पेरिस और कश्मीर- बीते दिनों आतंकी घटनाओं के साक्षी बने। जहां विगत दो सप्ताह के भीतर पेरिस में इस्लाम के नाम पर जिहादियों ने चार निरपराधों की हत्या कर दी, तो वही कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी के तीन नेताओं को आतंकियों ने मौत के घाट उतार दिया। पेरिस में मरने वाले गैर-मुस्लिम, तो मारने वाले स्वघोषित सच्चे मुसलमान थे। वही घाटी में मरने और मारने वाले दोनों मुसलमान थे। यक्ष प्रश्न उठता है कि मुस्लिमों ने तीन मुस्लिम नेताओं की हत्या क्यों की? यह तीनों घाटी में भाजपा के माध्यम से बहुलतावादी सनातन भारत और उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था से जुड़े थे। संभवत: हत्यारों को इस जुड़ाव में इस्लाम के लिए खतरा नजर आया। कश्मीर में यह हत्याएं तब हुई, जब कालांतर में वर्तमान मोदी सरकार ने इस्लामी आतंकवाद-कट्टरपंथ के खिलाफ लड़ाई में फ्रांस का खुलकर समर्थन करने की घोषणा की थी। बात केवल कश्मीर तक सीमित नहीं। जैसे ही भारत ने पेरिस में आतंकी घटनाओं के पश्चात फ्रांसीसी सरकार की कार्रवाई को न्यायोचित ठहराया, वैसे ही फ्रांस विरोधी वैश्विक मजहबी प्रदर्शन में भारतीय मुसलमान का बड़ा वर्ग भी शामिल हो गया। भोपाल में प्रशासनिक अनुमति के बिना कांग्रेस विधायक आरिफ मसूद के नेतृत्व में हजारों मुस्लिमों ने इक़बाल मैदान में प्रदर्शन किया, तो मुंबई स्थित नागपाड़ा और भिंडी बाजार क्षेत्र के व्यस्त सड़क-मार्ग पर विरोधस्वरूप फ्रांसीसी राष्ट्रपति का पोस्टर चिपका दिया। तेलंगाना में भी कांग्रेस प्रदेश अल्पसंख्यक ईकाई ने फ्रांस विरोधी प्रदर्शन किया और राज्य सरकार से फ्रांसीसी उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर दी। अब इस मामले में फ्रांस विरोधी प्रदर्शनकारियों और भारतीय नेतृत्व का व्यवहार अलग-अलग क्यों है? स्वाभाविक रूप से मोदी सरकार ने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हुए फ्रांस का साथ दिया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि सीमा पर चीन के साथ भारत का तनाव चरम पर है। किसी भी प्रतिकूल स्थिति में साम्यवादी चीन की साम्राज्यवादी नीतियों से लोहा लेने और अपनी अखंता को अक्षुण्ण करने हेतु भारत फ्रांस निर्मित राफेल का उपयोग अवश्य करेगा। इस पृष्ठभूमि में देश में फ्रांस विरोधी प्रदर्शन इस बात को रेखांकित करता है कि प्रदर्शनकारियों की निष्ठा-समर्पण भारतीय-हितों की तुलना में उम्माह (वैश्विक मुस्लिम समुदाय) के प्रति बहुत अधिक है। यूं तो पेरिस और कश्मीर के बीच दूरी 6,000 किलोमीटर से अधिक है, किंतु आज यह दोनों क्षेत्र एक ही प्रकार के संकट से घिरे है, जिसे वैचारिक खुराक "काफिर-कुफ्र" की अवधारणा से मिल रही है। कश्मीर और पेरिस की घटनाओं में जहां एक ओर समानता है, वही इसमें थोड़ी भिन्नता भी है। कश्मीर में समस्या के दो मुख्य स्रोत है। पहला- इस्लाम के नाम पर गैर-इस्लामी जीवनमूल्य के खिलाफ जिहाद, तो दूसरा- पाकिस्तान आदि देशों से इसका वित्तपोषण और उसे स्थानीय नेताओं का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन है। इस पृष्ठभूमि में पेरिस का संकट नया तो है, किंतु इसकी जड़े सदियों पुरानी है। फ्रांस या अन्य यूरोपीय देशों में सामने आए जिहादी घटनाओं में अधिकांश वही मुस्लिम शामिल है, जिन्हे या उनके परिवार को मानवता के आधार पर कुछ वर्ष पहले शरण दी गई थी- जो अब हिंसा के बल पर गैर-इस्लामी मूल्यों पर शरीयत को लागू करने पर आमादा है। भारत इस मानसिकता का शिकार आठवीं शताब्दी से हो रहा है। यह संयोग ही है कि जब पेरिस में शिक्षक का गला काटने के बाद पूरे फ्रांस में इस्लामी कट्टरपंथियों-अलगाववादियों के खिलाफ कार्रवाई चल रही थी, तब कश्मीर में इस्लामी आतंकवाद के "वित्तपोषकों" के ठिकानों को जांच एजेंसी खंगालने में जुटी थी। राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एन.आई.ए.) ने 28-29 अक्टूबर को सीमापार से आतंकवाद के वित्तपोषण को लेकर जम्मू-कश्मीर की 9 जगहों सहित दिल्ली-बेंगलुरु के एक स्थान पर छापेमारी की, जिसमें स्था.नीय समाचारपत्र सहित छह स्वयंसेवी संगठनों (एन.जी.