विगत कुछ दिनों से "इस्लाम का संकट" वैश्विक विमर्श में है। इस चर्चा को 16 अक्टूबर (शुक्रवार) की उस घटना के बाद तब और गति मिल गई, जब फ्रांस की राजधानी पेरिस में 18 वर्षीय मुस्लिम ने 47 वर्षीय शिक्षक की गर्दन काटकर हत्या कर दी। फ्रांसीसी सरकार ने इसे इस्लामी आतंकवाद की संज्ञा दी है। मृतक सैम्युएल पैटी इतिहास विषय का शिक्षक था और हत्यारा मॉस्को में जन्मा चेचेन्या का मुस्लिम शरणार्थी। पैटी का दोष केवल इतना था कि उसने अपनी कक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में पढ़ाते हुए पैगंबर मोहम्मद साहब का एक कार्टून दिखाया था। जिहादियों द्वारा फतवा जारी होने के कुछ समय पश्चात उसी शाम स्कूल के निकट हथियारों से लैस इस्लामी आतंकी पहुंचा और उसने "अल्लाह-हू-अकबर" का नारा लगाते हुए धारदार चाकू से घर लौट रहे सैम्युएल का गला निर्ममता से काट दिया। जवाबी कार्रवाई में आतंकी पुलिस के हाथों मारा गया। पुलिस ने आरोपी की पूरी पहचान उजागर नहीं की है। उसका मानना है कि हमलावर की बेटी उसी स्कूल में पढ़ती थी। इस मामले के बाद फ्रांस में इस्लाटमिक कट्टरपंथियों के खिलाफ कार्रवाई हो रही है, दर्जनों स्थानों पर जांच एजेंसियों ने छापेमारी की है। इस बर्बर घटना के विरोध में पेरिस के प्लेस डी ला रिपब्लिक सहित दर्जनों फ्रांसीसी नगरों में प्रदर्शन हुए, जिसमें फ्रांस के प्रधानमंत्री जीन कैस्टेक्स सहित हजारों लोगों ने हिस्सा लिया। प्रदर्शनकारियों ने हाथों में तख्तियां ली हुई थीं, जिसपर लिखा था "मैं सैम्युएल हूं"। यह प्रदर्शन "मैं चार्ली हूं" आंदोलन का स्मरण कराता है, जो 2015 में अखबार चार्ली हेब्दो पर अल-कायदा के आतंकवादी हमले के बाद शुरू हुआ था। इस अखबार ने भी पैगंबर साहब के कार्टून छापे थे। 2005-06 से शुरू हुआ पैगंबर कार्टून विवाद दुनियाभर के 250 लोगों का जीवन समाप्त कर चुका है। मान्यता के अनुसार, इस्लाम में पैगंबर साहब की मूर्ति या तस्वीर बनाना वर्जित है, जिसे अत्यधिक निन्दात्मक माना जाता है। यह अलग बात है कि तुर्की स्थित एक संग्रहालय में पैगंबर साहब की कई पेंटिंग्स आज भी मौजूद है। पेरिस में इस्लाम के नाम पर यह वीभत्स हत्याकांड तब हुआ, जब विगत 3 अक्टूबर को फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इस्लाम को "एक ऐसा धर्म जो पूरे विश्व में आज संकट में है" के रूप में परिभाषित किया था। अब मैक्रों ने जो कुछ कहा- वह सच तो है, किंतु आधा-अधूरा। पूरा सच यह है कि विश्व में इस्लाम की "काफिर-कुफ्र" (वाजिबुल-कत्ल) अवधारणा- सदियों से संकट का पर्याय बनी हुई है। कल्पना कीजिए यदि इस मजहबी धारणा का जन्म ही नहीं हुआ होता, तो क्या पेरिस में शिक्षक का गला काटा जाता? क्या भारत मजहबी उन्माद का शिकार होता? क्या यहां असंख्य हिंदुओं, बौद्ध, जैन और सिखों का तलवार के बल पर मतांतरण किया जाता और इसका विरोध करने पर मौत के घाट उतारा जाता? क्या भारत का रक्तरंजित विभाजन होता? पिछले 73 वर्षों से खंडित भारत के लिए नासूर बना पाकिस्तान का क्या कोई अस्तित्व होता? क्या अफगानिस्तान हिंदू-बौद्ध विहीन होता? सच तो यह है कि इबादत हेतु मस्जिदें और मुसलमान विश्व में संकट का कारण नहीं है। बहुलतावाद के जीवंत प्रतीक और सनातन संस्कृति के गर्भगृह भारत ने कभी भी किसी पूजा-पद्धति का विरोध नहीं किया। सदियों का ऐतिहासिक कालखंड साक्षी है कि भिन्न मत के जिस किसी वर्ग ने (उद्गम स्थान से प्रताड़ित होकर सहित भी) भारत में शरण ली, चाहे वह यहूदी हो, पारसी हो, ईसाई हो या मुस्लिम- उसे स्थानीय हिंदुओं ने (शासक सहित) ने न केवल सहर्ष अपने समाज का हिस्सा बनाया, अपितु उनकी भिन्न पूजा-पद्धति, परंपरा और पर्वों को सहज स्वीकार भी किया। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि सनातन भारत को अनंतकाल से "वसुधैव कुटुंबकम" और "एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति" रूपी बहुलतावादी वैदिक परंपरा से प्राणवायु मिल रही है। विश्व कल्याण निहित इस आदर्श तानेबाने का आघात तब पहुंचा, जब समाज में "काफिर-कुफ्र" और बाद में "बपतिस्मा" दर्शन, जिसके अंतर्गत- अपने ही ईश्वर और पवित्र-पुस्तकों को एकमात्र सत्य और अन्य संस्कृति, सभ्यता व परंपराओं को झूठा, हीन और नगण्य मानने का सिद्धांत है- उसका विस्तार (हिंसा सहित) हुआ। भारत का इस्लाम का पदार्पण दो भिन्न मार्गों और दो भिन्न प्रकार से हुआ। पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवनकाल में अरब के बाहर पहली मस्जिद 629 में केरल स्थित कोडुंगलूर में चेरामन जुमा मस्जिद के रूप में बनी थी। इसका निर्माण तत्कालीन हिंदू राजा चेरामन पेरुमल के निर्देश पर हुआ था। यह प्राचीन मस्जिद आज भी विद्यमान है। 