Swadesh 2020-08-21

आमिर खान, तुर्की विवाद और बॉलीवुड

विगत कई दिनों से इस्लामी देश तुर्की वैश्विक सुर्खियों का हिस्सा बना हुआ है। मामला चाहे हागिया सोफिया, जो सदियों पहले चर्च हुआ करता था- उसे मस्जिद में परिवर्तित करने का हो या फिर तुर्की का हाल के समय में भारत विरोधी गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभरना हो। इसी बीच, फिल्म अभिनेता आमिर खान अपनी आगामी फिल्म "लाल सिंह चड्ढा" की शूटिंग के सिलसिले में तुर्की पहुंचते है और वहां राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन की पत्नी एमीन एर्दोगन से भेंट करते है। इस पृष्ठभूमि में भारतीय समाज का बड़ा वर्ग, जो देश की संप्रभुता और सुरक्षा को लेकर चिंतित रहता है- उनमें स्वाभाविक रूप से आमिर की इस भेंट के प्रति रोष है। आमिर खान का विवादों से संबंध नया नहीं है। वर्ष 2015 में दिल्ली के निकट दादरी में गोकशी के कारण भीड़ द्वारा अखलाक की निंदनीय हत्या का मामला सामने आया था। तब आमिर ने एक कार्यक्रम में कहा था, "पिछले 6-8 महीने से देश में असुरक्षा की भावना बढ़ने लगी है। मेरी पत्नी देश से बाहर जाने को कहती है, क्योंकि उसे बच्चों के लिए डर लग रहा है।" आमिर के इस वक्तव्य से पाकिस्तान सहित अन्य शत्रु शक्तियों को अपने भारत विरोधी एजेंडे को धार देने में खूब मदद मिली। वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या की पृष्ठभूमि में दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में सिखों का प्रायोजित नरसंहार हुआ था। हजारों निरपराध सिख मौत के घाट उतार दिए गए थे। तब 19 वर्षीय युवा आमिर को असुरक्षित अनुभव नहीं हुआ। कालांतर में जब कश्मीर में जिहादियों द्वारा दर्जनों निरपराधों की हत्या और महिलाओं से बलात्कार के बाद पांच लाख हिंदू रातोंरात अपना घरबार छोड़कर देश के अलग-अलग स्थानों पर विस्थापितों की भांति रहने को विवश हुए- तब भी "समाजसेवी" आमिर सामान्य रहे। यही नहीं, जब 2008 में उनकी कर्मभूमि मुंबई 26/11 आतंकवादी हमले का शिकार हुई, जिसमें 160 से अधिक लोग मारे गए। तब "मिस्टर परफेक्शनिस्ट" आमिर खान और उनके परिवार को असुरक्षा की अनुभूति नहीं हुई। आखिर इस विरोधाभास का कारण क्या है? वास्तव में, आमिर खान जिस भारतीय रचनात्मक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसमें यहां की सनातन संस्कृति, उसके प्रतीकों को अपमानित करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उसका उपहास करने की परंपरा है। यही नहीं, बॉलीवुड में मेहनती, उत्साहशील और प्रफुल्लित सिख बंधुओं को भी चुटकलों तक सीमित कर दिया है। स्वयं आमिर भी कुछ ऐसी फिल्मों के हिस्सा रहे है। फिल्म "पी.के." में भगवान शिव का स्वांग और फिल्म "इश्क" के हास्य-दृश्य में आमिर द्वारा राम-राम बोलते हुए एक ही स्वर में मरा-मरा कहना- इसका उदाहरण है। क्या बॉलीवुड में इस प्रकार से "अल्लाह" या "जीसस" के नाम पर ऐसा भद्दा मजाक हुआ है? यह सही है कि भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे- छुआछूत, बाल-विवाह, दहेज-प्रथा और लैंगिक असमानता आदि पर बॉलीवुड में कई संवेदनशील फिल्में बनी है। यह भी ठीक है कि हिंदू बहुल भारत में बनने वाली फिल्मों में सर्वाधिक किरदारों के नाम भी हिंदू समाज से ही होंगे। किंतु विकृत मानसिकता से ग्रस्त होकर भारतीय फिल्मकारों का एक वर्ग अपनी अधिकतर फिल्मों में मानव के सबसे वीभत्स रूपों- अर्थात् दुराचारी या बलात्कारियों आदि को बड़े ही चतुराई से हिंदू प्रतीकों, जैसे- तिलक, जनेऊ, गेरूए परिधान, स्वस्तिक/ओउम अंकित वस्त्र, मंदिर-मठ, गले-हाथ में रुद्राश और उपनामों में त्रिवेदी, पांडेय, पंडित, ठाकुर, राठौर इत्यादि से जोड़ देते है। स्वतंत्रता के बाद भारत में ऐसी सैकड़ों फिल्म बनी है। वास्तव में, भारतीय फिल्मों में यह विकृति कोई नई नहीं है। वर्ष 1957 की प्रसिद्ध फिल्म "मदर इंडिया" में अभिनेता कन्हैयालाल एक कपटी और कुटिल "सुखीलाला" की भूमिका निभा रहे थे- जो चोटी के साथ लंबा तिलक लगाकर देवी लक्ष्मी की मूर्ति के समक्ष "राधा" की भूमिका निभा रहीं नरगिस का शोषण करते है। फिल्म "शोले" में जहां मुस्लिम किरदार निभा रहे ए.