ओ.) के कार्यालयों शामिल है। जिन छह एन.जी.ओ. के कार्यालयों पर छापा मारा गया, उनमें दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष जफर-उल-इस्लाम खान की अध्यक्षता वाला "चैरिटी अलायंस" भी एक था। यह जफर वही व्यक्ति है, जिन्होंने इसी वर्ष 28 अप्रैल को सोशल मीडिया पर लिखा था, "....जिस दिन मुसलमानों ने अरब देशों से अपने खिलाफ जुल्म की शिकायत कर दी, उस दिन जलजला आ जाएगा।" अभी कुछ दिन पहले ही जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला भी "शत्रुराष्ट्र" चीन से धारा 370-35ए बहाली हेतु मदद मांग चुके है। क्या एन.आई.ए. की हालिया कार्रवाई से कश्मीर दशकों पुराने संकट से बाहर निकल जाएगा? निसंदेह, मोदी सरकार ने कश्मीर समस्या के निदान का श्रीगणेश गत वर्ष धारा 370-35ए के संवैधानिक उन्मूलन के साथ कर दिया था, जिसे हालिया भूमि कानून में परिवर्तनों से और गति मिलने की संभावना है। इन संशोधनों के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में जमीन के मालिकाना अधिकार व विकास, वन भूमि, कृषि भूमि सुधार और जमीन आवंटन संबंधी सभी कानूनों में "जम्मू-कश्मीर का स्थायी नागरिक" शब्द हटा दिया गया है। अर्थात्- शेष देश की भांति किसी भी भारतीय नागरिक को अब इस केंद्र शासित प्रदेश में भी जमीन, मकान और दुकान खरीदने का अधिकार होगा। पहले ऐसा नहीं था। यह परिवर्तन आर्थिक रूप से इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में निवेश के द्वार खुल सकेंगे, साथ ही उद्योग-धंधे भी खोल जा सकेंगे। अबतक भूमि का स्वामित्व अधिकार नहीं मिलने के कारण बड़ी-बड़ी कंपनियां यहां निवेश में दिलचस्पी नहीं दिखाती थी। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में भी सकारात्मक बदलाव की संभावना है, क्योंकि इन संशोधनों के बाद निजी संस्थान अपनी शाखाएं खोलने को आगे आ सकते है। अभी तक जम्मू-कश्मीर के लोगों को उपचार के लिए लुधियाना या फिर दिल्ली का रुख करना पड़ता है और उच्च शिक्षा के लिए बाहरी राज्यों में जाना पड़ रहा है। स्वतंत्रता मिलने के 73 वर्ष बाद शेष भारतीय नगरों की तुलना में कश्मीर की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? इसका उत्तर- उन राजनीतिक दलों की हालिया प्रतिक्रिया में मिल जाता है, जिन्होंने सेकुलरवाद की आड़ में कभी भी कश्मीर में बहुलतावाद को पुनर्स्थापित नहीं होने दिया। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला-महबूबा मुफ्ती और कांग्रेस प्रदेश ईकाई ने भूमि सुधारों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने का आह्वान किया है। सच तो यह है कि मस्जिदों के इर्दगिर्द अपनी राजनीति को सीमित रखने वाले यह राजनीतिज्ञ धारा 370-35ए की बहाली की मांग करते हुए इन परिवर्तनों का विरोध केवल इसलिए कर रहे है, ताकि वह उसी इस्लामी व्यवस्था को पुन:स्थापित कर सके, जिसकी नींव 1931 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की अलगाववादी अंगीठी में तपकर कश्मीर लौटे शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने रखीं थी- जिसके परिणामस्वरूप कालांतर में यह क्षेत्र शत-प्रतिशत हिंदू-विहीन अर्थात् बहुलतावाद-मुक्त हो गया। धारा 370-35ए के प्रभावी रहने तक कश्मीर में विषाक्त मजहबी "इको-सिस्टम" को सेकुलरवाद की आड़ में इस प्रकार पोषित किया गया कि मस्जिदों से भारत-हिंदू विरोधी नारे, सुरक्षाबलों पर पथराव, आतंकियों से सहानुभूति और इस्लामी पाकिस्तान व आतंकवादी संगठनों से प्रेम आदि दशकों पहले इस क्षेत्र की "डिफ़ॉल्ट सेटिंग" बन गई। ऐसे में इस्लामी आतंकवाद-अलगाववाद के वित्तपोषकों की कमर तोड़ने के साथ जम्मू-कश्मीर भूमि स्वामित्व अधिनियम में संशोधन- उसी बहुलतावादी विरोधी "इको-सिस्टम" पर एक और करारा प्रहार है। एक सच यह भी है कि 30 वर्ष पहले जिहादी दंश झेलने के बाद पलायन कर चुके पांच लाख कश्मीरी पंडितों और उनकी पीढ़ियों की जबतक अपनी मातृभूमि पर सम्मानजनक वापसी सुनिश्चित नहीं होगी और घाटी के "विषाक्त इको-सिस्टम" पर वस्तुनिष्ठ प्रहार नहीं होगा- तबतक कश्मीर में बहुलतावादी और संवैधानिक मूल्यों को स्थापित करना असंभव है।