Punjab Kesari 2020-11-25

गुरु नानक देवजी की शिक्षाओं को समझने का समय

"सतगुरु नानक प्रगट्या, मिटी धुंध जग चानन होया, कलतारण गुरु नानक आया.." आगामी 30 नवंबर को विश्वभर में सिख पंथ के संस्थापक श्री गुरु नानक देवजी (1469-1539) की 552वीं जयंती मनाई जाएगी। जब हम इस पवित्र दिन के बारे में सोचते है, तो एक राष्ट्र के रूप में हमने क्या भूल की है- उसका भी एकाएक स्मरण होता है। 1930-40 में जब इस्लाम के नाम भारत के विभाजन हेतु मुस्लिम लीग, ब्रिटिश और वामपंथी मिलकर विषाक्त कार्ययोजना तैयार कर रहे थे, तब हमने जो सबसे बड़ी गलतियां की थी- उनमें से एक यह भी है कि खंडित भारत ने गुरु नानकजी की जन्मस्थली ननकाना साहिब पर अपना दावा छोड़ दिया। पाकिस्तान एक घोषित इस्लामी राष्ट्र है। पिछले 73 वर्षों से पवित्र ननकाना साहिब उसी पाकिस्तान में स्थित है- जहां के सत्ता-अधिष्ठान ने मिसाइलों और युद्धपोत के नाम उन्हीं क्रूर इस्लामी आक्रांताओं- गजनवी, बाबर, गौरी, अब्दाली और टीपू-सुल्तान आदि पर रखे है- जिसके विषैले चिंतन से संघर्ष करते हुए सिख गुरुओं सहित अनेक शूरवीरों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था। इतने वर्षों बाद भी यदि आज हमारी मौलिक पहचान (हिंदू और सिख) सुरक्षित है, तो बहुत हद तक इसका श्रेय उन अमर बलिदानियों को जाता है, जिन्होंने कौम और हिंदुस्तान की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। इन हुतात्माओं की श्रृंखला में गुरु अर्जनदेवजी, गुरु तेग बहादुरजी, गुरु गोबिंद सिंहजी, बंदा सिंह बहादुर बैरागी, अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह इत्यादि का बलिदान- एक कृतज्ञ राष्ट्र को सदैव स्मरण रहेगा। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे ननकाना साहिब में मत्था टेकने का अवसर प्राप्त हुआ है। लगभग डेढ़ दशक पूर्व वर्ष 2003 में बतौर राज्यसभा सांसद, मैंने साफमा प्रतिनिधिमंडल सदस्य के रूप में पाकिस्तान का दौरा किया था। वहां पहुंचने पर जब मैंने ननकाना साहिब जाने की इच्छा प्रकट की, तो सुरक्षा का हवाला देकर पहले पाकिस्तानी हुक्मरानों ने ना-नुकुर शुरू कर दी। मेरे बार-बार जोर देने के बाद उन्होंने सुरक्षाबलों के एक बड़े काफिले के साथ मुझे पवित्र ननकाना साहिब जाने की अनुमति दे दी। "काफिर-कुफ्र" अवधारणा से प्रेरित व्यवस्था में किस प्रकार वहां के सत्ता अधिष्ठान द्वारा किसी गैर-इस्लामी संस्कृति, परंपराओं और प्रतीकों से व्यवहार किया जाता है, इसका प्रत्यक्षदर्शी मैं दुर्भाग्यवश ननकाना साहिब में ही बना। जब मैं गुरु नानकजी की जन्मस्थली पर पहुंचा और वांछित पंथिक शिष्टाचार का सम्मान करते हुए वहां के पवित्र गुरुद्वारे में प्रवेश किया, तब मेरे साथ भेजे गए सुरक्षाबलों ने मर्यादा को भंग करते हुए बिना सिर ढके और पैरों में जूतों के साथ गुरुद्वारे में कदम रख दिया। ऐसे देखकर मैं तुरंत गुरुद्वारे से बाहर