Amar Ujala 2021-01-10

अमेरिका में दोहरे मापदंडों की मार

अमेरिका में 6 जनवरी को जो कुछ हुआ, उससे शेष विश्व स्वाभाविक रूप से भौचक है। परंतु क्या यह सत्य नहीं है कि अमेरिकी सार्वजनिक जीवन में हिंसा का अतिक्रमण पहले ही हो चुका था? जब तक ट्रंप विरोधी भीड़ हिंसक थी, तब तक उनका प्रदर्शन- जनाक्रोश और देशभक्ति था। 25 मई 2020 को एक श्वेत पुलिसकर्मी द्वारा अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन दबाकर निर्मम हत्या के बाद भड़की हिंसा ने अमेरिका के 2,000 कस्बों-शहरों को अपनी कब्जे में ले लिया था। भीषण लूटपाट के साथ करोड़ों-अरबों की निजी-सार्वजनिक संपत्ति को फूंक दिया गया था। हिंसा में 19 लोग मारे गए थे, जबकि 14 हजार लोगों की गिरफ्तारियां हुई थी। इस हिंसा का नेतृत्व वामपंथी अश्वेत संगठन- एंटिफा (Antifa) कर रहा था। तब कई वाम-वैचारिक अमेरिकी राजनीतिज्ञों और पत्रकारों ने इस अराजकता को न केवल उचित ठहराया, अपितु इसे प्रोत्साहन भी दिया। एंटिफा प्रायोजित उत्पात पर सीएनएन के प्रख्यात टीवी एंकर क्रिस कूमो ने कहा था, "किसने कहा है कि प्रदर्शनकारियों को शांतिपूर्ण रहना चाहिए?" वही भारतीय मूल की अमेरिकी सांसद और कश्मीर मामले में पाकिस्तान हितैषी प्रमिला जयपाल ने एक ट्वीट में अश्वेतों के हिंसक प्रदर्शन को देशभक्ति की संज्ञा दी थी। इसी तरह एक अन्य अमेरिकी सांसद अलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज़ ने तो ट्वीट करते हुए यहां तक लिख दिया था, "प्रदर्शनकारियों का लक्ष्य ही होना चाहिए कि अन्य लोगों असुविधा हो।" सबसे बढ़कर अमेरिका की भावी उप-राष्ट्रपति और भारतीय मूल की कमला हैरिस ने एंटिफा प्रोत्साहित हिंसा का समर्थन करते हुए कहा था, "अब यह रुकने वाला नहीं है।" सच तो यह है कि पराजित ट्रंप के समर्थकों द्वारा कैपिटल हिल पर हमला अमेरिकी इतिहास में पहली बार नहीं हुआ है। 24 अगस्त 1814 को अमेरिका-इंग्लैंड युद्ध और 16 अगस्त 1841 को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा जॉन टायलर द्वारा अमेरिकी बैंक की पुनर्स्थापित संबंधी निर्णय के समय भी कैपिटल हिल पर बेकाबू भीड़ ने हमला किया था। अमेरिकी संसद पर भीड़ द्वारा हालिया हमले की पृष्ठभूमि में यदि भारतीय संदर्भ देखें, तो यहां भी स्थिति लगभग एक जैसी ही है। भारत का एक विकृत वर्ग, जिसका संचालन वामपंथी-जिहादी मिलकर कर रहे है- वह मुखर होकर पराजित ट्रंप समर्थित भीड़ द्वारा अमेरिकी संसद पर हमले को लोकतांत्रिक पवित्रता पर आघात की संज्ञा तो दे रहा है, किंतु पिछले छह वर्षों से भारतीय लोकतंत्र के प्रतीक संसद द्वारा पारित कानूनों की पवित्रता को भंग करना और देश में हिंसा को भड़काने के लिए "एंटिफा मॉडल" को दोहराना चाहते है। भारतीय संसद द्वारा पारित नागरिकता संशोधन कानून (सी.ए.