Amar Ujala 2020-08-05

श्रीराम की प्रासंगिकता

आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रीरामजन्मभूमि अयोध्या पर भव्य राम मंदिर पुनर्निर्माण का शुभारंभ किया, तब 492 वर्षों से चला आ रहा सतत् सांस्कृतिक संघर्ष- निर्णायक बिंदु की ओर अग्रसर हो गया। छह दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचे का विध्वंस, और आज का आयोजन, अपने भीतर उस सभ्यतागत युद्ध को समेटे हुए है, जिसकी शुरूआत 712 में इस्लामी आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर आक्रमण के साथ की थी। श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति हेतु शताब्दियों तक चला संघर्ष ना तो भूमि के टुकड़े के स्वामित्व के लिए था और ना ही इस्लाम के खिलाफ युद्ध का हिस्सा। जिस आक्रोशित भीड़ ने बाबरी ढांचे को जमींदोज किया, उसने उस दिन अयोध्या-फैजाबाद क्षेत्र में किसी भी मस्जिद या मुसलमान को छुआ तक नहीं। सच तो यह है कि बाबरी ढांचा इबादत के लिए बनाई गई मस्जिद ना होकर "काफिर-कुफ्र" की अवधारणा से प्रेरित मुगल आक्रांता बाबर द्वारा विजितों की सांस्कृतिक पहचान और अस्मिता को समाप्त करने का उपक्रम था। भारत में पूजा पद्धति के प्रश्न पर हिंसा की नहीं, अपितु शास्त्रार्थ की परंपरा है। सैंकड़ों वर्ष पूर्व, कैथोलिक चर्च द्वारा प्रताड़ित सीरिया के स्थानीय ईसाइयों को भारत के तत्कालीन हिंदू राजाओं ने केरल में शरण दी और आज उन्हे सीरियाई ईसाई कहा जाता है। आठवीं शताब्दी में इस्लामी शासकों की मजहबी यातनाओं से त्रस्त होकर जब पारसी ईरान से भारत में सुरक्षा की खोज में आए, तब तत्कालीन गुजरात के हिंदू राजा ने उन्हे पनाह दी। इसी तरह, पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवनकाल (570-632) में अरब के बाहर बनी विश्व की पहली मस्जिद- "चेरामन जुमा" वर्ष 629 में केरल के कोडुंगल्लूर बंदरगाह के निकट तत्कालीन हिंदू राजा पेरुमल भास्करा रविवर्मा ने बनवाई थी। श्रीरामजन्मभूमि विवाद मंदिर-मस्जिद का है ही नहीं। यह सांस्कृतिक मूल्यों और ध्वस्त प्रतीकों की पुनर्स्थापना का संघर्ष है। श्रीराम उन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते है, जो भारत में श्रेष्ठ है और शेष विश्व के लिए शुभ। मीर बांकी ने 1528 में राम मंदिर को नष्ट किया, तो उसी जिहादी चिंतन ने सफेद झूठ और अर्द्ध-सत्य का सहारा लेकर श्रीराम की छविभंजन का कुप्रयास किया। श्रीराम भारत की पहचान के केंद्रबिंदु है और उनका चरित्रहनन भारत के सांस्कृतिक अस्तित्व पर प्रहार। श्रीराम को पिछड़ा, आदिवासी, दलित और स्त्री विरोधी के रूप में प्रस्तुत किया गया। इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदासजी की चौपाई:- ढोल गवांर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।- का दुरुपयोग होता है। गोस्वामीजी ने रामकथा को अपने शब्दों में गढ़ा। इस कथा के पात्र अपने-अपने संवाद कहते है। रावण अक्सर राम, सीता और हनुमान के लिए अपशब्दों का प्रयोग करता है। क्या किसी भी नाटक/कहानी में बोले जाने वाले संवाद, लेखक या जिस समाज से उसका संबंध है- उसपर चिपका सकते है? परंतु जिहादी मानसपुत्रों ने इस चौपाई के साथ ठीक यही किया है। इस चौपाई में शब्द ना तो श्रीराम के है और ना ही किसी और चरित्र के- जिन्हे हिंदू समाज वंदनीय मानता है। यह शब्द एक भयभीत सागर के है। श्रीराम के जन्म का उद्देश्य उस दुराचारी रावण का वध है, जो पुलस्त्य कुल का विद्वान ब्राह्मण हैं, परंतु आचरण और कर्मों से राक्षस हैं। इंद्रपुत्र जयंत काक रूप धारण कर वासना और कामुकता के प्रभाव में सीता को स्पर्श करता है। दंडस्वरूप श्रीराम उसे एक आंख से अंधा कर देते है। सोने की लंका दुराचार और पाप का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए जला दी गई। श्रीराम के चिंतन में व्यक्ति का सम्मान उसके आचरण और चरित्र से होता है, उसके वैभव, कुल या जाति से नहीं। श्रीराम यदि अयोध्यावासियों के प्रिय है, तो वनवासी भी मुक्त ह्द्य से उनका स्वागत करते है। जीवन के सबसे कठिन काल में श्रीराम के मित्र और सलाहकार केवट, निषाद, कोल, भील, किरात, वनवासी, वानर और भालू हैं। सीताहरण के पश्चात श्रीराम को सहायता की आवश्कता है। तब वे अपने स्वाजातिय बंधुओं के स्थान पर, आज के संदर्भ में जिन्हे वनवासी, आदिवासी, पिछड़ा या अति-पिछड़ा कहा जाता है, उन्हे अपना साथी बनाते है। इन सबके लिए श्रीराम ने बार-बार "सखा" शब्द का उपयोग किया है। श्रीराम को वनवासी हनुमान, लक्ष्मण से भी अधिक प्रिय है- "सुनु कपि जियं मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥ शबरी के झूठे बेर ग्रहण करने में श्रीराम संकोच नहीं करते। यहां शबरी का पिछड़ापन दोहरा है। वह स्त्री और आदिवासी- दोनों है। श्रीराम के लिए स्त्री पूज्य है। बालि और रावण वध इसका प्रमाण है, जिसके केंद्र में स्त्री के आत्म-सम्मान और शालीनता की रक्षा निहित है। श्रीराम का स्नेह केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं है। उन्होंने गिद्धराज जटायु को उसके कर्मों से देखा और उन्हे पिता की प्रतिष्ठा देते हुए उनका अंतिम-संस्कार किया। संभवत: श्रीराम के समदर्शी चरित्र को ध्यान में रखकर ही रामायण कथा का वर्णन तुलसीजी ने काक से करवाया, न कि मयूर, कोयल या हंस के मुख से। काक को निम्न श्रेणी का पक्षी माना जाता है। महर्षि वाल्मिकी रामकथा के आदि गायक है और उनके परिचय में तीनों संज्ञाओं- व्याध, ब्राह्मण और शूद्र का उपयोग होता है। मुनि वाल्मिकी को जाति में बांधा नहीं जा सकता। श्रीराम की महिमा गाते-गाते वह भी स्वयं भगवान हो चुके है। श्रीराम सुख-दुख की चिंता किए बिना कर्तव्य मार्ग पर चलते है। उनका आचरण कर्म को महत्व देता है, जन्म-जाति की उपेक्षा करता है। राम का व्यक्तित्व नगर-वन, वर्ण-वर्ग, लिंगभेद और जड़-चेतन की सीमाओं को पार करने वाला है। अर्थात्- सर्वजन का कल्याण करने वाला है।