वर्ष 2020 अपने अंतिम पड़ाव पर है। पाठकों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं। यह साल कई घटनाओं का साक्षी रहा और भारत सहित शेष विश्व के लिए कई महत्वपूर्ण संदेश व सबक छोड़ गया। जहां कोविड-19 संक्रमण ने प्रकृति के सामने मनुष्य की औकात बता दी, तो वही उदारवादी लोकतांत्रिक देश, फ्रांस- ने इस्लाम के कट्टर स्वरूप से निपटने हेतु एक "प्रायोगिक योजना" दुनिया के सामने रखने का साहस किया है। बात यदि भारत की करें, तो यहां 2019 में भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मिले व्यापक जनादेश को निरस्त करने का प्रयास हो रहा है। इसका प्रमाण वर्ष 2020 के प्रारंभ में नागरिक संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) विरोधी शाहीन बाग प्रदर्शन और हिंसा में दिखा, तो अब इसका दूसरा संस्करण हम किसान आंदोलन के रूप में देख रहे है। पड़ोसी देशों की बात करें, तो नेपाल आतंरिक संकट से जूझ रहा है। वहां साम्यवादी चीन का हस्तक्षेप कितना है- वह तब स्पष्ट रूप से सामने आ गया, जब नेपाली राजनीतिक समस्या का हल निकालने चीनी दूत एकाएक काठमांडू पहुंच गए। चीन का ही अन्य "सैटेलाइट स्टेट" पाकिस्तान हर वर्ष की तरह इस साल भी अपने वैचारिक चरित्र के अनुरूप भारत-हिंदू विरोधी षड़यंत्र में व्यस्त रहा। इसी साल चीन को यह भी सबक मिल गया कि एशिया में उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी भारत 1962 की दब्बू पृष्ठभूमि से बाहर आ चुका है। वही अमेरिका, ट्रंप शासन से मुक्त होकर बिडेन के नेतृत्व में क्या रूख अपनाएगा, यह देखना शेष है। यूं तो कोविड-19 संक्रमण दुनियाभर में 20 लाख से अधिक लोगों को अपना शिकार बना चुका है और संबंधित निरोधक-टीका अपने अंतिम चरणों में है। किंतु एक कटु सच यह भी है कि जिस कोरोनावायरस को साधारण साबुन के घोल से खत्म किया जा सकता है, उसका वस्तुनिष्ठ निवारण निकालने में "उन्नत विज्ञान" का दम फूल गया है और प्रकृति के समक्ष मानव बेबस नजर आ रहा है। "काफिर-कुफ्र" के मजहबी दर्शन की खुराक में पला-बढ़ा मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग सदियों से मानवता के लिए अभिशाप रहा है। घृणित रक्तरंजित मानसिकता के खिलाफ बहुलतावाद, लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता में विश्वास रखने वाले प्रतिकार कैसे करें और इस विषैले दर्शन से अपने जीवनमूल्यों को कैसे बचाएं- इसका कोई "प्रमाणित उपाय" सफलतापूर्वक सामने नहीं आ पाया है। इस संबंध में चीन और म्यांमार का प्रतिमान दुनिया के सामने है। चीन इस मजहबी संकट से निपटने हेतु अपने देश के दो करोड़ मुस्लिम नागरिकों (अधिकांश उइगर मुसलमान) का "सांस्कृतिक नरसंहार" करते हुए जबरन उनकी इस्लामी पहचान नष्ट कर रहा है। यह स्मरण रहे कि चीन एक घोर साम्यवादी और अधिनायकवादी देश है, जहां किसी भी मानवाधिकार का कोई मूल्य नहीं। वही बौद्ध बहुल म्यांमार ने 2016-17 में दर्जनों इस्लामी आतंकवादी हमलों के बाद एक विशाल सैन्य अभियान छेड़ा है। इसमें आतंकवादियों, उनके स्थानीय सहायकों के साथ कई निरपराध भी गोलियों का शिकार हो चुके है। तब इस स्थिति से बचने हेतु 12 लाख से अधिक रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार से बांग्लादेश, भारत आदि देशों में पलायन कर गए। वैसे हमारे देश में रोहिंग्या पैरोकारों को सोचना चाहिए कि भगवान गौतमबुद्ध के शांति संदेश और सिद्धांत में विश्वास करने वाला म्यांमार आखिर रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ सख्त कदम उठाने को मजबूर क्यों हुआ? मजहबी आतंकवाद और हिंसक अलगाववाद से निपटने हेतु चीन या फिर म्यांमार ने जो नीतियां अपनाई है, उसका अनुसरण करने से भारत सहित कोई भी पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश बचना चाहेगा। इसी बीच फ्रांस वर्ष 2020 में दो जिहादियों द्वारा चार निरपराधों की नृशंस हत्या के बाद अपने उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों की परिधि में रहकर इस मजहबी संकट से निपटने हेतु प्रायोगिक योजना लेकर आया है। इसका उद्देश्य अपने देश की एकता, अखंडता और उसके सदियों पुराने सहिष्णु जीवनमूल्यों को इस्लामी कट्टरवाद से सुरक्षित रखना है। निसंदेह, शेष विश्व (भारत सहित) फ्रांस के इस प्रयास के परिणामों की प्रतीक्षा करेगा। जिस इस्लामी अलगाववाद और कट्टरता के खिलाफ फ्रांस- कुछ आतंकी घटनाओं के बाद सख्त कानून ला रहा है, उसका दंश भारतीय उपमहाद्पीव 8वीं शताब्दी से इस्लामी अतातायियों के जिहाद (मतांतरण, हत्या और मंदिरों को तोड़ना सहित) से झेल रहा है। 