निकल गया। जब हड़बड़ाए सुरक्षाधिकारी ने इसका कारण पूछा, तो मैंने उसे वजह बताते हुए लताड़ा और कहा कि यदि ननकाना साहिब सहित किसी भी गुरुद्वारे की मर्यादा मेरे कारण भंग होती है, तो मेरे लिए बाहर खड़े रहना उचित होगा। मेरे इस कदम से वहां उपस्थित ग्रंथी को साहस मिला और उन्होंने मुझे एकांत में ले जाकर बताया कि पाकिस्तान के गुरुद्वारों पर यहां की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई का दबदबा है और वहां का चढ़ावा सीधे उनके खजाने में जाता है। सदियों से हिंदू और सिख एक है- इस तथ्य का एक और प्रमाण मुझे उसी पवित्रनगरी में ही देखनों को मिला था। वहां प्रांगण के अलग-अलग हिस्से में शादियां हो थी। इनमें से कई विवाह-संस्कार वैदिक रीति-रिवाजों के अनुरूप संपन्न कराए जा रहे थे। इससे मेरी पाकिस्तान स्थित प्राचीन मंदिरों और गुरुद्वारों को देखने की जिज्ञासा बढ़ गई। परंतु मुझे यह देखकर निराशा हुई कि लाहौर की जिन गलियों में मैंने हिंदू, जैन, सिख पूजास्थलों के बारे पढ़ा था और सुना था, मुझे उसका कोई नामोनिशान नहीं मिला। महाभारतकालीन कटासराज मंदिर की दयनीय स्थिति देखकर मन विचलित हो उठा। अवशेषों का सरकारी संरक्षण करने के प्रतिकूल स्थानीय लोगों या व्यापारियों को हिंदुओं की आस्था को कलंकित और अपमानित करने हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है। लाहौर स्थित चार मंजिला "कुक्कू नेस्ट रेस्टोरेंट" इसका उदाहरण है, जहां हिंदू और जैन आराध्यों की खंडित मूर्तियों की भरमार है। यह किसी से छिपा नहीं है कि इस इस्लामी देश में अल्पसंख्यकों (हिंदू और सिख सहित) जनसंख्या 2 प्रतिशत भी नहीं है। यह स्थिति तब है, जब विभाजन के समय पाकिस्तान में इनकी संख्या 15-16 प्रतिशत थी। गुरु नानकदेवजी ने अपने जीवन में बहुलतावाद का संदेश हेतु अनेकों यात्राएं की थी, जिन्हे पंजाबी में "उदासियां" कहा जाता है। वे ईराक के बगदाद से लेकर भारत में लेह तक गए। बगदाद में नानकजी से संबंधित तीर्थस्थल पर मुझे माथा टेकने का भी सौभाग्य मिल चुका है। बौद्ध बहुल लेह में गुरु नानकदेवजी का तीर्थस्थल पत्थर साहिब गुरुद्वारा नाम से विख्यात है। वहां से भी मुझे आशीर्वाद प्राप्त है। चूंकि लेह में सिख बंधुओं की संख्या काफी कम है, इसलिए इस ऐतिहासिक गुरुद्वारे का रखरखाव भारतीय सेना करती है। सच तो यह है कि गुरपुरब पर हमें गुरु नानकदेवजी के दर्शन और उनके संदेशों पर अंतर्करण से विचार करना चाहिए। जब मध्यकालीन भारत का उत्तर-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र, सिंध सहित पंजाब उत्तरी हिस्सों पर विदेशी इस्लामी आक्रांताओं का कहर स्थानीय हिंदुओं, जैन, बौद्ध अनुयायियों पर टूट रहा था, उनके मंदिरों को तोड़ा जा रहा था और मूल निवासियों को तलवार के बल पर जबरन इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जा रहा था- तब गुरुजी ने सिख पंथ की नींव