यह ठीक है कि बुधवार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों अयोध्या में राम मंदिर पुनर्निर्माण का काम शुरू हो गया, जो निकट भविष्य में बनकर तैयार भी हो जाएगा। स्वाभाविक है कि इतनी प्रतीक्षा, और संवैधानिक-न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने, के बाद अब करोड़ों रामभक्त प्रसन्न भी होंगे और कहीं न कहीं उनमें विजय का भाव भी होगा। किंतु यह समय आत्मचिंतन का भी है। आखिर स्वतंत्रता के भारत, जहां 80 प्रतिशत आबादी हिंदुओं की है, प्रधानमंत्री पद पर (2004-14 में सिख प्रधामंत्री- डॉ.मनमोहन सिंह) एक हिंदू विराजित रहा है और उत्तरप्रदेश में भी सदैव हिंदू समाज से मुख्यमंत्री बना है- वहां करोड़ों हिंदुओं को अपने मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के लिए कुछ एकड़ भूमि वापस लेने में 73 वर्षों का समय क्यों लग गया? इस्लाम का जन्म 1400 वर्ष पहले अरब में हुआ। भारतीय उपमहाद्वीप में आज हम जिस जनसंख्याकीय को देख रहे है, उसमें 95 आबादी के पूर्वज हिंदू और बौद्ध थे, जो 8वीं शताब्दी के बाद कालांतर में इस्लामी तलवार के डर से या लालच में आकर मतांतरित हो गए। इसी में से मुस्लिम समाज ने विषाक्त "दो राष्ट्र सिद्धांत" की अलगाववादी नींव पर दिसंबर 1930 में इस्लाम के नाम पर अपने लिए अलग देश मांग लिया, तब केवल 17 वर्ष के भीतर उन्हे भारत का एक चौथाई भूखंड- पाकिस्तान के रूप में मिल गया। इस दौरान अगस्त 1946 में मुस्लिम लीग द्वारा कलकत्ता (कोलकाता) में हिंदुओं के नरंसहार की पटकथा लिख दी गई। इस घटना से बाद भड़के सांप्रदायिक दंगे में दोनों पक्षों के बहुत बड़ी संख्या में लोग मारे गए। रक्तरंजित विभाजन से पहले पाकिस्तान की मांग करने वाले सभी मुसलमान क्या पाकिस्तान चले गए थे? नहीं। स्वाधीनता से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम समाज का लगभग 95 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान के लिए आंदोलित था। किंतु जब 14 अगस्त 1947 में यह इस्लामी देश अस्तित्व में आया, तब कुछ मुस्लिम नेता भारत में ही रह गए, जिनमें से अधिकतर कालांतर में कांग्रेस से जुड़ गए। बेगम एजाज रसूल- मुस्लिम लीग के उत्तरप्रदेश प्रांत की नेत्री थी, जो न केवल संविधान सभा की सदस्य चुनी गई, साथ ही 1969-70 और 1970-71 में उत्तरप्रदेश की कांग्रेस सरकार में मंत्री भी बनीं। मुस्लिम लीग के नेता रहे ताहिर मोहम्मद और तज्मुल हुसैन स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा के सदस्य बने और कांग्रेस के लोकसभा सांसद रहे। इसी तरह, दो राष्ट्र सिद्धांत के समर्थक मोहम्मद सादुल्लाह- जो स्वतंत्रता से पहले असम के मुख्यमंत्री थे, वे संविधान प्रारूप समिति के सदस्य बने। पीरपुर के राजा सैयद अहमद महदी, 1957-62 और 1962-67 कांग्रेस सांसद रहे। सैयद बदरुद्दजा, जो बंगाल मुस्लिम लीग के नेता के रूप में पाकिस्तान आंदोलन में सक्रिय थे, जिनके जिहादी विचारों से पं.नेहरू भी परिचित थे- वे भी भारत में विधायक और सांसद बने। सुल्तान सलाहुद्दीन औवेसी, जो अन्य रजाकरों की भांति स्वतंत्रता के समय हैदराबाद के भारत में विलय का विरोध कर रहे थे- वे भी भारत में रुके रहे, सांसद बने और आज उनके वशंज असदुद्दीन ओवैसी वर्तमान मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते है और राम मंदिर के सबसे बड़े विरोधियों में से एक है। यह "सेकुलर" भारत की असली तस्वीर है, जो "सेकुलरिज्म" के नाम पर अयोध्या में राम मंदिर के विरुद्ध झंडा बुलंद किए हुए है। क्या इनके कांग्रेस में घुसपैठ के कारण राम मंदिर का मामला दशकों तक लटका रहा? स्वतंत्रता मिलने के बाद असंख्य रामभक्तों को अपेक्षा थी कि जैसे सरदार पटेल के नेतृत्व में स्वतंत्रता के पश्चात सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ, वैसे ही अयोध्या, काशी, मथुरा सहित अन्य ऐतिहासिक अन्यायपूर्ण कृत्य का परिमार्जन भी राजनीतिक रूप से होगा। एक अनुमान के अनुसार, खंडित भारत में 3,000 ऐसे ऐतिहासिक मंदिर है, जिन्हे इस्लामी आक्रमणकारियों ने "काफिर-कुफ्र" दर्शन से प्रभावित होकर जमींदोज कर दिया था और उसके स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर थी। यह सभी ढांचे इबादत के लिए नहीं, अपितु आक्रांताओं के इस्लामी विजय स्तंभ थे, जो विजितों को नीचा दिखाने के लिए खड़े किए गए थे। स्मरण रहे कि इन पूजास्थलों के विध्वंस के पीछे इस्लामी राजनीतिक संदेश निहित था, जिसका समाधान भी राजनीतिक रूप से होना चाहिए था। परंतु ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि पं.