विगत दिनों कांग्रेस की राजस्थान ईकाई में आए झंझावत ने पार्टी के अस्तित्व पर पुन: प्रश्नचिन्ह लगा दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि 140 वर्ष पुराना राजनीतिक दल आज इच्छामृत्यु मानसिकता से ग्रस्त है। दीवार पर लिखी इस इबारत को पढ़कर कोई भी व्यक्ति (कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व- गांधी परिवार को छोड़कर) आसानी से इस नतीजे पर पहुंच सकता है। वास्तव में, कांग्रेस में संकट केवल नेतृत्व का ही नहीं है। पार्टी के तीव्र क्षरण में कांग्रेस नेतृत्व की खोटी नीयत और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर नीतियों के नितांत अभाव का भी सामान योगदान है। यदि किसी दल में नेतृत्व का टोटा हो, नीयत में कपट हो और नीतियों में भारी घालमेल हो- तो स्वाभाविक रूप से उस दल का न तो वर्तमान है और न ही कोई भविष्य। कांग्रेस में नेतृत्व का मापदंड केवल नेहरू-गांधी परिवार की क्षमता तक सीमित है। यदि किसी प्रतिभावान नेता में पार्टी नेतृत्व की प्रचंड संभावना दिखती है, तब परिवार और उसके निष्ठावानों को उसमें एकाएक खतरा नजर आने लगता है। इस स्थिति में वह व्यक्ति या तो हाशिए पर भेज दिया जाता है या उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है या फिर उसकी अकाल मृत्यु हो जाती है। ज्योतिरादित्य सिंधिया का कांग्रेस छोड़ना, सचिन पायलट की नाराज़गी और वर्षों पहले इन दोनों नेताओं के पिता क्रमश: माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट की आकस्मिक मृत्यु होना- स्वतः व्याख्यात्मक है। क्या कांग्रेस में नेतृत्व के लिए योग्यता और अनुभव की आवश्यकता है? 1998 में श्रीमती सोनिया गांधी, कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण करने के 62 दिन पश्चात पार्टी की अध्यक्ष बन गई थी। क्या उस समय उनके पास किसी प्रकार का कोई राजनीतिक अनुभव था? ठीक इसी प्रकार उनके पुत्र राहुल गांधी 2004 में राजनीति में आए और कांग्रेस की तत्कालीन सबसे सुरक्षित सीटों में से एक अमेठी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर पहली बार संसद पहुंचे। पार्टी के भीतर अनुभवी नेताओं के रहते राहुल गांधी 2007 में पार्टी महासचिव, 2013 में पार्टी उपाध्यक्ष, तो 2017 पार्टी अध्यक्ष बनाए गए। वही प्रियंका वाड्रा का राजनीति में औपचारिक प्रवेश जनवरी 2019 में बतौर कांग्रेस महासचिव के रूप में हुआ। अर्थात्- इन सभी की योग्यता और अनुभव का मापदंड केवल एक परिवार का सदस्य होना रहा। नेतृत्व के संकट से जूझती कांग्रेस में नीतियों के नाम पर बदलते हुए जुमले और समय-समय पर परिवर्तन होने वाले केवल नारे है। इसका कारण परिवारवाद से ग्रस्त कांग्रेस का वैचारिक अधिष्ठान-विहीन होना है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से कांग्रेस पर जिस वंश का वर्चस्व है, वह स्वयं को "गांधीवाद" (गांधीजी) का एकलौता वारिस होने का दावा करता है। किंतु पिछले कुछ दशकों में कांग्रेस के "गांधीवाद" में भयंकर घालमेल हुआ है। अर्थात्- बाहरी मुखौटा तो गांधी दर्शन का है, किंतु आंतरिक चरित्र- वंशवाद से जनित विशुद्ध अवसरवादी, राष्ट्र/हिंदू विरोधी और वामपंथी है। वर्ष 1948 में गांधीजी की नृशंस हत्या के बाद से कांग्रेस ने गांधीजी के चेहरे को सामने तो बनाए रखा, किंतु उनके सनातन चिंतन से संबंध पूरी तरह 1969 में तब तोड़ लिया, जब कांग्रेस के आंतरिक कलह के कारण संकट में फंसी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी अल्पमत सरकार बचाने के लिए उन वामपंथियों का सहारा ले लिया- जिनके वैचारिक चिंतन ने पाकिस्तान के जन्म में दाई की भूमिका निभाई, गांधीजी सहित कई स्वतंत्रता सेनानियों को अपशब्द कहे, स्वतंत्र भारत को कई राष्ट्रों का समूह माना, 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद में रजाकारों की मदद की, 1962 के युद्ध में चीन का समर्थन किया और वर्ष 1967 में भस्मासुर नक्सलवाद को पैदा किया। इसके अंतर्गत ही 1969 से दिल्ली में स्थापित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) को कालांतर में भारत (हिंदू) विरोधी प्रचारतंत्र के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। यह संस्थान आज भी वामपंथ का गढ़ बना हुआ है। कांग्रेस पर 1970 के दशक में वामपंथियों का ऐसा ग्रहण लगा, वह अपनी मूल गांधीवादी पहचान से स्वयं को नहीं