विगत शुक्रवार को अमरनाथ यात्रा के मुख्य आधार शिविर बालटाल पर कहर टूटा। यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं थी, बल्कि मानव निर्मित त्रासदी थी। लंगर वालों और घोड़े वालों के बीच हुए तथाकथित संघर्ष में साठ से अधिक टेंटों में आग लगा दी गई, सामान लूट लिए गए और तीर्थयात्रियों को अपमानित कर मारापीटा गया। दर्जनों घायल हो गए, जिनमें कई सुरक्षाकर्मी भी हैं। पीड़ितों के अनुसार घोड़े वालों के समर्थन में नारे लगाते आए शरारती तत्त्वों के हुजुम ने टेंटों में सोए हुए लोगों को भी उठाकर पीटा। बहुत से तीर्थयात्रियों ने सेना की मदद से अपनी जान और सम्मान की रक्षा की और जिन तक सैनिक सहायता नहीं पहुंच सकी, वे मजहबी जुनून के शिकार बने। दिल्ली और देश के अन्य भागों में बहुसंस्करण वाले एक प्रमुख समाचार पत्र को छोड़कर बाकी मीडिया ने इस बड़ी घटना पर चुप्पी साध ली। कल्पना कीजिए यदि मुट्ठी भर हज यात्रियों के साथ कहीं ऐसी घटना हो जाती तो न केवल राष्ट्रीय, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में बवाल मच जाता। यह दोहरा मापदंड क्यों? क्या सेकुलरिज्म का अर्थ यह है कि हिंदुओं को छोड़कर बाकी सभी समुदायों के मजहबी अधिकारों की ही चिंता की जाए? अमरनाथ यात्रा पर हर साल आतंकी हमले का खतरा मंडराता रहता है। सरकार यात्रियों की सुरक्षा के पुख्ते इंतजाम करने का दावा भी करती है। ऐसे में पुलिस ने उत्पातियों की भीड़ को नीचे ही रोकने का प्रयास क्यों नहीं किया? अमरनाथ यात्रा का केवल आध्यात्मिक महत्त्व नहीं है। इस यात्रा का सांस्कृतिक व राष्ट्रीय महत्त्व भी है। देश के कोने-कोने से यात्री पवित्र शिवलिंग के दर्शन करने आते हैं। अमरनाथ यात्रा जहां देश के लोगों को एकता के सूत्र में पिरोने का काम करता है, वहीं यह स्थानीय लोगों के लिए आय का बड़ा साधन भी है। बालटाल से पवित्र गुफा की दूरी 14 किलोमीटर है। बालटाल की घटना अनोखी नहीं है। पिछले कुछ दशकों से घाटी के अलगाववादी अमरनाथ यात्रा को बाधित करने का प्रयास करते आए हैं। घाटी के अलगाववादी नेता जहां अपने हिंसक विरोध के बल पर अमरनाथ यात्रा को बाधित करने का कुप्रयास करते हैं, वहीं उनके संरक्षक सेकुलर दल पर्यावरण और कानून-व्यवस्था की आड़ में तीर्थयात्रियों की राह में संकट खड़ा करते हैं। अमरनाथ यात्रा को लेकर सेकुलर दलों की उदासीनता और अलगाववादी नेताओं का मुखर विरोध एक मानसिकता से प्रेरित है। यह मानसिकता हिंदू और हिंदुस्तान की सनातनी संस्कृति के विरोध पर केंद्रित है। घाटी से कष्मीर की मूल संस्कृति के प्रतीक कष्मीरी पंडितों के बलात् निष्कासन के बाद इस्लामी कट्टरवादियों का एक लक्ष्य पूरा हो चुका है। घाटी ‘काफिर मुक्त’ (हिंदूरहित) हो चुकी है। हिंदुआंे के अधिकांष पूजास्थल ध्वस्त हो चुके हैं, परंतु कुछ प्रमुख आराध्य स्थल अभी भी जीवंत हैं और ‘कुफ्ऱ’ का प्रतीक होने के कारण जिहादियों के निषाने पर हैं। अमरनाथ यात्रा का प्रत्यक्ष व परोक्ष विरोध उसी मानसिकता का उदाहरण है। सन् 2008 में यात्रा की अवधि 55 दिनों से घटाकर 15 दिनों तक करने के लिए सड़कों पर बड़े पैमाने पर हिंसक उपद्रव मचाया गया था। तीर्थयात्रियों की सुविधा हेतु अमरनाथ श्राइन बोर्ड को उपलब्ध कराई गई 40 एकड़ जमीन अलगाववादियों को सहन नहीं हुई थी। अलगाववादियों को खुष करने के लिए तत्कालीन सेकुलर सत्ता अधिष्ठान ने फौरन जमीन आवंटन को निरस्त भी कर दिया था। किंतु इसकी तुलना में शेष भारत में मुसलमानों के मामलों में सेकुलर दलों के बीच उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में अधिक से अधिक सुविधाएं देने की होड़ लगी रहती है। यहां तो सरकारी खजाने की