Amar Ujala 2020-10-04

भारत में एनजीओ का काला सच

गत सप्ताह विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफ.सी.आर.ए.) संशोधन विधेयक संसद से पारित हो गया। इस कदम का जहां एक बड़ा वर्ग स्वागत कर रहा है, तो अन्य- जिनका अपना निहित स्वार्थ भी है, वे इसे घातक और लोकतंत्र विरोधी बता रहे है। यह सर्विदित है कि देश के अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाओं (एनजीओ) को सर्वाधिक विदेशी चंदा ईसाई धर्मार्थ संगठनों से प्राप्त होता है। एक आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2016-2019 के बीच एफसीआरए पंजीकृत एनजीओ को 58,000 करोड़ का विदेशी अनुदान प्राप्त हुआ था। यक्ष प्रश्न है कि जो स्वयंसेवी संगठन, विदेशों से "चंदा" लेते है- क्या उनका उद्देश्य सेवा करना होता है या कुछ और? निर्विवाद रूप से देश में कई ऐसे एनजीओ हैं, जो सीमित संसाधनों के बावजूद देश के विकास में महती भूमिका निभा रहे हैं। किंतु कई ऐसे भी है- जो स्वयंसेवी संगठन के भेष में और सामाजिक न्याय, गरीबी, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, मजहबी सहिष्णुता, पर्यावरण, मानवाधिकार और पशु-अधिकारों की रक्षा के नाम पर न केवल भारत विरोधी, अपितु यहां की मूल सनातन संस्कृति और बहुलतावादी परंपराओं पर दशकों से आघात पहुंचा रहे हैं। भारतीय खुफिया विभाग अपनी एक रिपोर्ट में कह चुका है कि विदेशी वित्तपोषित एनजीओ की विकास विरोधी गतिविधियों से देश की अर्थव्यवस्था नकारात्मक रूप से 2-3% तक प्रभावित होती है। एफसीआरए संशोधन क्यों आवश्यक था? इसका उत्तर लीगल राइट ऑब्सर्वेटरी (एल.आर.ओ.) संगठन के एक खुलासे में मिल जाता है। उसके अनुसार- नागरिक संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) विरोधी दंगों और हिंसा में शामिल लोगों, जिनके खिलाफ अदालत में मामले चल रहे है- उनका बचाव करने हेतु चार यूरोपीय चर्चों ने अधिवक्ता कॉलिन गोंजाल्विस द्वारा स्थापित एनजीओ- "ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क" (एच.आर.एल.एन.) को चंदे के रूप में 50 करोड़ रुपये स्थानांतरित किए थे। आखिर चर्च का इस हिंसा और दंगाइयों से क्या हित जुड़ा है? जो स्वयंसेवी संगठन इन संशोधनों की आलोचना कर रहे है- उसमें ऑक्सफैम सबसे मुखर है। यह संगठन अक्सर भारत विरोधी रिपोर्ट्स तैयार करता रहा है, जिसे हमारे देश के कई बड़े समाचारपत्र अपने पहले पृष्ठ पर बिना किसी प्रति-परीक्षण के प्रमुख स्थान देते रहे है। आखिर ऑक्सफैम का वास्तविक चरित्र क्या है? वर्ष 1942 से ब्रितानी चर्च का संरक्षण प्राप्त और ब्रिटिश सरकार द्वारा वित्तपोषित ऑक्सफैम, वहीं एनजीओ है- जिसके पदाधिकारियों और कर्मचारियों ने 2010 में भीषण भूंकप का शिकार हुए कैरेबियाई देश हैती में चंदे के पैसे अपनी वासना को शांत करने हेतु वेश्याओं पर खर्च किए थे। यही नहीं, उनपर सहायता (वित्तीय सहित) के बदले नाबालिग लड़कियों सहित कई पीड़ित महिलाओं का यौन-उत्पीड़न का भी आरोप लगा था। अमानवीयता और संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को पार करने वाले इस घटनाक्रम की ब्रितानी संसद (हाउस ऑफ कॉमन्स) भी निंदा कर चुका है। विडंबना देखिए कि महिला सुरक्षा पर "प्रवचन" देने वाले