जोड़ पा रहे है। हाल ही में कांग्रेस द्वारा आगामी पांच अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संभावित अयोध्या दौरे और वहां राम-मंदिर निर्माण के लिए होने वाली भूमि-पूजन में शामिल होने को सेकुलरवाद के खिलाफ बताना- इसका प्रमाण है। सच तो यह है कि कांग्रेस-वामपंथी कुनबे के लिए देश में सेकुलरिज्म उस समय ही सुरक्षित होता है- जब देश का प्रधानमंत्री या अन्य मंत्री विशेष टोपी पहनकर इफ्तार की दावत में शामिल हो। "सेकुलर" देश की सरकार हज यात्रियों को सब्सिडी, मौलवियों-मुअज्जिनों को मासिक वेतन और ननों को पेंशन दें। अर्थात्- एक हिंदू प्रधानमंत्री का इस्लाम-ईसाइयत संबंधित मजहबी कार्यक्रमों में शामिल होना, इस जमात के लिए सेकुलरवाद को संरक्षण देना है, किंतु उसी प्रधानमंत्री का हिंदू कार्यक्रमों में शामिल होना- सांप्रदायिक हो जाता है। क्यों? इसी घालमेलयुक्त मानसिकता ने कांग्रेस नीत संप्रगकाल (2004-14) में मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को काल्पनिक तक बता दिया था, वह भी तब, जब स्वयं गांधीजी ने देश में आदर्श समाज के लिए रामराज्य की कल्पना की थी। उसी दौर में जब सोनिया गांधी की अध्यक्षता में असंवैधानिक "राष्ट्रीय परामर्श समिति" (एन.ए.सी.) का गठन किया गया, जिसके अधिकांश सदस्य अनुभवहीन होने के साथ वामपंथी पृष्ठभूमि के थे- तब उसकी संस्तुति पर वर्ष 2011-12 में तत्कालीन मनमोहन सरकार द्वारा बहुसंख्यक विरोधी सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम (न्याय और क्षतिपूर्ति) विधेयक लाया गया, जिसके माध्यम से हिंदुओं को अपने देश में दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का षड़यंत्र रचा गया था। यह सब उसी प्रपंच का हिस्सा था, जिसमें मिथक "हिंदू/भगवा आतंकवाद" की पटकथा लिखी जा रही थी। वर्ष 2014 के आम चुनाव में मिली पराजय पर जब कांग्रेस नेता ए.के. एंटनी की रिपोर्ट सामने आई, तब उसमें कहा गया था कि पार्टी को हिंदू विरोधी छवि के कारण नुकसान उठाना पड़ा है, जिसे बदलने की कोशिश करनी चाहिए। यही कारण था कि उसके बाद आए अधिकांश चुनावों (2019 के लोकसभा चुनाव सहित) के आसपास राहुल गांधी हिंदू मंदिरों-मठों में पूजा-अर्चना करते दिखे और स्वयं को जनेऊधारी दत्तात्रेय ब्राह्मण तक बता दिया। यह बात अलग है कि 2019 के नतीजों के बाद या फिर एंटनी रिपोर्ट आने से पहले तक "शिवभक्त" राहुल गांधी किसी भी हिंदू मंदिर-मठ के दर्शन करते दिखाई नहीं दिए। कांग्रेस नेतृत्व की किंकर्तव्यविमूढ़ता का कारण उसके द्वारा दशकों पहले उधार लिया हुआ वही वामपंथी चिंतन है, जिसने उसके शीर्ष नेताओं को 2016 के जेएनयू देशद्रोह मामले में आरोपियों के साथ खड़ा कर दिया, भारतीय सैनिकों के शौर्य-क्षमता पर संदेह किया, इस्लामी आतंकियों और जिहादियों के प्रति सहानुभूति रखी, रामजन्मभूमि अयोध्या पर फैसले को लटकाने का प्रयास किया, नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019-20 का विरोध किया, भ्रामक प्रचार से मुस्लिमों को दंगे के लिए भड़काया और दिल्ली सहित देशभर हुई सीएए विरोधी मजहबी हिंसा को न्यायोचित आदि ठहराने पर बाध्य किया है। नेतृत्व और नीतिगत मोर्चे पर विफल कांग्रेस आज उस मशीनरी में परिवर्तित हो गई है, जिसमें धनबल के सहारे चुनाव जीतना और सत्ता प्राप्त होने पर अकूत धन अर्जित करना- एकमात्र उद्देश्य बन गया है। इसके अतिरिक्त, जो अन्य कार्य होते है, वे भी धन-संपदा बनाने हेतु किया जाता है। संप्रगकाल का नेशनल हेराल्ड अनियमितता मामला- इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण है। ऐसा ही एक मामला तमिलनाडु में विवादों में है, जहां 20 हजार करोड़ की संपत्ति वाले तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी ट्रस्ट में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने केशवन के साथ अपने सबसे निष्ठावान मोतीलाल वोहरा को ट्रस्टी नियुक्त किया है। देश के प्रख्यात अर्थशास्त्री और तुगलक पत्रिका के संपादक एस. गुरुमूर्ति के अनुसार, यह सब नेशनल हेराल्ड अनियमितता-2 की शुरुआत है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ विपक्ष का होना अत्यंत आवश्यक है। परंतु जबतक कांग्रेस में नेतृत्व, नीति और नीयत का संकट बना रहेगा, तबतक कांग्रेस का सत्ता में आना तो दूर, उसके लिए मजबूत विपक्ष की भूमिका भी निभाना- बहुत कठिन है।