कल 15 अगस्त है और खंडित भारत अपना 74वां स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। परंतु खेद है कि सात दशक बाद भी यह आज़ादी अधूरी है और चिंता का विषय यह है कि वह अपूर्ण स्वतंत्रता आज खतरे में है। हमारी सीमाएं सुरक्षित नहीं है। देश के विभिन्न हिस्सों- विशेषकर कश्मीर और 82 नक्सल प्रभावित जिलों में सामान्य नागरिक अपने मौलिक अधिकारों से वंचित है। पांच लाख कश्मीर पंडित अब भी अपने मूल निवासस्थान पर लौट नहीं पाए है। देश के कई भागों में- विशेषकर कश्मीर और नक्सली क्षेत्रों में साधारणजन अपनी पसंद के राजनीतिक दल में काम करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। पिछले कुछ समय में अनेकों कश्मीरी मुस्लिम नेताओं को इस्लामी आतंकवादियों ने इसलिए मौत के घाट उतार दिया, क्योंकि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में अपना विश्वास जताया था। यही स्थिति केरल और पश्चिम बंगाल की भी है, जहां राजनीतिक और वैचारिक विरोधियों की हत्या और दमन का काला इतिहास है। गत वर्ष ही छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने भाजपा विधायक भीमा मंडावी को मौत के घाट उतार दिया। इसके अतिरिक्त, गरीबों की आर्थिक स्थिति का लाभ उठाकर आज भी धनबल और धोखा देकर मतांतरण किया जा रहा है। यह ठीक है कि कुछ क्षेत्रों में परिवर्तन की बयार बहने लगी है। वंचितों और गरीबों को स्वाधीन भारत के सामान्य नागरिकों की भांति लाभ मिलने लगा है। उज्जवला योजना के अंतर्गत आठ करोड़ महिलाओं को मुफ्त एलपीजी रसौई गैस का कनेक्शन दिया गया है। जनधन योजना में 40 करोड़ लोगों का निशुल्क बैंक खाता खोलकर उसमें विभिन्न परियोजनाओं के लिए उनके खातों में सीधा कुल 1.30 लाख करोड़ रुपये जमा किए गए है। किसान सम्मान निधि योजना के तहत 8.5 करोड़ किसान के बैंक खातों में दो हजार रुपये की छठी किश्त- अर्थात् 17 हजार करोड़ रुपये भेजी गई है। साथ ही ग्रामीण आवासीय योजना के अंतर्गत, 1.58 लाख करोड़ की लागत से 1.12 करोड़ घर बनाए गए है। यह आंकड़े भले ही प्रभावित करते हो। किंतु क्या यह देश की स्थिति को बदलने के लिए काफी है? देश के समक्ष खड़ी समस्याओं के लिए गुणवत्ताहीन शिक्षा जिम्मेदार है। आज देशभर में 15 लाख सरकारी विद्यालय है, जिसमें 26 करोड़ से अधिक बच्चे पढ़ते है। सुनने में यह संख्या प्रभावी लगती है। किंतु जमीनी सच्चाई इसके उलट है। देश में चार लाख से अधिक स्कूल ऐसे है, जहां कुल विद्यार्थी या तो 50 है या फिर शिक्षक ही केवल 2 है। ग्रामीण क्षेत्र के अधिकांश विद्यालयों के लिए समुचित भवन, फर्नीचर, अन्य आवश्यक सुविधाओं और योग्य शिक्षकों का भारी आकाल है। परिणामस्वरूप, विद्यालयों से पढ़कर बाहर निकलने वाले प्रतिवर्ष लगभग 1.25 करोड़ विद्यार्थियों में से एक बड़ा हिस्सा बेरोजगारों की फौज में शामिल हो जाता है और प्रतिस्पर्धी-तकनीक के दौर में किसी कौशल रोजगार के लायक भी नहीं रहता। स्वास्थ्य भी देश का एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र है। मेरा मानना है कि इस ओर सरकारी-प्रशासकीय सोच विकृत रही है। स्वतंत्र भारत में एलोपैथी प्रणाली से रोगियों को स्वस्थ करने पर बल दिया गया है। पूरा जोर बीमारी के उपचार करने पर है, बजाय इसके कि वह बीमार हो ही ना। आवश्यकता थी कि योग, आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के संयोजन पर विशेष काम किया जाएं। मोदी सरकार द्वारा इस दिशा में 21 जून 2015 से सदियों पुराने योग को अंतरराष्ट्रीय दर्जा दिलाकर विश्व में भारतीय आध्यात्मिक और प्राचीन चिकित्सा पद्धति के उपयोग को रेखांकित किया है। यह केवल शुरूआत है, अभी इस ओर काफी करना शेष है। आवश्यकता इस बात की भी है कि आवंटित बजटीय राशि के विभागीय क्रियान्वयन और नैतिक व्यवहार में ईमानदार बरती जाएं। हमारी सनातन संस्कृति और बहुलतावादी परंपरा अस्पृश्यता, दहेज-प्रथा, बाल-विवाह और कन्या-भ्रूण हत्या जैसी बुराइयों को समाज में कोई स्थान नहीं देती है। फिर भी यह कुप्रथाएं भारतीय समाज को भीतर से दीमक की भांति खा रही है। क्या इनसे मुक्ति पाए बिना हमारी आज़ादी पूरी कही जा सकती है? भारत की सीमा (जल सहित) पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश सहित नौ देशों से मिलती है। पाकिस्तान, जो 14 अगस्त 1947 से पहले भारत का हिस्सा था और वहां के लोग या उनके पूर्वज स्वयं को भारतीय कहते थे- वह पिछले 73 वर्षों से "काफिर-कुफ्र" दर्शन से प्रभावित होकर खंडित भारत और हिंदुओं की मौत की दुआ मांग रहे है। साम्यवादी चीन, जिसका साम्राज्यवादी चरित्र उसे कुटिल पड़ोसी बनाता है- वह 1950 के दौर से भारतीय सीमाओं पर गिद्धदृष्टि रख रहा है। 