Punjab Kesari 2020-08-28

क्या भारत-चीन के बीच अब युद्ध होगा?

सीमा पर तनातनी के बीच विदेश मंत्री एस. जयशंकर का एक वक्तव्य सामने आया है। एक वेबसाइट को दिए साक्षात्कार में उन्होंने लद्दाख की वर्तमान स्थिति को 1962 के बाद, सबसे गंभीर बताया है। उनके अनुसार, "पिछले 45 वर्षों में सीमा पर पहली बार हमारे सैनिक हताहत हुए है। एल.ए.सी. पर दोनों पक्षों ने बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती है, जोकि अप्रत्याशित है।" इससे पहले देश के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत भी कह चुके हैं, "यदि चीन से होने वाली वार्ता से कोई समाधान नहीं निकला, तो भारत सैन्य विकल्पों पर विचार करेगा।" अब प्रश्न उठता है कि क्या चीन- वार्ता के माध्यम से उसके द्वारा कब्जाए भारतीय क्षेत्रों को खाली कर देगा या भारत-चीन युद्ध ही केवल विकल्प है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने हेतु हमें इतिहास में झांकना होगा। चीनी सीमा पर विवाद 3-4 वर्षों के घटनाक्रमों का परिणाम नहीं है। दशकों से चीन साम्यवादी राजनीतिक व्यवस्था और हृदयहीन पूंजीवादी आर्थिकी की छत्रछाया में एक महत्वकांशी साम्राज्यवादी राष्ट्र के रूप में विश्व के सामने आया है। वे स्वयं को दुनिया की सबसे पुरानी जीवित सभ्यता मानता है। इसी मानसिकता के गर्भ से साम्राज्यवादी चिंतन का जन्म हुआ, जिससे प्रेरित होकर चीन ने 1950 में तिब्बत को निगल लिया। तब तत्कालीन भारतीय नेतृत्व मूक-विरोध भी नहीं कर पाया। इसी ने 1962 के युद्ध में भारत की शर्मनाक पराजय की पटकथा लिख दी और उसने हजारों वर्ग कि.मी. भारतीय भूखंड पर अधिकार जमा लिया। चीन अब भी अपना खूनी पंजा भारत पर गड़ाना चाहता है। 2017 का डोकलाम विवाद, तो इस वर्ष लद्दाख स्थित गलवान घाटी में गतिरोध- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। "वैश्विक भू-माफिया" चीन की भूख भारतीय भूखंडों तक सीमित नहीं है। अभी कुछ दिन पहले ही उसने रूसी नगर व्लादिवोस्तोक को भी अपने देश का हिस्सा बता दिया। वह 1959 से भूटान पर अपना दावा ठोक रहा है। 1979 में ताइवान को अपना हिस्सा बता चुका है। यही नहीं, 1974 में दक्षिण चीन सागर स्थित पार्सल द्वीप, 1988 में जॉनसन चट्टान, 1995 में मिसचीफ चट्टान और 2012 में रेत की टीले स्कारबोरो पर कब्जा चुका है। नेपाल, जहां 2008 से पहले हिंदू राजतंत्र था- वहां आज चीन ने युआन (चीनी मुद्रा) और कूटनीति के बल पर सरकार का संचालन हेतु चीनपरस्त व्यक्ति को बैठा दिया है। बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार भी चीन के प्रभाव में है, तो पाकिस्तान प्रत्यक्ष और व्यावहारिक रूप से उसके हाथों की कठपुतली बन चुका है। विश्व के इस भूभाग में भारत ही एक ऐसा देश है, जो शक्ति और आकार के बल पर चीनी साम्राज्यवाद को टक्कर दे सकता है। यही कटु सच्चाई चीन को स्वीकार नहीं है। वह चाहता है कि भारत भी अन्य एशियाई देशों की भांति उसके वर्चस्व को स्वीकार करें। गत कुछ समय से चीन को भारत का आर्थिक-सामरिक उभार और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि का सुदृढ़ और सशक्त होना- सबसे अधिक चुभ रहा है। विगत छह वर्षों में भारत को घेरने के लिए चीन अपने द्वारा वित्तपोषित पाकिस्तान को आधार बना रहा है। अगस्त 2019 में मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370-35ए संवैधानिक क्षरण करते हुए जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में परिवर्तित कर दिया था। तब पाकिस्तान के कहने पर और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का लाभ उठाकर चीन ने कश्मीर पर चर्चा की मांग रख दी, जो भारतीय कूटनीति के समक्ष विफल हो गया। यह कितना हास्यास्पद था कि कश्मीर में मानवाधिकारों की बात करने वाले चीन का स्वयं इस मामले में ट्रैक रिकॉर्ड- शिंजियांग में मुस्लिम शोषण, तिब्बत में बौद्ध-भिक्षु उत्पीड़न और हॉन्गकॉन्ग में लोकतंत्र समर्थकों के दमन को लेकर बहुत अधिक बिगड़ा हुआ है। इस कठिन समय में संतोष इस बात का है कि वर्तमान भारतीय नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में है, जो राष्ट्रहित और संप्रभुता को ध्यान में रखकर देश का संचालन प्रमाणिकता के साथ कर रहे हैं। गलवान घाटी गतिरोध के बाद मोदी सरकार ने चीन पर बड़ी आर्थिक कार्रवाई करते हुए 59 से अधिक चीनी मोबाइल एप पर प्रतिबंध लगा दिया। इस निर्णय से चीनी कंपनियों ने एकाएक 30 करोड़ भारतीय उपयोगकर्ताओं को खो दिया, जिससे उन्हे 44 हजार करोड़ रुपये नुकसान उठाना पड़ा। थिंक टैंक रिचर्स इंफोर्मेशन सिस्टम (आर.