रखीं। विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा भारत की सनातन और बहुलतावादी संस्कृति को किस प्रकार जख्मी किया जा रहा था, उसका वर्णन गुरु स्वयं गुरु नानक देवजी ने अपने शब्दों में कुछ इस तरह किया है:- खुरासान खसमाना कीआ हिंदुस्तान डराइया।। आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ।। एती मार पई करलाणे त्है की दरदु न आइया।। गुरु नानकजी का दृष्टिकोण कितना विशाल था, वह इन पंक्तियों से स्पष्ट है। अपने शब्दों में वे केवल पंजाब या फिर सिखों की ही नहीं, अपितु पूरे हिंदुस्तान की बात कर रहे हैं। नानकजी ने क्रूर बाबर के अत्याचारों के खिलाफ मुखर आवाज बुलंद की। उन्होंने निर्भय होकर "एकम् सत् विप्रा बहुधा वदंति" की वैदिक परंपरा का संदेश दिया। कालंतर में यह सब शेष सिख गुरुओं के समय से लेकर सिख साम्राज्य के कालखंड (1799-1849) तक अक्षुण्ण रहा। महाराजा रणजीत सिंह की सैन्य नियमावली में इसकी झलक भी दिखती थी, जिसमें ओउम चिन्ह पर भगवान ब्रह्मा, विष्णु, शिव और देवी लक्ष्मी की तस्वीरें बनी हुई थी। उस समय पंजाब का हर हिंदू स्वयं को सिख और प्रत्येक सिख खुद को हिंदुओं का रक्षक मानता था। सन् 1857 की क्रांति के बाद ब्रितानियों को अपने कुटिल उद्देश्यों की पूर्ति में हिंदू और सिखों का यही बंधुत्व बड़ा रोड़ा लगा। तब ब्रिटिश औपनिवेशिकों को पंजाब में भी सैयद अहमद खान जैसे वफादार की तलाश थी, जिनके "दो राष्ट्र सिद्धांत" ने कालांतर में पाकिस्तान को जन्म दे दिया। प्रपंची अंग्रेजों की खोज आयरलैंड में जन्मे मैक्स आर्थर मैकॉलीफ पर जाकर खत्म हुई। योजनाबद्ध तरीके से पहले इस अधिकारी को 1864 में पंजाब भेजा, जहां उसने सिख होने का दावा किया। मैकॉलीफ ने सिख शब्दावलीकार और तत्कालीन नाभा रियासत में कई पदों में आसीन रहे भाई काहन सिंह नाभा की सहायता से पवित्र "गुरुग्रंथ साहिब" का अंग्रेजी में अनुवाद किया। फिर उनकी छह खंडों में "द सिख रिलिजन-इट्स गुरु, स्केयर्ड राइटिंग और ऑथर" सहित कई अन्य पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। 1897-98 में नाभा की "हम हिंदू नहीं" पुस्तक प्रकाशित हुई थी। अंग्रेजों की इस विभाजनकारी रणनीति का परिणाम अल्पकाल में ही सामने आ गया। हिंदू और सिखों के संबंधों में तनाव आना प्रारंभ हो गया। कालांतर में सिख अलगाववाद का बीजारोपण हुआ, जो तथाकथित खालिस्तान आंदोलन का आधार भी है- जिसके माध्यम से पाकिस्तान और इस्लामी आतंकवादी/कट्टरपंथी बीते कई वर्षों से अपने भारत विरोधी एजेंडे को पूरा करने में जुटे है। गुरपुरब के पावन अवसर पर हम सब, जो गुरु नानक देवजी को अपना प्रेरणास्रोत मानते है- उन्हें नानकजी के जीवन और सिद्धांतों का अनुसरण करना चाहिए। क्या हम वाकई अपने गुरुओं द्वारा स्थापित मार्ग पर चल रहे है या भटक गए है? गुरु नानक देवजी को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब हम उनकी दी हुई शिक्षाओं को आत्मसात करें।