कठिन समय ही सही परीक्षा का समय होता है। वैश्विक महामारी कोविड-19 ने पिछले 10 माह में विश्व अर्थव्यवस्था को तबाह करके रख दिया है और भारत इसका अपवाद नहीं है। इस मुश्किल घड़ी में भारतीय आर्थिकी को पुनर्जीवित करना, उसे फिर से विकास का ईंजन बनाना और निराशाजनक स्थिति को आशावान वातावरण में परिवर्तित करना स्वाभाविक रूप से वांछनीय लक्ष्य है। संतोष इस बात का है कि वित्तवर्ष 2021-22 का बजट इन कसौटियों पर खरा उतरता है। यदि बजट का संपूर्ण क्रियान्वन हुआ, तो निसंदेह यह देश की आर्थिकी के लिए संजीवनी होगी। इस बजट की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसमें तथ्यों को ईमानदारी से पारदर्शिता के साथ प्रस्तुत किया गया है। चालू वित्तवर्ष में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को खाद्य सब्सिडी के लिए 1,15,570 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। किंतु बजटीय प्रावधान से अलग एफसीआई पर तीन लाख करोड़ से अधिक का उधार भी हो गया। वित्तमंत्री ने इस आंकड़े को संशोधित करते हुए 4,22,618 करोड़ रुपये कर दिया। वित्त वर्ष 2020-21 के लिए यह संशोधित अनुमान, बजटीय आंकड़े से 3.66 गुना अधिक है। यह दर्शाता है कि एफसीआई की लगभग सभी उधारी को स्वीकृति दे दी गई है। अगले वित्तवर्ष में खाद्य सब्सिडी का बजटीय अनुमान 2,42,836 करोड़ रुपये रखा गया है। यही नहीं, सरकार का माना है कि चालू वित्तवर्ष के लिए पूंजीगत व्यय 4.12 लाख करोड़ रुपये के बजट अनुमान से बढ़कर 4.39 लाख करोड़ रुपये हो गया है। अगले वित्तवर्ष में इसे 34.5 प्रतिशत बढ़ाकर 5.5 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। सच तो यह है कि विषम परिस्थिति में इस प्रकार का बजट प्रस्तुत करना साहस का काम है। ऐसा इसलिए क्योंकि- जहां कोविड-19 (लॉकडाउन सहित) के कारण अर्थव्यवस्था पक्षाघात का शिकार है, वही कृषि कानूनों के खिलाफ पिछले ढाई माह से दिल्ली सीमा पर किसानों का आंदोलन (गणतंत्र दिवस पर हिंसा और उपद्रव सहित) चल रहा है, तो कांग्रेस सहित अधिकांश विपक्षी दल विनिवेश पर भ्रामक प्रचार करते हुए सरकार पर सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने का आरोप लगा रहा है। फिर भी सरकार पारदर्शिता का परिचय देते हुए स्पष्ट कर दिया कि वित्तवर्ष 2021-22 में सरकार विनिवेश के माध्यम से 1.75 लाख करोड़ रुपये की कमाई करना चाहती है। कोरोना के कारण वर्तमान वित्तवर्ष में सरकार विनिवेश का लक्ष्य (2.1 लाख करोड़ रुपये) पूरा नहीं कर पाई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वैचारिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत विरोधी- विनिवेश को निजीकरण के रूप में प्रस्तुत कर रहे है। वास्तव में, सरकार के लिए विनिवेश पैसे जुटाने का महत्वपूर्ण माध्यम है, जो 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से देश में जारी है। कोविड-19 के कारण प्रत्येक क्षेत्र में रोजगारों पर मार पड़ने के बाद सरकार के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है। आज देश में बेरोजगारी दर 9.1 प्रतिशत है। इस स्थिति का मुख्य कारण घातक कोविड-19 संक्रमण से बचने हेतु लॉकडाउन रहा। गत वर्ष मोदी सरकार ने समय रहते "जान है, तो जहान है" के मंत्र पर देश में लॉकडाउन लगाया था। इसका परिणाम यह हुआ कि विश्व की दूसरी सर्वाधिक आबादी 138 करोड़ होने के बाद भी भारत में आज कोविड-19 मृत्यु दर कई समृद्ध और संपन्न देशों की तुलना बेहद कम (1.44 प्रतिशत) है। देश में लॉकडाउन का सबसे नकारात्मक प्रभाव रोजगार पर पड़ा। इस दौरान कई राज्य सरकारों की विसंगत नीतियों के कारण लाखों मजदूर अपने घरों को लौटने पर विवश हो गए थे, जिनमें से अधिकांश काम पर वापस नहीं लौटे हैं। केंद्र सरकार उन्हे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार से जोड़ने का प्रयास कर रही है। इस संबंध में ग्रामीण युवाओं के कौशल विकास हेतु 3,000 करोड़ रुपये का बजटीय प्रावधान किया गया है। सरकार इससे पहले, गत वर्ष चरणबद्ध अनलॉक प्रकिया के दौरान "अब जान भी, जहान भी" नीति के अंतर्गत 20 लाख करोड़ रुपये से अधिक के आत्मनिर्भरता पैकेज की घोषणा कर चुकी थी। यही नहीं, सरकार ने अगले वित्तवर्ष के स्वास्थ्य बजट में 137 प्रतिशत की वृद्धि करते हुए 94 हजार करोड़ रुपये से बढ़ाकर 2,23,846 लाख करोड़ रुपये कर दिया है। सामान्यत: सरकार के पास धन के मुख्य स्रोत- जीएसटी, कॉर्पोरेट टैक्स, व्यक्तिगत आयकर, उत्पाद शुल्क और विनिवेश हैं। