देश का एक और बैंक- येस बैंक गलत कारणों से सार्वजनिक विमर्श में है। केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने समय रहते इस बैंक को अपने नियंत्रण लेकर जमाकर्ताओं का पैसा न केवल डूबने से बचा लिया, साथ ही भारतीय बैंकिंग प्रणाली में जनता का विश्वास बनाए रखा है। यही नहीं, खाताधारकों और निवेशकों के गाढ़ी कमाई का बंदरबांट कर एक बार विदेश भाग चुके येस बैंक के सह-संस्थापक राणा कपूर को बहाने से देश बुलाकर गिरफ्तार कर लिया। यक्ष प्रश्न है कि आखिर देश के चौथे सबसे बड़े निजी बैंक के रूप में स्थापित- येस बैंक इस स्थिति में क्यों पहुंचा? क्या यह सार्वजनिक उपक्रम बनाम निजी क्षेत्र से संबंधित मामला है? वर्ष 2004 से संचालित, 18 हजार कर्मचारी और 21 लाख खाताधारकों वाले येस बैंक का विवादों से गहरा संबंध रहा है। 2008 में बैंक के स्वामित्व को लेकर खड़े हुए संकट ने धीरे-धीरे बैंक प्रबंधन की जड़ें खोखली कर दीं और अगस्त 2018 आते-आते यह बैंक हजारों करोड़ के गैर-निष्पादक ऋण (नॉन परफोर्मिंग लोन- एनपीए) तले दब गया। वर्ष 2015-16 से नियामक एजेंसियों को येस बैंक अपनी एनपीए की सही स्थिति नहीं बता रहा था। यही कारण है कि वर्ष 2015-16 में बैंक का एनपीए जहां 749 करोड़ रुपये था, वह 2017 में बढ़कर 6,355 करोड़ रुपये हो गया और वर्तमान समय में यह 42,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। वास्तव में, इस स्थिति का सबसे बड़ा कारण धड़ल्ले से येस बैंक द्वारा उन कंपनियों को मोटा कर्ज बांटना रहा, जो उसे लौटाने की स्थिति में ही नहीं थे। केंद्रीय बैंक आरबीआई को जब वित्तीय अनियमितता की जानकारी मिली तो उसने राणा को अक्टूबर 2018 में पद से हटाने का आदेश दे दिया। इस घोटाले के सूत्रधार रहे राणा कपूर और उसके परिवार की देश-विदेश स्थित संपत्तियों की जांच की जा रही है, जिसमें दिल्ली के पॉश इलाके अमृता शेरगिल मार्ग स्थित 1.2 एकड़ में फैला 380 करोड़ के बंगले पर जांच एजेंसियों की नजर है। बकौल मीडिया रिपोर्ट्स, यह बंगला पहले गौतम थापर का था, जिसने येस बैंक से 600 करोड़ रुपये का कॉर्पोरेट कर्ज लिया था और उसके बदले इस बंगले को गिरवी रखा गया था। थापर इस बंगले को बेचकर अपना बैंक का कर्ज चुकाना चाहता था, तब राणा की पत्नी के नाम पर फर्जी कंपनी खड़ी की गई और कालांतर में एक फर्जी प्रक्रिया को अपनाते हुए इस बंगले को राणा ने अपने नाम कर लिया। बात केवल यहां तक सीमित नहीं है। एक अन्य खुलासे के अनुसार, येस बैंक ने राणा कपूर के निर्देश पर एक वित्तीय कंपनी को 3,700 करोड़ का कर्ज दिया था। जब कंपनी कर्ज की राशि लौटाने में विफल रही, तब कंपनी की ओर से राणा की बेटियों के नाम पर बनी फर्जी कंपनी ड्यूट अर्बन वेंचर्स को 600 करोड़ रुपये दिए गए और नाटकीय घटनाक्रम के बाद बैंक ने इस पूरे कर्ज को एनपीए में डाल दिया। अब सवाल उठता है कि जब यह फर्जीवाड़ा हो रहा था, तब देश की वित्तीय नियामक संस्थाएं क्या कर रही थी? आर्थिक संकट से घिरने में वाला येस बैंक- देश का पहला या एकमात्र बैंक नहीं है। निजी बैंक आईसीआईसीआई बैंक के पूर्व सीईओ चंदा कोचर पर बैंक नियमों का उल्लंघन करते हुए 2012 में एक निजी कंपनी और अपने परिवार को लाभ पहुंचाने का मामला चल रहा है। येस बैंक की भांति पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक (पीएमसी) पर भी आरबीआई ने गत वर्ष कार्रवाई कर चुकी है। इसी तरह, सितंबर 2018 में निजी बंधन बैंक पर अदालत ने नई शाखा खोलने पर प्रतिबंध लगा दिया था। बैंकों से जुड़े जिन मामलों की जांच हो रही है, उसमें पंजाब नेशनल बैंक (पी.एन.बी.) से कर्ज लेकर फरार उद्योगपति नीरव मोदी का घोटाला, विजय माल्या बैंक घोटाले आदि जैसे दर्जनों मामलों की जांच शामिल है। स्वतंत्र भारत में बैंकिंग व्यवस्था का इतिहास क्या रहा है? एक रिपोर्ट के अनुसार, 1947 से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे बैंक डूब गए थे। 19 जुलाई 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक अध्यादेश जारी करके देश के 14 प्रमुख बैंकों का पहली बार राष्ट्रीयकरण किया था। 