ए.) का विरोध करते हुए मजहबी शाहीन-बाग प्रदर्शन, जिहादी हिंसा और नाकेबंदी करना, तो अब कृषि सुधार संबंधित कानून विरोधी आंदोलन के नाम पर दिल्ली की सीमा को जबरन बंद रखकर करोड़ों लोगों के संवैधानिक अधिकारों को कुचलना- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। क्या यह सत्य नहीं कि भाजपा को प्रचंड जनादेश उसके घोषणापत्र पर भी मिला है? अबतक उसने जितने भी निर्णय लिए है और नीतियां-कानून बनाए है, वह सब उसके घोषित वादों के अनुरूप ही है। इसी बीच किसान आंदोलन में शामिल प्रदर्शनकारियों के एक वर्ग का नेतृत्व कर रहे भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने धमकी दी है कि यदि सरकार ने उनकी बात नहीं मानी, तो 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के दिन राजपथ पर किसान-मजदूर कब्जा करेंगे। इन लोगों को वामपंथियों-जिहादी के अतिरिक्त मोदी विरोधी विपक्षी दलों और स्वघोषित सेकुलरिस्टों-उदारवादियों का भी प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन प्राप्त है। क्या राजपथ को कब्जाने की घुड़की दिल्ली में कैपिटल हिल प्रकरण को दोहराने का प्रयास नहीं है? विरोधाभास देखिए कि भारत में वामपंथी-जिहादी कुनबे के लिए अमेरिकी संसद पर हमला और बिडेन के निर्वाचन को अस्वीकार करना अलोकतांत्रिक है। किंतु 2014 से लगातार दो बार विशाल बहुमत पाकर निर्वाचित मोदी सरकार द्वारा संसद में पारित कानूनों को भीड़तंत्र से रोकना, आतंकवादियों-अलगाववादियों को घूमने की स्वतंत्रता देना, शहरी-नक्सलियों द्वारा मोदी की हत्या का पड़यंत्र रचना, कश्मीर से पांच लाख हिंदुओं का पलायन और भारत/हिंदू हितों का खुला विरोध- लोकतांत्रिक है। कटु सत्य तो यह है कि अमेरिका में ट्रंप समर्थकों ने उसी रूग्ण युक्ति को अपनाया है, जिसका उपयोग वामपंथी-जिहादी गठबंधन वर्ष 2014 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विकृत तथ्यों और झूठे विमर्श के आधार पर सत्ता से हटाने हेतु कर रहे है, ताकि एक स्वस्थ लोकतांत्रिक जनादेश को हाईजैक किया जा सकें। वास्तव में, इस वामपंथी-जिहादी कुनबे को भ्रम है कि दुनिया यदि किसी के पास बुद्धि और ज्ञान है, तो वह उनके पास है। यदि किसी ने उनके विचारों से असहमति रखने का दुस्साहस किया, तो वह स्वाभाविक रूप से उनका न केवल विरोधी होगा, अपितु शत्रु भी होगा। कैपिटल हिल पर पराजित ट्रंप समर्थकों के हमले को लेकर अमेरिका के भावी राष्ट्रपति बिडेन ने एक महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया है। उनके अनुसार, "हमने जो कुछ देखा, वह असहमति/असंतोष नहीं था। यह कोई अव्यवस्था नहीं थी। वह विरोध भी नहीं था। यह अराजकता थी। वे प्रदर्शनकारी नहीं थे। उन्हें प्रदर्शनकारी कहने की हिम्मत मत करना। वे दंगाई भीड़ थी। विद्रोही और घरेलू आतंकवादी थे।" इस बयान की पृष्ठभूमि में भारतीय संसद द्वारा पारित कानूनों के खिलाफ हिंसक प्रदर्शनों को अब किस श्रेणा में रखा जाएगा? सच तो यह है कि कश्मीर में सेना पर पथराव को सही ठहराने, सीएए विरोधी शाहीन बाग रूपी जिहादी प्रदर्शन, मजहबी हिंसा और किसान आंदोलन के नाम पर 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के दिन राजपथ को कब्जाने की धमकी के साथ अमेरिका में अश्वेत अधिकारों के नाम पर हुई बीभत्स आगजनी लूटपाट को प्रोत्साहन देने और समर्थन देने वालों को कोई अधिकार नहीं कि वे ट्रंप समर्थित हिंसक भीड़ द्वारा कैपिटल हिल पर हमले की आलोचना करें। निसंदेह, अमेरिकी संसद पर बौखलाई भीड़ का हमला निंदनीय और अस्वीकार्य है, क्योंकि सभ्य समाज में हिंसा और बलप्रयोग का कोई स्थान नहीं। क्या इस संदर्भ में हम दोहरे मापदंडों को स्वीकार करने का खतरा मोल सकते है?