विगत बुधवार को संसद के केंद्रीय कक्ष में स्वतंन्नता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर के तैलचित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की गई। इस अवसर पर भारतीय जनता पार्टी का पूरा शीर्ष नेतृत्व, लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, वैंकेया नायडू, अनंत कुमार सहित अन्य बहुत से मंत्री उपस्थित थे। नई सरकार ने अंडमान निकोबार जेल में उस उद्धरण पट्टिका को फिर से ससम्मान स्थापित करने का भी निर्णय लिया है, जिसे सन् 2004 में केंद्रीय सत्ता पर आने के बाद कांग्रेस के तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री मणिषंकर अय्यर ने हटवा दिया था। राजग के पिछले कार्यकाल में जब संसद के केंद्रीय कक्ष में सावरकर का तैलचित्र स्थापित किया जा रहा था, तब सोनियाजी के नेतृत्व में कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने समारोह का बहिष्कार कर इस महान देशभक्त का निरादर किया था। उनके अनुसार सावरकर का स्वतंत्रता आंदोलन में कोई योगदान नहीं है। क्या विचारधारा और कार्यशैली पृथक होने से क्रांतिकारियों के बलिदान को गौण माना जाए? क्या देशभक्त होने के लिए कांग्रेसी विचारधारा से संबद्धता जरूरी है? कटु सत्य यह है कि कांग्रेस शहीदों की विरासत का सांप्रदायिकरण कर उसे दलगत राजनीति में बांटती आई है। कांग्रेसी परंपरा में देश के लिए शहीद होने वालों में नेहरू परिवार के ही लोग शामिल हैं, इसलिए दशकों तक सरदार पटेल को भारत रत्न के सम्मान से वंचित रखा गया। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, मदन मोहन मालवीय, राजाजी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अषफाक उल्ला खां, रासबिहारी बोस, शचिन्द्र नाथ सान्याल, श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर आदि का भारत की आजादी की लड़ाई में अमर योगदान है। कांग्रेस इनमें से किसका यशगान करती है? पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की नामावली में लाल बहादुर शास्त्री का नाम विपक्षियों के एतराज के कारण राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में शामिल किया गया। क्यों? कांग्रेस के शासनकाल में जितनी भी केंद्रीय योजनाएं बनती हैं, उनका नामकरण नेहरु-गांधी वंश से होता है। दिल्ली में यमुना का कछार इस वंश के लोगों की समाधियों के लिए आरक्षित है, जबकि कांग्रेस के ही पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव का अंतिम संस्कार तक दिल्ली में नहीं होने दिया गया। क्यों? राजग के पिछले कार्यकाल में अंडमान द्वीप स्थित जिस सेल्युलर जेल में स्वातंत्र्य सेनानी वीर सावरकर के अलावा कई अन्य बलिदानियों को कैद रखा गया था, उनके अमूल्य योगदान को भावी पीढ़ी तक पहुंचाने और उन क्रांतिकारियों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के उद्देश्य से जेल परिसर में एक ‘स्वातंत्र्य ज्योति’ स्थापित करने का निर्णय लिया गया था। किंतु उक्त शिल्प का उद्घाटन राजग के कार्यकाल में नहीं हो सका था। स्वातंत्र्य ज्योति शिल्प के चारों ओर क्रांतिकारियों के प्रेरक कथन प्रदर्शित किए गए हैं। चुनाव में राजग की पराजय के बाद ज्योति का उद्घाटन करने पहुंचे मणिशंकर अय्यर ने सावरकर की उद्धरण पट्टिका हटवा दी थी। इसमें लिखा था, ‘‘देशभक्ति का यह व्रत हमने आंख मूंदकर नहीं लिया है। इतिहास की प्रखर ज्योति में हमने इस मार्ग की परख की है। दृढ़ प्रतिज्ञ होकर दिव्य अग्नि में जलने का निष्चय जान-बूझकर किया है। हमने व्रत लिया है-आत्म बलिदान का।’’ जिन अन्य क्रांतिकारियों के उद्धरण रहने दिए गए थे, उनमें बहादुर शाह जफर, मदन लाल ढींगरा, सुभाष चंद्र बोस और सरदार भगत सिंह शामिल हैं। वास्तव में, इन सब शहीदों की कतार में केवल वीर सावरकर ही एकमात्र ऐसे थे, जिनका नाम अंडमान की सेल्युलर कारागार का पर्यायवाची बन गया है। जिन अन्य क्रांतिकारियों के उद्धरण रहने दिए गए थे, उनका सेल्युलर जेल से कोई वास्ता नहीं था। बहादुर शाह रंगून में निर्वासित जिंदगी जीते मरे, मदन लाल को लंदन के पैन्टोविल कारागार में फांसी की सजा दी गई थी, सुभाषजी जापान में कथित वायुयान दुर्घटना में इहलोक प्रयाण कर गए थे। भगत सिंह को राजगुरु और सुखदेव के साथ लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी गई थी। वहीं 1911 से 1922 के बीच सावरकर ने ब्रितानियों के इस भयावह कारागार में असीम यंत्रणा हंसते-हंसते झेली थी। यह बहुत कम लोगों को ही पता होगा कि बाल गंगाधर तिलक से भी बहुत पहले पूर्ण स्वराज का लक्ष्य सावरकर ने घोषित किया था और गांधीजी के विदेशी वस्त्र परित्याग से पूर्व ही उन्होंने छात्र जीवन में ही विदेशी वस्त्रों की होलिका जलाई थी। 1857 के गदर को सावरकर ने ही ‘आजादी की पहली लड़ाई’ की संज्ञा दी थी। 1907 में 24 वर्षीय विधि के छात्र सावरकर ने ब्रितानियों की भूमि लंदन में 1857 के विप्लव पर एक पुस्तक प्रकाशित करवाई। वहीं उन्होंने ‘‘ओ मार्टियर्स’’ नामक अनष्वर पर्चा भी प्रकाशित किया। यह शेर की मांद में घुस कर उसके जबड़े में हाथ देने जैसा खतरनाक था। कांग्रेसी जन सावरकर पर अंग्रेजों से क्षमा मांगने का आरोप लगाते हैं, किंतु सत्य यह है कि सावरकर अंग्रेजों के लिए एक खौफ थे। भारत सरकार के तत्कालीन गृहसचिव क्रैडोक ने दिनांक 19 दिसंबर, 1913 को यह टिप्पणी की थीः-‘‘उन्होंने (सावरकर) किसी प्रकार का खेद प्रकट नहीं किया। सावरकर को किसी प्रकार की आजादी देना असंभव है। और, मेरा मानना है कि किसी भी भारतीय जेल से वह भाग निकलेगा। वह इतना महत्वपूर्ण नेता है कि भारतीय क्रांतिकारियों का यूरोपीय दस्ता कुछ ही समय में उनके पलायन के लिए षड्यंत्र रच देगा। यदि उन्हें सेल्युलर जेल से बाहर जाने की इजाजत दी गई तो उनका भाग जाना निश्चित है।.....’’ सावरकर गांधीवादी नहीं थे, उनके आदर्श शिवाजी थे। उन्हीं की भांति वे भी छल से बाहर आकर आजादी की जंग जारी रखना चाहते थे। वीर सावरकर का मानना था- ‘‘सत्य, अहिंसा से ब्रिटिष साम्राज्य को ध्वस्त करने की कल्पना किसी बड़े किले को बारुद की जगह फूंक से उड़ा देने का स्वप्न देखने के समान ही हास्यास्पद है।’’ हमारे कम्यूनिस्ट व कांग्रेसी सावरकर पर ‘‘सांप्रदायिक हिंदू’’ होने का भी आरोप लगाते हैं। सावरकर ने इस देश को पितृभू और पुण्यभू कहा है और जो अपने पूर्वजों की इस भूमि को, उसकी परंपराओं को सम्मान देता हो, वही हिंदू है। इसमें सांप्रदायिकता कहां है? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सावरकर के योगदान पर नेताजी को याद करना भी प्रासंगिक होगा। 25 जून, 1944 को आजाद हिंद रेडियो से सावरकर की प्रषंसा करते हुए सुभाषचंद्र बोस ने कहा था,‘‘राजनीतिक दूरदर्षिता के कारण जब कांग्रेस पार्टी का हर नेता हिंद फौज के जवानों को भाड़े का सिपाही कहकर निंदित कर रहा है, वैसे समय में यह जानकर अपार खुषी हो रही है कि वीर सावरकर निर्भयतापूर्वक भारत के युवाओं को फौज में षामिल होने के लिए लगातार भेज रहे हैं।...’’ चीन से पराजित होने के बाद फील्ड मार्शल करियप्पा ने कहा था कि यदि भारत ने सावरकर की सुनी होती और सैनिकीकरण की नीति अपनाई होती तो आज पराजय का दिन नहीं देखना पड़ता। सावरकर युगद्रष्टा थे, उनका कालजयी चिंतन हमारी थाती है। दलगत राजनीति से ऊपर उठ हम गर्व से सभी राष्ट्रवीरों को नमन करते रहें, यही हमारी सनातनी परंपरा है और हमें इस पर गर्व है।