Punjab Kesari 2020-02-14

दिल्ली विधानसभा चुनाव:- परिणाम विकास प्रेरित या सांप्रदायिक?

दिल्ली विधानसभा चुनाव क्या विकास के मुद्दों पर ही लड़ा गया या सांप्रदायिक आधार पर? इस प्रश्न का उत्तर- हां और ना दोनों में है। इस चुनाव की सच्चाई यह है कि दिल्ली के मुसलमानों ने सांप्रदायिक आधार पर एकजुट होकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को हराने के लिए वोट दिया। इसके विपरीत, हिंदू मतदाताओं के एक वर्ग ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को उनके "नए व्यक्तित्व" और उनकी सरकार की लोकलुभावन नीतियों (बिजली, पानी सहित) के कारण फिर से चुना। दिल्ली में कुल 1.48 करोड़ मतदाताओं में 12 प्रतिशत- लगभग 18 लाख से अधिक मुस्लिम मतदाता है। माना जाता है कि इस चुनाव में 90 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम मतदाताओं ने "आप" को वोट दिया। शाहीनबाग- जोकि चुनाव से पहले ही इस्लामी पहचान व अस्मिता का प्रतीक बन चुका था, जहां असम को भारत से काटने जैसी राष्ट्रविरोधी योजनाओं की रूपरेखा खींची गई- वहां से (ओखला सीट) "आप" प्रत्याशी मोहम्मद अमानातुल्ला को एकतरफा 66 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ और वोट-अंतर के संदर्भ में दूसरी सबसे बड़ी जीत दर्ज की। सीलमपुर, मटियामहल, चांदनी चौक, बल्लीमरान, बाबरपुर और मुस्तफाबाद जैसे मुस्लिम प्रभुत्व वाली सीट- जहां मुस्लिम आबादी 30-70 प्रतिशत के बीच है- वहां भी "आप" प्रत्याशियों ने 53 से 75 प्रतिशत मतों के साथ एकतरफा विजय प्राप्त की। दिल्ली की इन मुस्लिम बहुल सीटों के अतिरिक्त, अन्य सीटों की क्या स्थिति रही? सेकुलरिस्टों द्वारा दिल्ली के विकासपुरुष की संज्ञा से अलंकृत उप-मुख्यमंत्री और "आप" प्रत्याशी मनीष सिसौदिया हांफते-हांफते विजयी हुए और उनका वोट-अंतर 3,207 रहा। कई सीटों पर "आप" के मुख्य प्रतिद्वंदी भाजपा प्रत्याशियों को 40 से 47 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। दिल्ली में मुस्लिम वोटरों का भाजपा को किसी भी तरह पराजित करने और "आप" के पीछे लामबंद होने का कारण क्या रहा? इसका उत्तर मई 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में फिर से आई राजग सरकार और उसके कार्यकाल में निहित है। गत वर्ष जुलाई में देशभर में तीन तलाक विरोधी कानून लागू हुआ, अगस्त माह में अनुच्छेद 370 के संवैधानिक क्षरण और नवंबर में शीर्ष अदालत के निर्णय से राम मंदिर निर्माण को गति मिली। इन सबसे भारतीय मुस्लिम समाज के बड़े वर्ग के "विशेषाधिकार" को चुनौती मिली। उन्हे अपनी बौखलाहट को स्वर देने का अवसर दिसंबर 2019 में तब मिला, जब संसद द्वारा नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को पारित हुआ। यह जानते हुए भी कि इस कानून से किसी भी भारतीय, चाहे वे मुस्लिम ही क्यों न हो- उनकी नागरिकता प्रभावित नहीं होगी- तब भी सीएए के विरुद्ध देश-विदेश में कुप्रचार किया गया। उसी कुंठा के गर्भ से दिल्ली सहित देशभर में सीएए विरोधी हिंसा प्रारंभ हुई, तो सड़क-नाकाबंदी जैसे शाहीनबाग प्रदर्शन का जन्म हुआ। इसी संयुक्त आक्रोश ने मुस्लिम समाज को भाजपा के विरुद्ध, तो "आप" के पक्ष में लामबंद किया। क्या हिंदू