Amar Ujala 2020-11-12

बिहार चुनाव और उसके परिणाम में निहित संदेश

हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव का परिणाम आया। कांटे की टक्कर में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन पूर्ण बहुमत के साथ बिहार में फिर से सरकार बनाने में सफल हुई। वहां राजग- विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, वामपंथियों ने मिलकर जिस महागठबंधन की छत्रछाया में चुनाव लड़ा, उसका घोषित आधार "सेकुलरवाद" था। क्या बिहार में मोदी-नीतीश की जीत, सेकुलरिज्म की हार होगी?- नहीं। वास्तव में, यह उस विकृत गोलबंदी की पराजय थी, जिसका दंश भारतीय राजनीति दशकों से झेल रहा है। स्वतंत्रता के बाद देश नेहरूवादी नीतियों से जकड़ा हुआ था, जिसमें वाम-समाजवाद का प्रभाव अत्याधिक था। जब आपातकाल के दौरान 1976 में असंवैधानिक रूप से बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा रचित संविधान की प्रस्तावना में लिखे "संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य" में "सेकुलर" शब्द जोड़ दिया गया, तब स्थिति और विकृत हो गई। उस समय तक भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी। परिणामस्वरूप, 1991 में देश को अपने दैनिक-व्यय और अंतरराष्ट्रीय देनदारियों की पूर्ति हेतु अपना स्वर्ण भंडार गिरवी रखने की शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। उसी दौर में तथाकथित "सेकुलरवाद", "समाजवाद" और "सामाजिक न्याय" के घालमेल से जितने राजनीतिक दलों का उदय हुआ- उनमें से अधिकांश आज दूषित परिवारवादी व्यवस्था में भ्रष्टाचार, सत्ता में रहकर देश-विदेश में अकूत संपत्ति अर्जित, विभाजनकारी जातीय-मजहब प्रेरित राजनीति और अलगाववादी-जिहादी शक्तियों को सशक्त करने तक सीमित है। बिहार में महागठबंधन के मुख्यमंत्री प्रत्याशी राजद नेता तेजस्वी थे। वे उस जीर्ण परिवारवाद का प्रतिनिधित्व करते है, जहां 950 करोड़ के भ्रष्टाचार में जब उनके पिता लालू को 1997 में बिहार की कुर्सी छोड़नी पड़ी, तब उन्होंने अनुभवहीन और घर-परिवार तक सीमित अपनी पत्नी राबड़ी देवी को प्रदेश का राजकाज सौंप दिया। लालू भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में सजायाफ्ता है, तो राजद की कमान उनके छोटे पुत्र तेजस्वी के हाथों में है और वह भी अपने भाई तेजप्रताप के साथ रेलवे निविदा और पटना चिड़ियाघर भूमि घोटालों में अनियमितता बरतने के आरोपी है। इस परिवार पर एक हजार करोड़ के जमीन सौदे और कर चोरी का मामला भी दर्ज है। बात केवल बिहार तक सीमित नहीं है। पं.नेहरू का आशीर्वाद लेकर और "सेकुलरवाद" का नकाब पहनकर 1931 में शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में घोर सांप्रदायिक राजनीति की शुरूआत की, जिसे उनके वशंज फारूख और उमर अब्दुल्ला आगे बढ़ा रहे है। इसी प्रकार मुफ्ती परिवार भी दशकों से "सेकुलरवादी ब्रैंड" का चोला ओढ़कर अपनी दुकान चल रहे है। इन दोनों परिवारों की राजनीति ने पाकिस्तान की प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद से उस वैचारिक अधिष्ठान को मजबूत किया है, जिसके गर्भ से निकली जिहादी ज्वाला शेष "काफिर" हिंदुओं को भस्म कर चुकी है। इसके परिणामस्वरूप, सदियों तक बौद्ध-शैव संप्रदाय का केंद्र रहा कश्मीर शत-प्रतिशत हिंदूविहीन हो गया है। धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण से पहले तक घाटी में भ्रष्टाचार भी खूब फला। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि इन धाराओं के रहते यहां वित्तीय अनियमितताओं की निष्पक्ष जांच की कोई स्वतंत्रता नहीं थी। अब सोचिए, प्रदेश सरकारों और चंद राजनीतिक परिवारों ने वर्षों तक मिले करोड़ों-अरबों रूपयों के केंद्रीय अनुदानों का बंदरबाट कैसे किया होगा। फारूख अब्दुल्ला पर जहां 113 करोड़ के एक घोटाले का आरोप लगा है, वही भ्रष्टाचार-निरोधक ब्यूरो ने बैंक में अनियमितता को लेकर महबूबा को नोटिस भेजा है। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी को भी "सेकुलरिस्ट" तमगा प्राप्त है। जब 30 अक्टूबर 1990 में उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने कई निरपराध रामभक्त कारसेवकों पर गोली चलाने के आदेश दिए, तो वह और उनका परिवार देश के बड़े सेकुलरिस्टों में से एक हो गए। दलित उत्थान के नाम पर बसपा का गठन हुआ, तो उसने घोर जातिवादी "तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार" नारा बुलंद किया। मायावती अपने इसी जातिवादी एजेंडे को "सामाजिक न्याय" के सांचे में ढालती रही हैं। इन दोनों दलों के शीर्ष नेता आज परिवारवाद, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता और जातिवाद के विशुद्ध प्रतीक है। इनके अतिरिक्त देश में ऐसे कई क्षत्रप है, चाहे वह पंजाब में वर्षों तक भाजपा की सहयोगी रही अकाली दल हो, महाराष्ट्र का ठाकरे परिवार, हरियाणा में चौटाला कुनबा, तमिलनाडु में स्टालिन या फिर आंध्रप्रदेश-तेलंगाना में जगन रेड्डी परिवार- जहां आंतरिक लोकतंत्र की भारी कमी है और सत्ता का केंद्र केवल पारिवारिक सदस्यों तक सीमित। सच तो यह है कि इस दूषित परंपरा का सिरमौर कांग्रेस का नेहरू-गांधी परिवार है, जिसका अनुसरण आज विभिन्न दल "सेकुलरवाद", "समतावाद" और "सामाजिक न्याय" आदि रूपी नकाब पहनकर कर रहे है। इन दलों के लिए सत्ता से अकूत संपत्ति अर्जित करना और उसी संपत्ति से सत्ता प्राप्ति का प्रयास- नफा नुकसान वाला राजनीतिक व्यापार बन गया है। इन सबमें भारतीय सनातन संस्कृति विरोधी वामपंथी चिंतन ने देश की राष्ट्रीय राजनीति को सर्वाधिक विकृत और कलंकित किया है। दशकों से यह जमात लोगों को "सेकुलर सर्टिफिकेट" देकर अपना भारत-हिंदू विरोधी एजेंडा आगे बढ़ा रहा है। यह भारतीय राजनीति पर कुठाराघात ही है कि कि इस्लाम के नाम पर भारत के रक्तरंजित विभाजन और पाकिस्तान के जन्म में जिस एकमात्र भारतीय राजनीतिक वर्ग- वामपंथियों ने महती भूमिका निभाई, वह आज भी इस्लामी आतंकियों-अलगाववादियों से न केवल सहानुभूति रखता है, साथ ही वैचारिक समानता के कारण टुकड़े-टुकड़े गैंग, शहरी नक्सलियों और माओवादियों का समर्थन भी करता है। अक्सर भारतीय वामपंथी राजनीतिक दल- लोक अधिकारों, अभिव्यक्ति, प्रजातंत्र और संविधान की बातें करते है, किंतु वे सत्तासीन होने पर उन्ही जीवंत मूल्यों की हत्या सबसे पहले कर देते है। केरल में वामपंथियों द्वारा राजनीतिक विरोधियों का दमन, असहमति के अधिकार का हनन और हिंसा- इसका उदाहरण है। प.बंगाल और त्रिपुरा भी लंबे समय तक इसी दंश को झेल चुके है। सच तो यह है कि बिहार की जनता ने न केवल 10 लाख सरकारी नौकरी के अव्यवहारिक वादे रूपी लालच को ठुकराया है, बल्कि उन्होंने घोर जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति करने वाले तथाकथित सेकुलरिस्टों, जो परिवारवाद और दीमक रूपी भ्रष्टचार से युक्त भी है- उन्हे सिरे से खारिज कर दिया। स्पष्ट है कि आज भारत में "सामाजिक न्याय", "सेकुलरवाद" और "समतावाद" केवल लेबल मात्र है और कुछ नहीं।