आतंकवाद के खात्मे के लिए सत्ता अधिष्ठान के कथित ‘दृढ़ निश्चय व ठोस इरादों’ की कलई फिल्म अदाकार संजय दत्त और आतंकी लियाकत शाह को लेकर चल रही मुहिम को मिल रहे सरकारी समर्थन से खुल जाती है। भारत-नेपाल सीमा पर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से पकड़े गए हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादी लियाकत शाह से हुई पूछताछ के बाद दिल्ली के जामा मस्जिद इलाके में स्थित एक गेस्ट हाउस से भारी मात्रा में गोलीबारुद और असलहे बरामद किए गए। आतंकियों की साजिश होली के अवसर पर दिल्ली को दहलाने की थी। मुंबई हमलों की तर्ज पर दक्षिणी दिल्ली के भीड़भाड़ वाले इलाके में अंधाधुंध गोलीबारी और ग्रेनेड से हमले की साजिश रची गई थी। एक ओर जहां जम्मू-कश्मीर में एक के बाद एक सुरक्षाकर्मियों पर आतंकी हमले हो रहे हैं, वहीं राज्य का मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पकड़े गए आतंकी लियाकत को लेकर ज्यादा चिंतित है। उन्होंने गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर मामले की जांच कराने की मांग की है। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने रिपोर्ट भेजकर गृहमंत्रालय को सूचित किया है कि लियाकत ने आतंकवाद से मुंह मोड़ लिया है और वह वस्तुतः आत्मसमर्पण करने जम्मू-कश्मीर आ रहा था, जिसे दिल्ली पुलिस ने गोरखपुर से गिरफ्तार कर लिया। वस्तुस्थिति क्या है? इन पंक्तियों के लिखे जाने तक गृहमंत्रालय मामले की जांच एनआईए को सौंपने पर विचार कर रहा है। वास्तव में, गृहमंत्रालय संसद पर हमले की साजिश रचने वाले अफजल गुरु को दी गई फांसी की सजा से उठे बवंडर से घबराया हुआ है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री समेत कठमुल्ले अफजल को फांसी दिए जाने से खासे नाराज हैं। इसलिए गृहमंत्रालय आज अपनी ही जांच एजेंसियों पर प्रश्नचिन्ह लगाने की हद तक जा पहुंचा है। सारे तथ्य आइने की तरह साफ हैं। मल्टी एजेंसी सेंटर (मैक) खुफिया विभाग की एक शाखा है। इसका काम राज्यों की पुलिस और खुफिया विभागों के बीच गोपनीय सूचनाओं का आदानप्रदान करना है। मैक ने लियाकत की गिरफ्तारी से ठीक पूर्व एक फोन संवाद को इंटरसेप्ट किया था, जिसमें कहा गया था, ‘‘तुम दिल्ली के जामा मस्जिद इलाके में चले जाओ। वहां के एक गेस्ट हाउस में तुम्हें सामान मिल जाएगा और लोग भी तुम्हें वहीं मिल जाएंगे।’’ यह बातचीत लियाकत और पाकिस्तान में बैठे हिजबुल के आतंकी इरफान के बीच हुई थी। मैक ने इसकी सूचना खुफिया एजेंसियों समेत जम्मू-कष्मीर के आईजी और दिल्ली पुलिस स्पेषल सेल के अधिकारियों को दी थी। मैक के साथ रॉ ने भी तहकीकात के बाद बताया है कि लियाकत अपने साथ नेपाल के रास्ते कुछ आतंकियों को भारत में प्रवेश कराने की फिराक में था। मैक और रॉ पर शक का क्या आधार है? पूछताछ में लियाकत ने बताया है कि वह पाकिस्तान में बैठे हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैय्यद सलाहुद्दीन उर्फ पीर बाबा के लगातार संपर्क में था। सलाहुद्दीन हिजबुल के साथ कश्मीरी आतंकी संगठनों का भी मुखिया है। दूसरा, लियाकत से हुई पूछताछ के बाद ही दिल्ली के जामा मस्ज्दि स्थित गेस्ट हाउस से तबाही के सामान बरामद हुए। ऐसे में आत्मसमर्पण का नाटक क्यों खड़ा किया जा रहा है? जम्मू-कश्मीर ने नवंबर, 2010 में आतंकियों के समर्पण और पुनर्वास की नीति बनाई थी। इस नीति के अनुसार पुंछ-रावलकोट, उरी-मुजफ्फराबाद, वाघा और दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे को ही समर्पण के लिए आने का रास्ता निर्धारित किया गया है। ऐसे में लियाकत नेपाल के रास्ते कथित समर्पण के लिए कैसे आ रहा था? और इस अवैध रास्ते से आने वाले आतंकी के गुपचुप समर्पण के लिए राज्य सरकार क्यों तैयार बैठी थी? राज्य सरकार ने समर्पण की सूचना दिल्ली, पंजाब और उत्तर प्रदेश की खुफिया एजेंसियों के साथ साझा क्यों नहीं की? यक्ष प्रश्न यह भी कि अपनी ही सुरक्षा एजेंसियों को कटघरे में खड़ा कर केंद्र सरकार किस बूते आतंकवाद से लड़ने का दावा करती है? संजय दत्त पर उन अंडरवर्ल्ड सरगनाओं से प्राप्त प्रतिबंधित घातक हथियार रखने का आरोप है, जिन्होंने सन् 1993 में भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई को तबाह करने की साजिश रची थी। 