समाज ने भी सांप्रदायिक होकर मतदान किया? दिल्ली में अधिकांश हिंदुओं ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा छह माह पूर्व- 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने, सार्वजनिक बसों में महिलाओं की निशुल्क यात्रा और पानी के बिलों को माफ करने जैसे लोकलुभावन निर्णयों पर "आप" का समर्थन किया। सच तो यह है कि 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश से गरीबी हटाने की दिशा में जिस प्रकार सार्वजनिक संसाधनों को गरीबों के बीच अनुदान के रूप में बांटने की परंपरा शुरू हुई थी, कालांतर में उसका नियमित अभ्यास सभी केंद्रीय सरकारों के साथ राज्य सरकारों ने भी किया। चाहे वह कांग्रेस हो या भाजपा या फिर गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपा सरकार- सभी ने समय के साथ इस प्रकार की लोकलुभावन नीतियों को अपनाया। दिल्ली में "आप" की बड़ी विजय का एक और बड़ा कारण- मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का राजनीतिक रूप से परिपक्व होना भी रहा है। पिछले पांच वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए निरंतर अपशब्दों का उपयोग करने, केंद्र की प्रत्येक नीति की आलोचना करने, पाकिस्तान पर भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाने, जेएनयू में पहुंचकर "भारत तेरे टुकड़े होंगे..." जैसे देशविरोधी नारें लगाने वालों के साथ खड़े रहने और प्रदेश के मौलानाओं का वेतनमान बढ़ाने वाले मुख्यमंत्री केजरीवाल की पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनाव में पराजय (मतप्रतिशत में तीसरे पायदान पर) का सामना करना पड़ा। उसी जनभावना को भांपते हुए केजरीवाल ने रणनीतिक रूप से अनुच्छेद 370 के संवैधानिक क्षरण का विरोध नहीं किया, राम मंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का स्वागत किया और सीएए का विरोध करने के बाद भी जिहादियों-वामपंथियों के गढ़ शाहीनबाग और जेएनयू जाने से परहेज किया। स्पष्ट शब्दों में कहूं, तो भाजपा या मोदी विरोध के नाम पर केजरीवाल पिछले कुछ माह से राष्ट्रविरोधी शक्तियों- अर्थात् जिहादियों और वामपंथियों के कुनबे के साथ खड़े होने से बचते रहे। यह संदेश जनता के बीच भी पहुंचा। बात यही नहीं रुकी। उन्होंने चुनाव के समय स्वयं को भगवान हनुमानजी का भक्त बताकर सार्वजनिक मंचों (न्यूज चैनलों सहित) पर पवित्र हनुमान-चालीसा का पाठ किया। नतीजों की घोषणा के बाद वे हनुमान मंदिर गए और अपने विजयभाषण में कहा, "आज मंगलवार यानी हनुमानजी का दिन है और उन्होंने दिल्ली पर अपनी कृपा बरसाई है।" इसके बाद वहां उपस्थित सभी लोगों से उन्होंने "वंदे मातरम्" और "भारत माता की जय" का नारा भी लगवाया। अब क्या ऐसा आगे भी जारी रहेगा या फिर यह विशुद्ध चुनावी लाभ के लिए किया गया था?- इसका उत्तर भविष्य के गर्त में छिपा है। दिल्ली चुनाव के नतीजों का संदेश क्या है? पहला- अरविंद केजरीवाल किसी विशेष विचारधारा से बंधे नहीं है। एक समय वे स्वयं को अराजकतावादी कह चुके है, तो जिहादियों-वामपंथियों के साथ खड़े तक हो चुके है। इस बार उन्होंने खुद को दिल्ली में आस्थावान हिंदू के रूप में प्रस्तुत किया है और कई अवसरों पर वंदे मातरम् का