नेहरू की छत्रछाया में सांस ले रहे स्वतंत्र भारत में प्राचीन संस्कृति के गौरव और उसके प्रतीकों की बात करना- सांप्रदायिक और पिछड़ेपन की निशानी थी। पं.नेहरू का वामपंथी चिंतन से निकटता- इसे स्वाभाविक भी बनाता है। सच तो यह है कि यदि सरदार पटेल नहीं होते, तो सोमनाथ मंदिर का विषय भी राम मंदिर की भांति विवादित बना होता। गुजरात स्थित काठियावाड़ में अरब सागर के तट पर स्थापित विश्वप्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर- 12 ज्योर्तिलिंगों में सर्वप्रथम है। स्वतंत्रता पश्चात सरदार पटेल द्वारा इसके पुनरुद्धार से पहले यह प्राचीन मंदिर- आठवीं शताब्दी में अरब आक्रांता जुनैद इब्न अब्द अल-रहमान अल-मुर्री, 1026 में महमूद गजनवी, 1299 में अलाउद्दीन खिलजी, 1395 में ज़फर खान, 1451 में महमूद बेगादा और 1665 में औरंगजेब के जिहादी हमले का शिकार हुआ है। सरदार पटेल से पहले सोमनाथ मंदिर का हिंदू शासकों- राजा नागभट्ट, राजा भीम, राजा भोज आदि द्वारा बार-बार जीर्णोद्धार किया जा चुका है। पं.नेहरू की सुपुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा नीतिगत रूप से वामपंथी चिंतन को आत्मसात करने के बाद कांग्रेस का दृष्टिकोण अयोध्या मामले में और अधिक विकृत हो गया। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र, जीवनमूल्यों और विरासत को क्षत-विक्षत किया जाने लगा। 1976-77 में विवादित ढांचे के नीचे विशाल राम मंदिर के अवशेष होने संबंधी भारतीय पुरातात्विक उत्खनन रिपोर्ट सामने आई, तब उसे छिपाकर मुस्लिम समाज को भ्रम से बाहर नहीं आने दिया। परिणामस्वरूप, कांग्रेस नीत संप्रगकाल के दौरान सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा देकर राम को काल्पनिक चरित्र बता दिया गया। यह हास्यास्पद है कि आज वही कांग्रेस श्रीराम का नाम जप रही है। राम-मंदिर का विरोध करने वाले अक्सर श्रीराम के अयोध्या में जन्म लेने का साक्ष्य मांगते है। यह उस सनातन संस्कृति विरोधी मानसिकता का विस्तृत रूप है, जिसमें श्रीराम के सहयोगी श्रीहनुमान की उड़ने की क्षमता और हिंदुओं की गौसेवा का भी उपहास किया जाता है। क्या ऐसा दुस्साहस ईसा मसीह के जन्म के संदर्भ में श्रीराम विरोधी कुनबे ने किया, जो कुंवारी मरियम की कोख से पैदा हुए थे? इस्लामी मान्यताओं के अनुसार, अपने जीवनकाल में पैगंबर साहब बुर्राक नामक घोड़े पर उड़कर मक्का से येरुशलम गए और वही से उन्होंने आसामान की भी सवारी की थी। क्या इस संबंध में इस कुनबे ने कोई प्रमाण मांगा? यह सभी आस्था के विषय है और इस संबंध में किसी भी प्रकार का साक्ष्य मांगना- संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राम मंदिर भूमिपूजन में शामिल होने और उसके दूरदर्शन और आकाशवाणी पर प्रसारण पर भी वामपंथियों और तथाकथित सेकुलरवादियों ने आपत्ति जताई है। यह स्थिति तब है, जब 21 मार्च 1980 को दारुल-उलूम-देवबंद के शताब्दी समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी न केवल शामिल हुई थीं, साथ ही उस कार्यक्रम का दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण भी किया गया था। सच तो यह है कि कांग्रेस-वामपंथी कुनबे के लिए देश का सेकुलरिज्म उसी समय सुरक्षित होता है- जब देश का प्रधानमंत्री या अन्य मंत्री विशेष टोपी पहनकर राष्ट्रपति भवन में या फिर किसी अन्य स्थान पर सरकार द्वारा वित्तपोषित इफ्तार की दावत में शामिल हो। हज यात्रियों को सरकारी सब्सिडी मिले। मौलवियों-मुअज्जिनों को मासिक वेतन और ननों को सरकार पेंशन दें। अर्थात्- एक हिंदू प्रधानमंत्री का इस्लाम-ईसाइयत संबंधित मजहबी कार्यक्रमों में शामिल होना और उन्हे सुविधा देना, सेकुलरवाद का प्रतीक है, किंतु उसी प्रधानमंत्री का किसी भी हिंदू कार्यक्रमों में शामिल होना- सांप्रदायिक है। क्यों? क्या अयोध्या में राम मंदिर के पुनर्निर्माण के साथ रामभक्तों के सतत संघर्ष पर विराम लग जाएगा? नहीं। भौतिक संघर्ष में भले ही 494 वर्ष पश्चात करोड़ों रामभक्त विजयी हुए हो, किंतु वैचारिक द्वंद अब भी जारी है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे शैक्षणिक संस्थाओं में एकत्र वाम-जिहादी मंडली संजीदगी के साथ मनगढ़ंत कुतर्कों, झूठ और मिथ्या के आधार पर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का चरित्रहनन कर रही है। ...जारी