आई.एस.) ने एक शोध में कहा है कि भारत, चीन से ऐसे 327 वस्तुओं (मोबाइल फोन, दूरसंचार उपकरण, सोलर पैनल, एयर कंडीशनर, कैमरा आदि) का आयात करता है, जोकि उनसे होने रहे आयातित वस्तुओं का लगभग तीन चौथाई है- उसके लिए भारत दूसरा विकल्प ढूंढे या फिर अपने देश में गुणवत्ता के साथ निर्माण शुरू करे। भारत को एक राष्ट्र के रूप में इस ओर गंभीरता से सोचना चाहिए। देश में चीनी भाषा मंदारिन और चीनी संस्कृति को बढ़ावा देने वाले उन कन्फ्यूशियस (चीनी) संस्थानों को भी मोदी सरकार संदेह की नजर से देख रही है, जिसका आंशिक वित्तपोषण "हानबान" (चीनी शिक्षा मंत्रालय अधिकृत संस्था) द्वारा होता है। ऐसे संस्थाओं में मुंबई विश्वविद्यालय, वेल्लोर प्रौद्योगिकी संस्थान, लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी (फगवाड़ा, पंजाब), ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी (सोनीपत, हरियाणा), के.आर. मंगलम विश्वविद्यालय (गुरुग्राम, हरियाणा), स्कूल ऑफ चाइनीज लैंग्वेज (कोलकाता, प.बंगाल) और भारथियर विश्वविद्यालय (कोयंबटूर, तमिलनाडु) शामिल है। देश के भीतर चीन कैसे अपनी जड़े मजबूत कर रहा है?- उसका उदाहरण आयकर विभाग द्वारा चीनी नागरिक लुओ सांग उर्फ चार्ली पेंग की गिरफ्तारी है। लुओ पर दिल्ली-एनसीआर में 1,000 करोड़ रुपये के हवाला लेनदेन का आरोप है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, लुओ 2013 में भारत में आया और मणिपुर में बस गया। पूर्वोत्तर में बिताए समय ने लुओ को एक भारतीय पहचान प्राप्त करने में सक्षम बनाया, जिसके बाद वह दिल्ली आ गया। क्या भारतीय मदद के बिना यह संभव था? नहीं। सच तो यह है कि भारत में पाकिस्तान प्रेमियों के साथ असंख्य चीनी दलाल भी उपस्थित है, जो दशकों से साम्यवादी चीन की वकालत कर रहे है। चाहे 1962 का युद्ध हो, 1967 नक्सलवाद का जन्म (अर्बन नक्सल सहित), 2017 का डोकलाम विवाद या फिर इस वर्ष गलवान घाटी गतिरोध- भारतीय समाज के एक वर्ग (वामपंथी सहित) का चीन के प्रति वैचारिक झुकाव, इसका उदाहरण है। चीनी उद्दंडता के खिलाफ भारत को जिन देशों का समर्थन प्राप्त है, उसमें अमेरिका आर्थिक और सामरिक रूप से सबसे शक्तिशाली राष्ट्र है। गलवान घाटी प्रकरण के बाद भारत द्वारा अपने क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा हेतु उठाए कदमों का अमेरिकी प्रशासन ने समर्थन किया है। क्या भारत समर्थित अमेरिका का आचरण उसे विश्वासपात्र बनाता है? गत दिनों ही ट्रंप अधीन अमेरिका ने चीन को एक ही दिन में 17 लाख टन से अधिक मकई का निर्यात किया है, जोकि तीन दशकों की सबसे बड़ी बिक्री है। इस प्रकार का स्वार्थपूर्ण और विरोधाभासी अमेरिकी रवैया केवल ट्रंप तक सीमित नहीं है। 1980 के दशक में रोनाल्ड रीगन, ताइवान-समर्थित और चीन-विरोधी राजनीति से करते हुए दो बार अमेरिकी राष्ट्रपति बने थे। किंतु उन्होंने "वन-चाइना" नीति, जिसमें चीन ताइवान को अपने देश का हिस्सा मानता है- उसे न केवल स्वीकार किया, साथ ही उसके साथ हथियारों का सौदा भी किया। ऐसे ही 1990 के दशक में तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने पहले चीन से अंतरराष्ट्रीय व्यापार हेतु "सबसे पसंदीदा राष्ट्र" का दर्जा वापस लिया, तो बाद में दुनिया के सबसे बड़े आर्थिक संगठन "विश्व व्यापार संगठन" में चीन के औपचारिक प्रवेश का मार्ग प्रशस्त कर दिया। 2008 आते-आते साम्यवादी चीन, अमेरिकी कोष में विदेशी धारक के रूप में योगदान देने वाला सबसे बड़ा देश बन गया। क्या भारत-चीन के बीच युद्ध होगा? इस प्रश्न का उत्तर हमें चीनी युद्ध-रणनीतिकार सुन त्जू के उस विचार में मिलता है, जिसके उन्होंने कहा था, "युद्ध की कला सिखाती है कि हम यह सोचकर न बैठें कि शत्रु नहीं आ रहा है या नहीं आएगा। जरूरी है कि हम स्वयं उनसे युद्ध के लिए कितने तैयार हैं। वे हमपर हमला नहीं करेंगे, यह सोचने के बजाय हमें अपनी सीमाओं को अभेद्य बनाना होगा।" सच तो यह है कि यदि भारत युद्ध की आक्रमक तैयारी करेगा, तो युद्ध नहीं होगा और प्रतिकूल स्थिति में युद्ध की संभावना अधिक है।