19वीं शताब्दी में सर सैयद अहमद खान द्वारा प्रतिपादित "दो राष्ट्र सिद्धांत" से मुस्लिम अलगाववाद का बीजारोपण, 1919-24 का मजहबी खिलाफत आंदोलन, 1946 में मुस्लिम लीग का डायरेक्ट एक्शन और 1947 में इस्लाम के नाम पर भारत का विभाजन करके पाकिस्तान का जन्म उसी "काउंटर-सोसाइटी" अर्थात्- "स्थानीय संस्कृति विरोधी समाज के पैदा होने का खतरा" का प्रत्यक्ष उदाहरण है, जिसकी आशंका फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों व्यक्त कर चुके हैं। अब चूंकि किसी भी विचारधारा (जिहादी और वामपंथी दर्शन सहित) को सीमा में बांधकर नहीं रखा जा सकता, इसलिए वही अलगाववादी और हिंदू-विरोधी चिंतन- खंडित भारत को फिर से कई टुकड़ों में विभाजित करने हेतु लालायित है। नागरिक संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) और कृषि सुधार कानून विरोधी हिंसक प्रदर्शन- इसके उदाहरण है। वास्तव में, यह बौखलाहट और कुंठा 2019 के लोकसभा चुनाव में आए भारी जनादेश से उत्पन्न हुआ है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को न केवल पिछले चुनाव (282) से अधिक 303 सीटें मिली थी, साथ ही उसे लगातार अकेले बहुमत भी प्राप्त हुआ था। अब इसी जनमत को विदेशी वित्तपोषण के बल पर भीड़तंत्र के द्वारा हाईजैक करने का प्रयास किया जा रहा है। वर्तमान किसान आंदोलन में कृषकों के एक समूह, जोकि कृषि कानूनों पर भ्रमित और आशंकित है- उनके अतिरिक्त, दो प्रकार के वर्ग भी इसमें शामिल है। पहला वर्ग- उन लोगों का है, जिन्होंने आजतक भारत के अनादिकालीन अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया, 1947 में मिली स्वतंत्रता को झूठा व भारत को कई राष्ट्रों का समूह बताया और वैचारिक कारणों से भारतीय सनातन संस्कृति से आज भी घृणा कर रहे है। इस कुनबे में स्वघोषित सेकुलरिस्ट, वामपंथी और जिहादी शामिल है। यह लोग अपने वैचारिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु अपने एजेंडे के अनुरूप विमर्श बनाने हेतु तथ्यों के साथ खिलवाड़ करते है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर फैलाया भ्रम और किसानों पर निजी उद्योगपतियों के दबदबे का कुप्रचार- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसी कारण पंजाब में प्रदर्शन की आड़ में शरारती-तत्वों ने 1,600 से अधिक निजी मोबाइल टावरों को तोड़ दिया, जिससे प्रदेश का दूरसंचार प्रभावित हो गया। वास्तव में, यह विशुद्ध वामपंथी चरित्र को परिलक्षित करता है। दूसरा वर्ग उन लोगों का है, जो अपनी बौद्धिक अक्षमता के कारण पहले वर्ग द्वारा स्थापित विकृत विमर्श पर विश्वास कर लेते है। इसका कारण मार्क्स-मैकॉले का वह संयुक्त चिंतन है, जिसने इन्हें न केवल अपना मानसिक गुलाम बना लिया है, अपितु वह अपनी मूल सांस्कृतिक जड़ों से कटकर उससे घृणा भी करने लगे है। यह समूह अब भी इस गलतफहमी का शिकार है कि भारत में यदि लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता और बहुलतावाद जीवनमूल्य जीवित है- तो वह केवल 1950 से लागू "संविधान" और उसमें 1976 में जोड़े गए विदेश आयातित शब्द "सेकुलर" के कारण है। यह लोग भूल जाते है कि यदि "संविधान" या "सेकुलर" शब्द देश में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षा देने की गारंटी देता, तो 1980-90 के दशक में "सेकुलर" भारत के कश्मीर से पांच लाख अल्पसंख्यक हिंदू पलायन हेतु विवश नहीं होते। ऐसा घाटी में इसलिए हुआ था, क्योंकि भारतीय संविधान सक्रिय होने के बाद भी कश्मीर का "इको-सिस्टम" मजहबी कारणों से बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता को स्वीकार नहीं करता। दिलचस्प बात तो यह भी है कि यही दोनों वर्ग आज भी भारत को 1962 के दौर में देखना चाहते है। यह स्थिति तब है, जब चीनी अधिष्ठान स्वयं- 2017 के डोकलाम टकराव के पश्चात 2020 के लद्दाख प्रकरण में भारतीय आक्रमकता के बाद क्षेत्र में हमारे देश की परिवर्तित सामरिक और आर्थिक नीति से हतप्रभ है। अब फ्रांस का प्रस्तावित अलगाववाद विरोधी कानून कितना प्रभावी होगा? लोकतंत्र की आड़ में सक्रिय भारत-विरोधी शक्तियों को हम पहचानने में कब सफल होंगे? और विश्व कोविड-19 के संक्रमण से कब मुक्त पाएगा?- इन सभी के उत्तर नववर्ष के गर्भ में है।