अधिकांश तथाकथित स्त्री-अधिकारवादी स्वयंसेवी संगठन या स्वघोषित कार्यकर्ता- ऑक्सफैम की इस घटना पर सुविधाजनक चुप्पी साधे हुए है। भारतीय एनजीओ को जिन विदेशी ईसाई संगठनों से "सेवा" के नाम पर "चंदा" मिलता है, वे अधिकतर अमेरिका या फिर यूरोप से संबंध रखते है। यदि वाकई उनका उद्देश्य सेवा करना होता, तो इसकी शुरूआत वे अपने देशों से करते। "टाइम" पत्रिका के अनुसार, अमेरिका में प्रत्येक पांच में से एक बच्चा अत्यंत गरीब है। प्रति एक लाख की आबादी में बलात्कार के मामले में अमेरिका सहित कई यूरोपीय देश शीर्ष 20 राष्ट्रों की सूची में है। वास्तव में, इन ईसाई संगठनों में "सेवा" का एकमात्र अर्थ- ईसाई मतांतरण से है। चूंकि अमेरिका और यूरोपीय देशों का मूल चरित्र सदियों पहले ईसाई बहुल हो चुका है- इसलिए उनके लिए वहां न ही कोई "सेवा" का अर्थ है और न ही किसी सामाजिक कलंक का। अब कैथोलिक चर्च और वेटिकन सिटी का घोषित एजेंडा है, "जिस प्रकार पहली सहस्राब्दी में यूरोप और दूसरी में अमेरिका-अफ्रीका को ईसाई बनाया, उसी तरह तीसरी सहस्राब्दी में एशिया का ईसाइकरण किया जाएगा।" बहुलतावादी सनातन संस्कृति का उद्गमस्थान भारत- सदियों से भय, लालच और धोखे से होने वाले मतांतरण का शिकार रहा है। विश्व के इस भूखंड में ईसाई मतांतरण की शुरूआत जहां 16वीं शताब्दी में सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर के गोवा आगमन के साथ हुई, वही 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में "आत्मा के व्यापार" को गति तब मिली- जब 1813 में चर्च के कहने पर अंग्रेजों ने "ईस्ट इंडिया कंपनी" के चार्टर में एक विवादित धारा जोड़कर पादरियों और ईसाई मिशनरियों के भारत में ईसाइयत के प्रचार-प्रसार का रास्ता प्रशस्त कर दिया। इस पृष्ठभूमि में चीन सहित अन्य एशियाई देशों की स्थिति क्या है? विश्व के अधिकतर इस्लामी देश (पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान सहित) वेटिकन सिटी के प्रभाव से पूरी तरह बाहर है और उन्ही देशों में ईसाई सहित अन्य सभी अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक है। साम्यवादी चीन में प्रचार तो दूर ईसाई, मुस्लिम सहित अन्य सभी अल्पसंख्यकों पर सरकार की ओर से मजहबी प्रतिबंध है। प्रतिकूल इसके, भारत में कुछ राजनीतिक दलों और एनजीओ की मदद से चर्च और ईसाई मिशनरी अपने अधूरे एजेंडे की पूर्ति में लिप्त है। जिस तरह 18-19वीं शताब्दी में साम्राज्यवादी व्यवस्था चलती थी, उसके दिन अब 21वीं सदी में लद चुके है। परंतु गुलाम औपनिवेशिक मानसिकता अब भी जीवित है। यह अलग-अलग चोले ओढ़कर अपने एजेंडे की पूर्ति हेतु सक्रिय है, जिसमें विदेशी वित्तपोषित स्वयंसेवी संगठनों का एक बड़ा वर्ग भी शामिल है। संक्षेप में कहा जाए- तो देश के विकास में अवरोध पैदा करना, भारतीय एकता-अखंडता को चुनौती देना या ऐसा करने वालों की ढाल बनना और यहां की मूल बहुलतावादी सनातन संस्कृति व परंपराओं से वैचारिक घृणा करते हुए उसे कलंकित करना- विदेशी अनुदानों पर आश्रित अधिकांश एनजीओ की वास्तविकता है। इसी दिशा में मोदी सरकार का बहुप्रतीक्षित कदम स्वागतयोग्य है। लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं। संपर्क:- punjbalbir@gmail.com