2017 में डोकलाम विवाद के बाद इस वर्ष लद्दाख में गलवान घाटी प्रकरण- उसी चीनी कपट का विस्तारवादी रूप है। नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि देशों पर चीन वित्तपोषण के नाम उन्हे भारत के खिलाफ खड़ा करने का जाल बुन रहा है। नेपाल द्वारा भारतीय संप्रभुता में हालिया अमर्यादित हस्तक्षेप- इसका प्रमाण है। यक्ष प्रश्न है कि स्वतंत्रता के 73 वर्ष पूरे होने के बाद भी भारत उपरोक्त समस्याओं से क्यों जूझ रहा है? इसका उत्तर उस चिंतन में है, जिसने भारत और उसकी बहुलतावादी सनातन संस्कृति और उसकी कालजयी परंपराओं को कभी अंगीकार नहीं किया। आठवीं शताब्दी से इस्लामी आक्रांताओं ने "काफिर-कुफ्र" चिंतन से ग्रस्त होकर भारतीय पहचान-अस्मिता के प्रतीकों को जमींदोज किया और तलवार के बल पर हिंदू-बौद्ध-जैन-सिख जनमानस का मतांतरण करवाया। अंग्रेजों ने भौतिक रूप से भारत और उसके संसाधनों पर कब्जा जमाकर बड़े ही चतुराई के साथ सनातनी प्रज्ञा को नष्ट कर दिया और आम भारतीय के मानस पर नियंत्रण कर लिया। यह सही है कि 200 वर्षों औपनिवेशिक परतंत्रता के दौरान बहुत सारे स्वाभिमानी भारतीयों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ रोष था और वे सभी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने हेतु आतुर भी दिखे। किंतु अधिकांश के भीतर हीन भावना का जन्म हो गया, जिसने उन्हे अपनी मूल पहचान से न केवल काट दिया, बल्कि वे उससे घृणा भी करने लगे। स्वतंत्रता के 73 वर्ष होने के बाद भारतीय समाज के एक वर्ग में यह चिंतन आज भी यथावत है और प्रत्येक मामले को भारतीय दर्शन के अनुरूप देख पाने में अक्षम हो चुके है। इस रूग्ण मानसिकता से मुक्ति पाए बिना हम स्वयं को स्वतंत्र नहीं कह सकते। सत्य तो यह है कि राजनीतिक रूप से हमारी गुलामी की बेड़ियां भले ही कट गई हो, किंतु बौद्धिक और मानसिक दासता अब भी जारी है। सच तो यह है कि जिस कट्टर इस्लामी दर्शन और वामपंथी विचारधारा ने कुटिल अंग्रेजों के साथ मिलकर भारत का विभाजन करवाया, वह आज भी सक्रिय है- जिन्हे टुकड़े-टुकड़े गैंग और अर्बन नक्सल नाम से संबोधित किया जाता है। यही जमात स्वघोषित सेकुलरिस्ट राजनीतिक दलों के साथ मिलकर भारतीय समाज को फिर से तोड़ने के लिए कटिबद्ध है। जनवरी 2018 में कोरेगांव की जातीय हिंसा- जिसमें विकृत तथ्यों और गलत इतिहास की नींव पर दलितों को शेष हिंदू समाज के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। यह हाल के ही उदाहरण है। इसी वर्ष दिल्ली की मजहबी हिंसा- जिसमें नागरिकता संशोधन कानून पर भ्रम फैलाकर पहले कांग्रेस सहित वामपंथियों और मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानों को सड़कों पर उतरकर हिंसा करने हेतु भड़काया, उनके हिंदू विरोधी नारों को न्यायोचित ठहराया और पूरी तैयारी के साथ दंगाइयों ने राजधानी के उत्तरपूर्वी क्षेत्र में चिन्हित करके हिंदुओं के घरों पर हमला कर दिया। परिणामस्वरूप, सांप्रदायिक दंगे में दोनों पक्षों के कई निरपराध लोग मारे गए। विगत छह वर्षों से स्वघोषित बुद्धिजीवियों ने प्रादेशिक कानून व्यवस्था के मामले- जैसे अखलाक, जुनैद, पहलु खान आदि की भीड़ द्वारा निंदनीय हत्या को "असहिष्णुता" और मुस्लिम विरोधी मानसिकता का लबादा ओढ़ाकर शेष विश्व में भारत की बहुलतावादी छवि को कलंकित किया था। भारतीय पासपोर्ट धारक होने पर भारत के विघटन का निरंतर प्रयास करने वालों से देश को सर्वाधिक खतरा है। पिछले एक हजार वर्षों में भारत, जिसका सांस्कृतिक विस्तार कंधार से लेकर केरल और कटक तक था- उसका आकार आज कितना छोटा हो गया है, हम सभी इस दुखद सत्य से परिचित है। यह विघटन एकाएक नहीं हुआ। यदि इसके लिए विदेशी आक्रांता जिम्मेदार थे, तो देश के भीतर मीर जाफरों और जयचंदों की भूमिका भुलाई नहीं जा सकती। खंडित भारत में यह कुटिल और खतरनाक मानसिकता आज भी विभिन्न रूपों में सक्रिय है और इसके कारण हमारी स्वतंत्रता न केवल अधूरी है, अपितु इसके निरंतर खोने का भी भय बना हुआ है।