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सऊदी अरब के राजकीय दौरे में इसी मस्जिद की प्रतिकृति बादशाह सलमान को भेंट स्वरूप दी थी। भारत में इस्लामी प्रवेश का दूसरा अध्याय, पैगंबर साहब की मृत्यु के 80 वर्ष बाद सन् 712 में "उमय्यद खलीफा" मोहम्मद बिन कासिम द्वारा "काफिर" हिंदू राजा दाहिर के सिंध पर जिहाद छेड़ने के साथ प्रारंभ हुआ। फिर प्रत्येक 100-200 वर्षों के कालांतर में गजनी, गौरी, खिलजी, बाबर, औरंगजेब और टीपू सुल्तान जैसे क्रूर इस्लामी आक्रांताओं के विषाक्त दौर में इसकी पुनरावृति होती गई। "काफिर-कुफ्र" की अवधारणा से ग्रस्त होकर सैकड़ों ऐतिहासिक मंदिरों-पूजास्थलों को तोड़ा गया, तलवार के बल पर असंख्य स्थानीय लोगों को मतांतरित किया गया और जिस किसी ने इसका विरोध किया- वह मारा गया। कालांतर में उसी विषैले चिंतन के गर्भ से अविभाजित भारत में मुस्लिम अलगाववाद का बीजारोपण हुआ। "दो राष्ट्र सिद्धांत"- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। कुछ दशक पश्चात इस्लाम के नाम पर भारत का रक्तरंजित विभाजन हो गया और वह तीन टुकड़ों- पश्चिमी पाकिस्तान (पाकिस्तान), पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) और खंडित भारत में बंट गया। यह उसी "काउंटर-सोसाइटी" के दंश का प्रत्यक्ष उदाहरण है, जिसका उल्लेख मैक्रों ने इस्लाम पर वक्तव्य देते समय 60 लाख फ्रांसीसी मुस्लिमों के संदर्भ में किया था। स्वतंत्र भारत में कश्मीर का संकट भी उसी "काफिर-कुफ्र" दर्शन का प्रतिबिंब है, जहां से हिंदुओं को 1980-90 के दशक में पलायन और अपने ही देश में शरणार्थी बनने पर विवश कर दिया। तब से कश्मीर की मस्जिदों से भारत-हिंदू विरोधी नारों का गूंजना, पाकिस्तान सहित इस्लामी झंडों का लहराना, सुरक्षाबलों पर पथराव और आतंकियों से स्थानीय लोगों की सहानुभूति रखना- वहां सामान्य दिनचर्या का हिस्सा बना गया। गत वर्ष धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण के बाद इस स्थिति में तुलनात्मक रूप से गिरावट आई है। विश्व के लाखों निरपराध इस्लाम के नाम पर हो रही हिंसा के शिकार है। दिलचस्प तथ्य तो यह है कि इस्लाम आधारित हिंसा में मरने और मारने वाले अधिकांश मुस्लिम ही है। एक आंकड़े के अनुसार, इस्लामी आतंकवाद के शिकार लोगों में 80 प्रतिशत से अधिक लोग मुसलमान है। सीरिया, इराक, लीबिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि ऐसे ही इस्लामी देश है, जहां अक्सर मुस्लिम कभी अल्लाह, तो कभी दीन के नाम पर मुसलमान को ही मौत के घाट उतार रहे है। अब जब "मुस्लिम अलगाववाद" और "इस्लामी आतंकवाद" से अपना घर जल रहा है, तो फ्रांस जैसे संपन्न यूरोपीय देश छटपटाने लगे है। यह उन्हीं पश्चिमी देशों में से एक है, जो अमेरिका सहित 2001 में न्यूयॉर्क में हुए 9/11 के भीषण आतंकवादी हमले से पहले मुस्लिम अलगाववाद और जिहाद को भारतीय उपमहाद्वीप का क्षेत्रीय विवाद मानकर इसकी अवहेलना कर रहा था। यह भी एक विडंबना है कि जिस रक्तपिपासु "काफिर-कुफ्र" चिंतन से दुनिया संकट में है, उसे दशकों से "वहाबी-सलाफी" की वैचारिक घुट्टी सऊदी अरब जैसे संपन्न इस्लामी देशों के वित्तपोषण से मिल रही है- फिर भी तथाकथित आतंकवाद विरोधी वैश्विक लड़ाई में सऊदी अरब, अमेरिका सहित पश्चिमी देशों का प्रमुख सहयोगी बना हुआ है। क्या यह दोहरा मापदंड नहीं? सच तो यह है कि विश्व को केरल स्थित चेरामन जुमा मस्जिद जैसी मस्जिदों से कोई खतरा नहीं है। संकट की जड़ "काफिर-कुफ्र" की अवधारणा और इस्लामी आक्रांताओं द्वारा बनाए बाबरी ढांचा जैसे विजयस्तंभ है, जिसका विशुद्ध उद्देश्य केवल पराजितों को अपमानित करके स्वयं को ही सर्वोच्च घोषित करना है। इस पृष्ठभूमि में क्या विश्व- इस्लाम से जनित संकट की मूल समस्या का निवारण ढूंढ पाएगा?