु पहले से सीढ़ियां है- वहां सरकार ने लिफ्ट की अतिरिक्त व्यवस्था दे दी। लोगों के समक्ष सीढ़ियों के साथ आधुनिक लिफ्ट का भी विकल्प है, जिसे वे अपनी सुविधानुसार उपयोग कर सकते है। किंतु लिफ्ट के खिलाफ कुछ लोग आंदोलित है। वे कुतर्क करने लगे कि सीढ़ियों के उपयोग से पहले पैरों की कसरत हो जाती थी, वह लिफ्ट से नहीं होगी- अत: शरीर कमजोर होगा। बिजली चली जाने पर लिफ्ट अटक जाएगी। दुर्घटना की संभावना अधिक होगी। महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार हो सकता है- इसलिए लिफ्ट को तुरंत हटाया जाएं। ठीक वैसे ही नए कृषि कानूनों को निरस्त करने हेतु स्वघोषित सेकुलरिस्ट और वाम-जिहादी-खालिस्तानी कुनबा, उद्योगपतियों द्वारा किसानों के कथित उत्पीड़न और एमएसपी-मंडी व्यवस्था खत्म होने का भ्रामक प्रचार कर रहे है। देश में बड़े किसानों (चार हेक्टेयर भूमि या अधिक के स्वामी) की संख्या 2.2 प्रतिशत है, जिनके पास देश की कुल कृषि-भूमि का 24.6 प्रतिशत हिस्सा है। वही पंजाब-हरियाणा में 36.3 प्रतिशत कृषि-भूमि पर 3.7 प्रतिशत बड़े किसानों का स्वामित्व है। बात यदि कृषि भू-धारण की करें, तो पंजाब में यह औसत 3.62 हेक्टेयर है, जो अखिल भारतीय स्तर पर 1.08 हेक्टेयर, तो बिहार में मात्र 0.4 हेक्टेयर है। इसका अर्थ यह हुआ कि इन बड़े किसानों के पास सरकार को एमएसपी दर पर बेचने लायक सर्वाधिक कृषि उत्पाद है। यह स्थिति तब है, जब पंजाब की कुल आबादी में दलित 32 प्रतिशत है और उनके पास मात्र तीन प्रतिशत कृषि-भूमि है। यही नहीं, पंजाब में अनुबंध खेती अधिनियम 2013 से लागू है, जिसमें किसान यदि अनुबंध तोड़ता है, तो उसे एक महीने की कैद से लेकर पांच लाख रुपये जुर्माने का प्रावधान है। केंद्रीय कृषि सुधार कानून इस विकृति से मुक्त है। भारत में खाद्यान्न इतना पैदा होता है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से सरकार द्वारा करोड़ों लोगों को मुफ्त में बांटने के बाद भी भंडारण बड़ी मात्रा में बच जाता है। सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदे जाने वाले सभी प्रकार चावल-गेहूं आधे से अधिक पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आता हैं। वित्तवर्ष 2019-20 में यह आंकड़ा 75 प्रतिशत से अधिक था। सहज समझा जा सकता है कि देश में इन क्षेत्रों के बड़े किसान नए कृषि कानूनों के खिलाफ सर्वाधिक आंदोलित क्यों हैं? पंजाब और हरियाणा में चावल-गेहूं की पैदावार अधिक होने कारण यहां शेष देश की तुलना में कम लागत, उर्वर कृषि-भूमि और सिंचाई संसाधनों से युक्त होना है। यहां किसानों को एमएसपी सुविधा के अतिरिक्त पीएम-किसान योजना का लाभ, सस्ती दरों पर बिजली-पानी और कर्ज भी मिलता है, जिसके लोकलुभावन नीति के अंतर्गत माफ होने की संभावना बनी रहती है। एक आंकड़े के अनुसार, पंजाब के 10 लाख किसानों को बिजली-पानी पर 13 हजार करोड़ रुपये अर्थात्- प्रदेश के प्रत्येक किसान को औसतन 1.22 लाख रुपये की प्रतिवर्ष सब्सिडी मिलती है। अर्थात्- लागत न्यूनतम या लगभग ना के बराबर और लाभ निश्चित। इसी कारण फसलों का ढांचा असंतुलित होता गया, भूजल का स्तर गिर गया, जैव-विविधता क्षतिग्रस्त, तो रसायनिक खादों से भूमि की उर्वरता नष्ट हो गई है। गत दिनों प्रस्तुत आम-बजट के अनुसार, सरकार ने एमएसपी दर पर चालू वित्तवर्ष में 2.80 लाख करोड़ रुपये से अधिक में केवल चार फसलें (गेहूं, धान, दालें और कपास) खरीदी है। अकेले धान की एमएसपी खरीद 1.42 लाख करोड़ रुपये है, जिसका 45 प्रतिशत भुगतान पंजाब के किसानों को हुआ है। यह स्थिति तब है, जब सरकार 23 खाद्य वस्तुओं पर एमएसपी देती है, जिसका लाभ लेने वाले मात्र देश के छह प्रतिशत किसान है। एक ओर बहुत ही छोटे अनुपात में बड़े और समृद्ध किसान (आढ़ती सहित) है, तो दूसरी तरफ छोटे-सीमांत किसानों की दुर्गति है। देश में इनकी संख्या 86 प्रतिशत- अर्थात्, 12 करोड़ से अधिक है। यह किसान सीमित कृषि-भूमि होने के कारण बाजार में बेचने योग्य जितनी पैदावार करते है, उससे कहीं अधिक मात्रा में वे अनाज बाजार से खरीदते है। वास्तव में, यह किसान उत्पादक कम, शुद्ध-खरीदार अधिक है। किसानों द्वारा आत्महत्या का मुख्य कारण उनका आर्थिक संकट (कर्ज सहित) में फंसा होना होता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 1995-2019 के बीच 3.5 लाख किसान (श्रमिक सहित) आत्महत्या कर चुके है, जिसमें अकेले 2004 में सर्वाधिक 18,241 मामले सामने आए थे। किसानों द्वारा खुदकुशी का सिलसिला रूका नहीं है। वर्ष 2019 में भी 10,281 किसानों ने आत्महत्या की थी। यह स्थिति तब है, जब पिछले छह वर्षों में दस राज्यों की सरकार ने किसानों के लगभग दो लाख करोड़ रुपये से अधिक की कर्ज माफी की घोषणा की है, जिसमें सवा लाख करोड़ से अधिक का ऋण माफ भी किया जा चुका है। बात केवल यही तक सीमित नहीं है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के माध्यम से अबतक दस करोड़ किसानों के बैंक खाते में सीधा 1.15 लाख करोड़ रुपये पहुंचाया जा चुका है। फसल बीमा योजना में 90 हजार करोड़ रुपये व्यय किया है और पौने दो करोड़ किसानों को तक किसान क्रेडिट कार्ड दिया है। क्या उपरोक्त योजनाओं के बल पर भारतीय कृषि में आमूलचूल परिवर्तन संभव है?- नहीं। यदि भारतीय किसानों को संकट से बाहर निकालना है, तो पुरानी नीतियों को बदलना ही होगा- क्योंकि लुप्तप्राय नीतियों से आमूलचूल परिवर्तन संभव नहीं है। क्या ऐसा नव-धनाढ्य किसानों के रहते संभव है- जो अपने आर्थिक हितों की रक्षा हेतु शेष किसान समाज के खिलाफ दिल्ली सीमा पर संघर्ष कर रहे है?