Punjab Kesari 2020-09-04

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में "भारत"

अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव लगभग दो माह दूर है। 3 नवंबर को मतदान के साथ चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ होगी और 5 जनवरी 2021 तक परिणाम घोषित होने की संभावना है। मेरे 50 वर्ष के राजनीतिक जीवन में अमेरिका का यह चुनाव ऐसा पहला निर्वाचन है, जिसमें भारत मुखर रूप से केंद्रबिंदु में है। वहां भारतीय मूल अमेरिकी नागरिकों की संख्या 40 लाख से अधिक है, जिसमें से 44 प्रतिशत- अर्थात् लगभग 18 लाख लोग वोट देने का अधिकार रखते है। अमेरिका में "भारतीयों" को रिझाने की होड़ चरम पर है। जहां एक ओर डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपने राष्ट्रपति प्रत्याशी जोसेफ (जो) बिडेन की रनिंग मेट के रूप में की कमला हैरिस को चुनते हुए भारत से सुदृढ़ संबंध सहित अमेरिकी भारतीयों के उत्थान हेतु अलग नीति बनाने पर बल दिया है। वहीं वर्तमान राष्ट्रपति और रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने कमला से भी ज्यादा भारतीय समर्थन होने का दावा किया है। साथ ही उन्होंने पूर्व राजदूत निक्की हेली को अपना स्टार-प्रचारक भी बना दिया है। स्पष्ट है कि "भारत" के प्रति अमेरिकी राजनीतिक-अधिष्ठान के झुकाव का कारण पिछले छह वर्षों में भारतीय नेतृत्व की वह नीतियां रही है, जिसने उसकी अंतरराष्ट्रीय छवि को पहले से कहीं अधिक सशक्त और सामरिक, आर्थिक व आध्यात्मिक रूप से वैश्विक शक्ति बनने के मार्ग पर प्रशस्त किया है। अब निक्की और कमला में से कौन अधिक "भारतीय" है?- इसकी चर्चा अमेरिकी भारतीय खुलकर कर रहे है। 20 जनवरी 1972 को साउथ कैरोलिना में जन्मीं निक्की हेली का मूल नाम नम्रता रंधावा हैं। उनके पिता अजीत सिंह रंधावा और माता राज कौर रंधावा पंजाब के अमृतसर से यहां आए थे। 1996 में उन्होंने माइकल हेली से विवाह किया, जो आर्मी नेशनल गार्ड में कैप्टन हैं। राजनीति में 2004 से औपचारिक प्रवेश के बाद वे गवर्नर पद तक पहुंचीं और 2016 में राष्ट्रपति ट्रंप ने उन्हे संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत बनाया। किंतु दो वर्ष पश्चात ट्रंप से कुछ मतभेदों के कारण उन्होंने इस पद से त्यागपत्र दे दिया। वहीं कमला हैरिस की भारतीय जड़े उनके ननिहाल से मिलती है। उनके नाना पीवी गोपालन चेन्नई के ब्राह्मण परिवार से थे। गोपालन की बड़ी बेटी श्यामला ने 1958 में आगे की पढ़ाई हेतु अमेरिका का रूख किया, जहां उन्होंने अपने कॉलेज सहपाठी और अफ्रीकी ईसाई डोनाल्ड हैरिस से शादी कर ली। इस अल्पायु विवाह में 20 अक्टूबर 1964 को कमला, तो इसके तीन वर्ष बाद माया का जन्म हुआ। आज कमला चुनावी प्रचार में भले ही स्वयं को भारतीय मूल्यों और परंपराओं से जोड़ने के लिए दक्षिण भारतीय व्यंजन "इडली", भारत भ्रमण, गांधीजी के विचारों और अपनी मां से मिले संस्कारों की बात कर रही हैं, किंतु उन्होंने सदैव ही अपनी अमेरिकी-अफ्रीकी पहचान को वरीयता दी है। अमेरिकी जनगणना में कमला द्वारा अपनी पहचान "अफ्रीकी अमेरिकी" के रूप में दर्ज कराना- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्पष्ट है कि वे उप-राष्ट्रपति की दौड़ में शामिल होने से पहले अपनी मां से विरासत में मिली भारतीय पहचान के प्रति कुंठित थी। ट्रंप प्रशासन की तुलना बिडेन-हैरिस गुट का कश्मीर, नागरिक संशोधन कानून और एन.आर.सी. जैसे आंतरिक मामलों पर भारतीय हितों के प्रतिकूल विचार रहे है। इसी कारण भारत में रहने वालों का एक समूह (जिहादी सहित), जो स्वयं को वाम-उदारवादी कहना अधिक पसंद करता है- वे न केवल आगामी चुनाव में ट्रंप की प्रचंड पराजय की कामना कर रहे हैं, साथ ही बिडेन-हैरिस से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पर कड़े प्रतिबंध लगा दें। अब भारतीय समाज के इस जमात की ऐसी मनोदशा क्यों है?- इसका उत्तर खोजना कठिन नहीं है। हाल ही में कांग्रेस नीत संप्रगकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एस.