के. हंगल को सच्चा नमाजी दिखाया गया, वही "वीरू" की भूमिका में धर्मेंद्र को शिव-मंदिर में बसंती (हेमा मालिनी) को छेड़ते और भगवान शिव का उपहास करते हुए दिखाई देते है। फिल्म "दीवार" में अमिताभ बच्चन मंदिर का प्रसाद ग्रहण नहीं करते, लेकिन अपनी जेब में मुस्लिमों के लिए पवित्र "786" संख्या का बिल्ला रखते है। फिल्म "जंजीर" में जहां अमिताभ बच्चन को नास्तिक और जया बच्चन को भगवान से नाराज़ होकर "बनाके क्यों बिगाड़ा रे, ऊपरवाले..." गाना गाते हुए दिखाया गया है, वही "शेरखान" की किरदार निभा रहे प्राण को नेक-दिल मुस्लिम। फिल्म "शान" में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर हिंदू संत की वेशभूषा में जनता को ठगते, तो अब्दुल नामक किरदार को ईमानदार व्यक्ति के रूप में दिखाया गया हैं। वर्ष 1996 में महिला समलैंगिकता पर फिल्म "फायर" आई थी, जिसमें शाबाना आज़मी और नंदिता दास मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म में इन दोनों किरदारों के नाम "सीता" और "राधा" था। विवाद के बाद सीता का नाम नीता कर दिया गया। वर्ष 2012 में अक्षय कुमार अभिनीत "राउडी राठौर" में खलनायक "बापजी" (अभिनेता नास्सर) को गौमूत्र का सेवन करते हुए दिखाया गया है। वर्ष 2015 में आई सलमान खान की "बजरंगी भाईजान" में पाकिस्तानी जनता, मौलवी और पुलिस को मानवता की प्रतिमूर्ति, तो रसिका (करीना कपूर) के पिता दयानंद (शरत सक्सेना) को मुस्लिम विरोधी हिंदू ब्राह्मण के रूप में दिखाया गया है। 2017 में आई "टॉयलेट- एक प्रेमकथा" में घर के भीतर शौचालय का सर्वाधिक विरोध करने वाला व्यक्ति- तिलकधारी, गेरूआधारी और जनेऊधारी ब्राह्मण होता है। सितंबर 2019 में आई "मरजावां" फिल्म में खलनायक "विष्णु" की भूमिका निभा रहे अभिनेता रितिश देशमुख पूरी फिल्म में लंबा तिलक लगाए दिखाए गए है, जो कश्मीरी मुस्लिम "जोया" (तारा सुतारिया) की मौत का कारण बनते है। हिंदू-विरोधी अभियान बॉलीवुड फिल्मों तक सीमित नहीं है। हाल के वर्षों में सरकारी नियंत्रण मुक्त ओटीटी मीडिया सर्विस पर रिलीज हुई "बुलबुल", "पताल लोक", "कृष्णा एंड हीज लीला", "घोल", "सेक्रेड गेम्स" और "लीला" जैसी दर्जनों वेब सीरीज में भी चयनात्मक रूप से देश, भारतीय सेना की छवि के साथ सनातन संस्कृति को कलंकित करने का प्रयास किया गया है। फिल्म "गुंजन सक्सेना" भी ऐसे ही एक कारण से विवादों में है। दुबई संचालित अंडरवर्ल्ड से बॉलीवुड का नाता किसी से छिपा नहीं है। 1985 में फिल्म "राम तेरी गंगा मैली" से बॉलीवुड में कदम रखने वाली मन्दाकिनी, जिनका वास्तविक नाम यास्मीन जोसेफ है- उनकी 1993 मुंबई बम धमाके का मास्टरमाइंड आतंकवादी दाउद इब्राहिम से निकटता, पाकिस्तानी अभिनेत्री अनीता अयूब को काम नहीं देने पर भारतीय निर्देशक की दाउद गुर्गों द्वारा हत्या, 1997 में हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध निर्माता गुलशन कुमार को निर्ममता के साथ गोलियों से भूनकर मौत के घाट उतारना और 2002 में अभिनेत्री मॉनिका बेदी का आतंकवादी अबू सलेम के साथ पुर्तगाल के लिस्बन में इंटरपोल द्वारा पकड़ा जाना- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसके अतिरिक्त सलमान खान, संजय दत्त, फरदीन खान, अनिल कपूर, अर्जुन रामपाल, अनू मलिक आदि फिल्म-हस्तियों पर अंडरवर्ल्ड से संबंधों को लेकर तरह-तरह आरोप है। आतंकवादियों से बॉलीवुड की निकटता ऐसी है कि "ब्लैक फ्राइडे", "कंपनी", "वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई दोबारा", "डी-डे" जैसी हिंदी फिल्मों में दाउद इब्राहिम का महिमामंडन किया गया है। 1993 मुंबई बम धमाके में आरडीएक्स विस्फोटक की आपूर्ति करने वाले अब्दुल लतीफ का 2017 में शाहरूख खान अभिनीत फिल्म "रईस" में यशगान है। उसी वर्ष दाउद इब्राहिम की बहन हसीना पारकर पर बनी फिल्म भी आई, जिसमें अभिनेता शक्ति कपूर की सुपुत्री श्रद्धा कपूर ने मुख्य भूमिका निभाई है। निसंदेह, "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के बिना स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना बेमानी है। लिखना, पढ़ना, बोलना और विभिन्न विचारों के प्रकटीकरण की आज़ादी ही इस जीवनमूल्य की ऑक्सीजन है। यदि वही प्राणरक्षक ऑक्सीजन दूषित हो जाएं, तो लोकतंत्र का अधिक समय तक स्वस्थ रहना असंभव है। दशकों से स्वतंत्र भारत इस रुग्ण रोग से ग्रस्त है।