कीमत पर मुसलमानों को हज करने मक्का-मदीना भेजा जाता है, किंतु मानसरोवर यात्रा या अमरनाथ यात्रा में हिंदुओं को बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध कराने की चिंता सेकुलर अधिष्ठान को नहीं होती। राजस्थान हिंदू बहुल है और यहां के अजमेर शरीफ में हर साल उर्स का मेला लगता है, जिसमें लाखों की संख्या में जायरीन शरीक होते हैं। दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है। मुंबई में हाजी अली की दरगाह है। उत्तराखंड में कलियार शरीफ, तमिलनाडु में नागौर दरगाह आदि कई अन्य ऐसे प्रसिद्ध दरगाह देश में और भी हैं, जहां हिंदू भी उतनी ही श्रद्धा से शीश नवाते हैं। कुछ समय पूर्व जम्मू-कश्मीर की सरकार ने अमरनाथ यात्रा और वैष्णव देवी की यात्रा के लिए राज्य में प्रवेश करने वाले दूसरे राज्यों के वाहनों पर दो हजार रुपए का प्रवेश शुल्क लगाया था। किंतु बहुलतावाद व पंथनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वाले बुद्धिजीवी व राजनीतिक दल तब खामोश रहे। क्यों? अजमेर शरीफ, हाजी अली या मुसलमानों के लिए पूज्य अन्य स्थलों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था क्या कभी संभव है? कश्मीर घाटी में मुसलमान बहुसंख्यक हैं तो क्या वहां देश के अन्य नागरिकों का प्रवेष वर्जित कर दिया जाए? कश्मीर घाटी को हिंदूविहीन बनाना शेख अब्दुल्ला के जमाने से ही प्रारंभ हो गया था। उनकी आत्मकथा ‘आतिश-ए-चिनार’ में एक पूरा अध्याय कश्मीरी पंडितों पर है। वह कश्मीर के पूर्ण इस्लामीकरण और उसे स्वतंत्र इस्लामी राष्ट्र बनाने में कश्मीरी पंडितों को ही सबसे बड़ा अवरोध मानते थे। उनका मानना था कि कश्मीरी पंडित प्रारंभ से ही केंद्र सरकार के एजेंट और जासूस हैं। वस्तुतः राष्ट्रवादी ताकतें शेखशाही का स्वप्न पाले अब्दुल्ला को कभी रास नहीं आईं। आश्चर्य नहीं कि उनका पोता (उमर अब्दुल्ला) आज अमरनाथ प्रकरण पर ‘अपनी एक इंच जमीन नहीं देंगे’ का नारा लगाता है। दशकों तक कश्मीर पर अब्दुल्ला वंश का राज रहा है। आज तक जम्मू-कश्मीर में एक भी हिंदू मुख्यमंत्री की गद्दी पर नहीं बैठा, फिर घाटी के मुसलमानों के साथ किसने अन्याय किया? किस आधार पर अलगावपरस्त नेता व दल भारतीय संघ द्वारा भेदभाव बरते जाने का स्यापा करते हैं? घाटी की समस्या संवाद से सुलझ सकती है, किंतु सच तो यह है कि यह आंदोलन न तो सरकारी भेदभाव से जन्मा है और न ही इसमें आम कश्मीरी की भागीदारी है। चिंता का कारण अलगाववादियों का इस्लामी साम्राज्यवाद का एजेंडा है। परिस्थितियां अलगाववादियों के सामने सत्तातंत्र के घुटने टेकने से गंभीर हुई हैं। मजहबी जुनून का जहर चारों ओर फैला है। विभाजन से पूर्व पाकिस्तान के हिस्से में आए क्षेत्रों में हिंदू कुल जनसंख्या के एक चौथाई से भी अधिक थे। आज उनकी आबादी एक प्रतिषत से भी कम है। अधिकांश हिंदु या तो पाकिस्तान से पलायन कर गए या डर कर मुसलमान हो गए हैं। अधिकांश हिंदू तीर्थस्थल या तो जमींदोज कर दिए गए हैं या उनके खंडहर मात्र बचे हैं, जहां पूजा-अर्चना की भी समुचित व्यवस्था नहीं है। पाक मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान के सिंध प्रांत में हिंदू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन किया जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार सिंध में हर महीने करीब 20 से 25 हिंदू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन किया जा रहा है। क्यों? घाटी की हाल की घटना के प्रति सेकुलरिस्टों और मीडिया की उदासीनता ने एक बार फिर इस कटु सत्य को रेखांकित किया है कि सेकुलरवाद के मुखौटे के पीछे एक सांप्रदायिकतावादी चेहरा छिपा हुआ है।