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड द्वारा जारी 2018-19 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 5.68 करोड़ लोगों ने अपना आयकर रिटर्न दाखिल किया था, जिसमें लगभग लगभग एक करोड़ लोगों ने 5-10 लाख रुपये के बीच कर दिया, तो 46 लाख व्यक्तिगत करदाताओं ने 10 लाख रुपये से ऊपर की आय पर कर दिया। वास्तव में, 138 करोड़ लोगों के देश में करों का भुगतान करने वालों की संख्या नगण्य है। 10 जनवरी 2021 तक 5.95 करोड़ लोगों ने आयकर रिटर्न भरा है। बात यदि जीएसटी की करें, दिसंबर 2020 में 1.15 लाख करोड़ रुपये के बाद जनवरी 2021 में जीएसटी संग्रह 1.21-1.23 लाख करोड़ रुपये रह सकता है। बजट के माध्यम से सरकार ने कई राजनीतिक खतरे उठाए है। इसी में एक है- वित्त वर्ष 2021-22 में राजकोषीय घाटा के 6.8 प्रतिशत रहने का अनुमान जताना। अगले वित्तवर्ष 2021-22 में सरकार का कुल खर्च 34.83 लाख करोड़ रुपये रहेगा, सरकार को इसके लिए बाजार से लगभग 12 लाख करोड़ का कर्ज लेना होगा। चालू वित्तवर्ष के प्रारंभ में इसे 3.5 प्रतिशत रखा गया था, किंतु कोविड-19 से उभरे संकट और सरकार द्वारा उठाए कल्याणकारी निर्णयों से सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद का 9.5 प्रतिशत हो गया। इसकी भरपाई करने हेतु सरकार 80,000 करोड़ रुपये की आवश्यकता है। दिसंबर 2020 में देश का कुल राजकोषीय घाटा 11,58,469 करोड़ रुपये था, जो फरवरी 2020 में प्रस्तुत बजट के निर्धारित राजकोषीय घाटे 7.96 लाख करोड़ रुपये से कहीं अधिक है। इसके अतिरिक्त, सरकार ने राजस्व जुटाने हेतु कई वस्तुओं पर उपकर लगाया है। स्पष्ट है कि राजकोषीय घाटा बढ़ने का सीधा प्रभाव मुद्रास्फीति दर पर पड़ेगा। अर्थात्- वस्तुएं और सेवाएं महंगी हो जाएगी। ब्याज दर में वृद्धि होगी। अर्थात्- ऋण लेना महंगा हो जाएगा। सामान्यत: बजट के बाद शेयर बाजार के दोनों सूचकांकों- बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) में गिरावट देखी जाती है। किंतु 1 फरवरी को बजट के बाद शेयर बाजार में तेजी रही और यह सिलसिला 2 फरवरी को भी जारी रहा। एक समय बीएसई पुन: 50 हजार अंक के पार पहुंच गया था। यह ठीक है कि शेयर बाजार भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, किंतु उसकी प्रतिक्रिया में एक संकेत अवश्य होता है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत बजट से शेयर बाजार का गदगद होने का अर्थ है- मोदी सरकार की नीतियों पर निवेशकों का विश्वास बना हुआ है। भविष्य में और अधिक निवेश होगा। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार सृजन बढ़ेगा। क्रय शक्ति में वृद्धि होगी। वस्तु और सेवाओं की मांग बढ़ेगी। इन सबका अंतिम परिणाम यह होगा कि इससे सरकारी खजाने में वृद्धि होगी, जिससे सरकार फिर से कई और जनहित नीतियों को लागू करने की स्थिति में होगी। वैश्विक महामारी कोविड-19 जनित कारणों से बीमार अर्थव्यवस्था को स्वस्थ होने में थोड़ा समय लग सकता है और उसके उपचार में सख्त नीतियों के रूप में कड़वी दवाइयों की जरुरत है। आशा है कि भारत में स्वदेशी कोविड वैक्सीन के अभियान के बीच बजटीय निर्णयों से देश की अर्थव्यवस्था उभरेगी। इसलिए सरकार ने 2021-22 में देश का आर्थिक विकास 11 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया है। स्पष्ट है कि बजट के माध्यम से सरकार ने लोकलुभावन नीतियों के बजाय केवल विशुद्ध आर्थिक विकास और उसमें सुधार लाने पर पूरा जोर लगाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी सरकार ने अपने आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिक खतरा उठाया है। वह भी तब, जब आगे पं.बंगाल, असम, पंजाब, उत्तरप्रदेश आदि कई राज्यों में विधानसभा चुनाव है और तीन वर्ष बाद लोकसभा चुनाव होना है। मोदी सरकार के इस बजट का संदेश साफ है कि राष्ट्रहित से बढ़कर कुछ भी नहीं है।