1980 में भी पुनः छह बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे। इस पूरी प्रकिया के बाद बैंकों की शाखाओं में एकाएक बढ़ोतरी हुई। नगरों से उठकर बैंक गांव-देहात में पहुंच गए। आंकड़ों के अनुसार, जुलाई 1969 को देश में बैंकों की केवल 8,322 शाखाएं थीं, जो 1994 के आते-आते 60,000 को पार कर गया और आज इनकी संख्या डेढ़ लाख से अधिक है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद उनके पास काफी मात्रा में पैसा इकट्टा हुआ, जिसे आगे बतौर कर्ज बांटा गया। वर्ष 1991 से देश में लागू उदारीकरण के बाद निजी क्षेत्र के बैंकों की संख्या में काफी वृद्धि हुई। इसका एक बड़ा कारण- कालांतर में निजी क्षेत्र के बैंकों के लिए पंजीकरण प्रक्रिया को आसान करना और सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त करना रहा। नियमों के अनुसार, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सरकार की 50 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी रहती है, जिससे राष्ट्रीयकृत बैंकों पर सरकार का पूरा नियंत्रण रहता है। वही निजी क्षेत्र के बैंकों की कमान शेयर धारकों के हाथों में होती है। ऐसे बैंक किसी न किसी निजी समूह के द्वारा ही संचालित किए जाते हैं। क्या येस बैंक संकट सरकारी बैंक बनाम निजी बैंक से संबंधित है? सच तो यह है कि यह मामला उस विकृत व्यवस्था का ज्वलंत उदाहरण है, जिसका संचालन या फिर अंतिम निर्णय लेने की शक्ति स्वार्थी, कपटी, लोभी प्रभावहीन और अक्षम व्यक्तियों के हाथों में होती है। क्या यह सत्य नहीं कि व्यक्ति का चरित्र, स्वभाव, कर्मण्यता और बुद्धिमत्ता किसी भी व्यवस्था को प्रभावित कर सकता है? वर्ष 1997 में भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के गठन पश्चात दूरसंचार क्षेत्र में निजी कंपनियों के प्रवेश का रास्ता खुला था। भारत सरकार के पास पर्याप्त संसाधन होने के बाद भी सार्वजनिक दूरसंचार सेवाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। क्या इसके लिए वे लोग (अधिकांश कर्मचारी और अधिकारी) जिम्मेदार नहीं, जिनकी अकर्मण्यता और कर्तव्य निर्वाहन से बचने के चरित्र ने सार्वजनिक दूरसंचार उपक्रम को रसातल में पहुंचा दिया? यह बात ठीक है कि दूरसंचार क्षेत्र में भारत ने काफी प्रगति की है और निजी कंपनियों में मची होड़- जनता के लिए वरदान सिद्ध हो रही है। किंतु एक सच यह भी है कि अधिकांश उपभोक्ता निजी उपक्रमों के गुणवत्ता-विहीन सेवा जैसे कॉल ड्रॉप्स की समस्या के शिकार है। इसी तरह देश के अधिकांश सार्वजनिक आवासीय प्राधिकरणों में व्याप्त भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है। गत वर्ष अगस्त में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डी.डी.ए.) ने भ्रष्टाचार में लिप्त 10 अधिकारी/कर्मचारियों को समय से पहले सेवानिवृत्त कर दिया था। आवासीय योजनाओं में निजी कंपनियों के आने से क्या इस स्थिति में कोई बदलाव आया है? इस प्रश्न का उत्तर सर्वोच्च न्यायालय में लंबित उन मामलों में निहित है, जिसमें कई निजी बिल्डरों की वादाखिलाफी और कदाचार के कारण हरियाणा, उत्तरप्रदेश सहित शेष देश के विभिन्न क्षेत्रों में करोड़ों-अरबों रुपयों के आवासीय परियोजनाएं अधर पर लटकें हुए है? राजनीतिक और कारोबारी जगत में बैठे कुछ स्वार्थी लोगों के वर्षों पुराने प्रपंच, लोभ और कपट के कारण देश के कई बैंक संकट में है। संक्षेप में कहें, तो किसी भी संस्थान का संचालन करने वालों की जनता के प्रति प्रतिबद्धता और उनकी क्षमता कितनी है, उसपर संबंधित संस्थान की सफलता निर्भर करती है- चाहे वे सरकारी उपक्रम हो या फिर निजी कंपनी। येस बैंक का हालिया आर्थिक संकट और कालांतर में निजी विमानन सेवा कंपनी- किंगफिशर, जेट एयरवेज, सहारा आदि का संचालन बंद होना- इसका जीवंत उदाहरण है। वास्तव में, येस बैंक घोटाला समाज में व्याप्त एक रोग का प्रतीक है। सभी नैतिक और लौकिक व्यवहारों को ताक पर रखकर दूसरों द्वारा अर्जित जीवनभर की कमाई पर ऐश करना और उसके बल पर देश-विदेशों में करोड़ों-अरबों रुपयों की संपत्ति खड़ी करना- क्या उचित ठहराया जा सकता है? खेद की बात तो यह है कि आज समाज में किसी का सम्मान केवल उसके आर्थिक आधार पर होता है। जबतक वे किसी कदाचार में पकड़े न जाए, तबतक उसने अकूत धन के बल पर संपत्ति कैसे बनाई- इसका संज्ञान कोई नहीं लेता है। समाज में जबतक ऐसे दूषित मापदंड रहेंगे, तबतक किसी न किसी क्षेत्र में येस बैंक जैसा घोटाला होता रहेगा।