12 मार्च, 1993 को शृंखलाबद्ध हुए 13 बम धमाकों में 250 से अधिक लोगों की मौत और सात सौ से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे। संजय दत्त को इस देश की सर्वोच्च न्यायपालिका ने प्रतिबंधित हथियार रखने के आरोप में पांच साल के कारावास की सजा सुनाई है। संजय डेढ़ साल की कैद पहले ही भुगत चुके हैं। शेष साढ़े तीन साल की सजा माफ कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और वर्तमान में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू सहित फिल्म जगत की हस्तियां और स्वयंभू मानवाधिकारी-बुद्धिजीवी लामबंद हैं। इन्हें सत्ता अधिष्ठान का पूर्ण समर्थन है। विडंबना यह है कि संजय दत्त की सजा माफ कराने के लिए जहां कई केंद्रीय मंत्री अपना समर्थन दे रहे हैं, वहीं लियाकत शाह के मामले में जांच एजेंसियों व सुरक्षाकर्मियों को झूठा साबित करने के लिए जम्मू-कश्मीर सरकार सहित केंद्रीय गृहमंत्रालय अत्यधिक सक्रिय हो उठा है। संजय दत्त को माफी देने से समाज में गलत संदेश जाने का खतरा है। समाज में पहले से ही एक आम धारणा है कि साधनसंपन्न और ऊंची पहुंच वाले लोग दंड से बच जाते हैं। संजय को माफ करने की मुहिम चलाने वालों के कुतर्कों को यदि सुनें तो इसका अर्थ है कि इस देश में दो तरह के कानून होने चाहिए- एक गरीब के लिए और दूसरा, साधन संपन्न और रसूखदार लोगों के लिए। इसमें दो राय नहीं कि लियाकत को राहत देने और उसे पाकसाफ साबित करने के पीछे जो मानसिकता काम कर रही है, उसके कारण जहां एक ओर सुरक्षाकर्मियों का मनोबल टूटता है, वहीं दूसरी ओर, आतंकवादियों के मंसूबे बुलंद होते हैं। दिल्ली के बाटला हाउस और अंसल प्लाजा में हुए मुठभेड़ को फर्जी साबित करने के लिए प्रायः सभी ‘सेकुलर’ राजनीतिक दलों में होड़ लग जाती है, क्योंकि यहां मामला एक समुदाय विषेष से जुड़ा है। आतंकी गतिविधियों में संलग्न होने के कारण जेलों में बंद मुस्लिम युवाओं की रिहाई के लिए सेकुलर दल एकसुर से नारे लगाते हैं, उनके मानवाधिकारों की चिंता होती है। किंतु स्वामी असीमानंद और साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की सुधि कोई नहीं लेता। क्यों? दोनों कथित भगवा आतंक फैलाने के आरोप में सालों से जेल में बंद हैं। अभियोजन अब तक कोई ठोस सबूत पेष नहीं कर पाया है। साध्वी प्रज्ञा सिंह कैंसर से पीड़ित है। उन्होंने बेहतर चिकित्सा की याचना की है, किंतु कोई सुनवाई नहीं। दूसरी ओर इसी देश में कोयंबटूर बम धमाकों के आरोपी अब्दुल नासेर मदनी को तमिलनाडु की जेल में पंचसितारा सुविधाएं और आधुनिकतम उपचार उपलब्ध कराए जाते हैं। क्यों? दुनिया के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा देश होगा, जहां विधायिका ने किसी राष्ट्रविरोधी व्यक्ति को अपना समर्थन दिया हो। सन् 2006 (16 मार्च, होली की छुट्टी के दिन) में केरल विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर ‘मानवता के आधार पर’ कोयंबटूर बम धमाकों के आरोपी अब्दुल नासेर मदनी की रिहाई के लिए सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया। ये कैसे दोहरे मापदंड हैं? ऐसी मानसिकता के रहते आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जा सकता है?