एस.ए.) और भारतीय विदेश सचिव जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे शिवशंकर मेनन ने अमेरिकी पत्रिका "फॉरेन अफेयर्स" के लिए "लीग ऑफ नेशलनिस्ट" नाम का आलेख लिखा। भारतीय विदेश सेवा अधिकारी के रूप में मेनन का विचार भारत की अबतक रहीं विदेश-नीति का उल्लेख करने हेतु पर्याप्त है। वे उस आलेख में एक स्थान पर लिखते हैं, "मोदी के नेतृत्व में, भारत ने प्रवासियों को नागरिकता देने के मार्ग से मुसलमानों को बाहर और मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर में स्वायत्तता को सीमित कर दिया है। मानवाधिकार और लोकतंत्र में कम दिलचस्पी रखने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मोदी सरकार को अपने विवादास्पद घरेलू एजेंडे लागू करने का मुफ्त पास दे दिया है।" क्या यह सत्य नहीं कि राम मंदिर सहित अस्थायी अनुच्छेद 370-धारा 35ए के क्षरण, नागरिकता कानून में संशोधन सत्तारुढ़ भाजपा के घोषणापत्र का हिस्सा है और इसमें किए वादों को पूरा करने के लिए देश की जनता ने भारी बहुमत देकर नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन पर विश्वास जताया है? शिवशंकर मेनन जैसे विचारक संभवत: यह मानते है कि भारत सरकार की नीतियां जनादेश के आधार पर तय न होकर अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा निर्देशित होती है। मेनन की ट्रंप से उनकी नाराज़गी का कारण यही है कि उन्होंने बतौर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को "सही रास्ते" पर लाने का प्रयास क्यों नहीं किया। निसंदेह, अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक महाशक्ति है, तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था। ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने से भारत-अमेरिका के संबंध पहले से कहीं अधिक प्रगाढ़ हुए हैं। दोनों देशों के बीच रक्षा-खुफिया सहयोग (समुद्री-सुरक्षा सहित) नई ऊंचाई पर है। अमेरिका ने भारत को अपना सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बनाया है। चीन की साम्राज्यवादी नीतियों से मुकाबला करने के लिए भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान एक-साथ आए है। इस चतुष्कोणीय गठबंधन की मूल अवधारणा में अफ्रीका के पूर्वी तट से लेकर अमेरिका के पश्चिमी तट तक फैले समुद्री क्षेत्र- जिसे अब "इंडो-पैसिफिक" नाम दिया गया है, उसमें बहुपक्षीय व्यापार की स्वतंत्रता को सुनिश्चित कराना है। इन सबसे, विशेषकर भारत के बढ़ते वैश्विक कद से बौखलाया चीन, भारत में अपने समान वैचारिक सहयोगियों की भांति अमेरिका में ट्रंप की पराजय और "उदारवादी-समाजवादी" बिडेन-हैरिस की विजय चाहता है। सच तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत का अमेरिका से घनिष्ठ संबंध- विशुद्ध भारतीय हितों और संप्रभुता को सुरक्षित करने पर आधारित है। क्या यह सत्य नहीं कि विश्व के इस भूखंड पर पाकिस्तान और चीन जैसे शत्रु राष्ट्र भारत की संप्रभुता, सुरक्षा और आत्मसम्मान को दशकों से चुनौती दे रहे है? आज केवल भारत ही नहीं, ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका से ब्राजील के राष्ट्रपति जैर बोल्सनारो, इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, सऊदी अरब के मोहम्मद बिन सलमान या फिर संयुक्त अरब अमीरात के शेख मोहम्मद बिन जायद की निकटता भी इसी आधार पर केंद्रित है। यह सभी देश अपने-अपने राष्ट्रहितों की रक्षा हेतु अमेरिका के सहयोगी बने हुए है। क्या अमेरिका विश्वास लायक है? इस प्रश्न का उत्तर मैं अपने पिछले कॉलम- "क्या भारत-चीन के बीच अब युद्ध होगा?" में पहले ही दे चुका हूं। ट्रंप के शासन में अमेरिका ने संरक्षणवाद के नाम "अमेरिका पहले" को बढ़ावा दिया है, जिससे वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार को चुनौती मिली है। इस पृष्ठभूमि में आगामी अमेरिकी चुनाव किस ओर करवट लेगा- इसका उत्तर भविष्य के गर्त में छिपा है।