दुनियाभर में चल रही हिंसक घटनाएं क्या मध्यकालीन बर्बर युग की दस्तक हैं? इराक की ‘इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड लेवैंट’ (आइएसआइएल) नामक सुन्नी आतंकी संगठन के आतंकियों के द्वारा 1700 इराकी जवानों को मौत के घाट उतारना, केन्या के पेकटोनी शहर में सोमाली आतंकियों द्वारा 48 लोगों की बर्बर हत्या, अफगानिस्तान में वोट देने की सजा के तौर पर तालिबानियों द्वारा 11 अफगानी नागरिकों की उंगलियां काटना, केन्या में अल षबाब द्वारा 48 लोगों की हत्या, पड़ोसी मुल्क बंगलादेष में बांग्लाभाषियों और उर्दू भाषियों के बीच हिंसा में 10 से अधिक की मौत, पाकिस्तान के कराची एअरपोर्ट पर हुआ आतंकी हमला और नाइजेरिया में बोको हरम के द्वारा 200 से अधिक छात्राओं का अपहरण, क्या रेखांकित करता है? इन आतंकी हमलों में मरने वाले अधिकांश किस मजहब के हैं? क्या यह सत्य नहीं कि मजहब के नाम पर हिंसा करने वाले और उस हिंसा के बदकिस्मत शिकार एक ही मजहब- इस्लाम के हैं? अलकायदा की शाखा, आईएसआईएल का लक्ष्य इराक और सीरिया के सुन्नी इलाकों को एक इस्लामिक देष बनाना है, जहां शरीआ कानून लागू किया जा सके। इस संगठन के पास इराक और सीरियाई सेना से बेहतर हथियार हैं और इसके ज्यादातर लड़ाके संगठन की कट्टरपंथी विचारधारा से प्रेरित हैं। इराक के राजदूत लुकमान फैली ने कहा है कि अफगान में तो एक ओसामा बिन लादेन था, यहां एक हजार ओसामा सड़कों पर हैं। इराक में आतंकी लेख के लिखे जाने तक इराक की राजधानी, बगदाद से महज 50 किलोमीटर की दूरी पर हैं। आईएसआईएल के जिहादियों के साथ पूर्व राष्ट्रपति सपाम हुसैन के समर्थक भी शामिल हैं। विगत नौ जून से प्रारंभ हमलों के जरिए जिहादियों ने इराक के एक प्रांत पर पूरी तरह नियंत्रण कायम कर लिया है, जबकि तीन प्रांतों के कुछ हिस्सों को अपने कब्जे में कर लिया है। बड़े पैमाने पर इराकी सैनिकों के मारे जाने की खबर है। बगदाद में संयुक्त राष्ट्र के राजदूत निकोलाय लादेनोव ने चेतावनी दी है कि हाल के वर्षों में इराक पर उसकी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है। वहां सुन्नी जिहादी चुन-चुन कर शिया औरतों, मर्दों और बच्चों की हत्या कर रहे हैं। पूरी दुनिया की मुस्लिम आबादी में सुन्नियों का अनुपात 80-90 प्रतिशत है, जबकि शिया 10 से 20 प्रतिशत के बीच हैं। किंतु जहां कहीं भी षिया या सुन्नी बहुसंख्या में हैं, वे दूसरे को खत्म करने पर आमादा हैं। पाकिस्तान के शिया आतंकी दस्ते- सिपह ए मुहम्मद को ईरान सैन्य और वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराता है तो सउदी अरब सुन्नी देवबंदी, लष्करे झांगवी और वहाबियों को अकूत धन देकर हिंसा के लिए प्रेरित करता है। पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों की जनसंख्या विभाजन के समय 20 प्रतिशत से अधिक थी, आज दो प्रतिशत से भी कम है। क्योंकि या तो उनका बलात् धर्म परिवर्तन कर उन्हें मुसलमान बना दिया गया या उन्हें पलायन के लिए मजबूर कर दिया गया। हिंदु और सिखों की संपत्तियों पर कब्जा करने के बाद अब सुन्नी आतंकी संगठन मुस्लिम समुदाय के गैर सुन्नी मतों को निशाना बनाया जा रहा है। पाकिस्तान में सुन्नियों के हाथों शियाओं की हत्या रोज की खबरें बन गई हैं। अहल-ए-हदीस नामक जिहादी सुन्नी संगठन को सउदी अरब पोषित करता है, जो शियाओं के कत्लेआम का जिम्मेदार है। शिया जुल्फिकार अली भुट्टो को अपदस्थ कर मारने वाले सुन्नी जिया उल हक के शासनकाल में मजहबी चरमपंथ को वहां खूब पोषित किया गया है। जिया उल हक के समय में ही ईशनिंदा कानून बना, जिसके अंतर्गत इस्लाम या अल्लाह पर प्रश्न खड़ा करने वालों के लिए मौत की सजा निर्धारित है। यहां गौरतलब बात यह है कि शिया और सुन्नियों के बीच तनाव की वजह ही पैगंबर साहब के उत्तराधिकारी को लेकर है। पाकिस्तान में सुनियोजित तरीके से इस्लामी शासन के समर्थन और संरक्षण में जिहादी संगठन इस्लाम को मानने वाले गैर सुन्नी मतों के अहमदिया, बोहरा, कादियानी और षियायों के सफाए में लगे हैं। बलूचिस्तान में षियाओं पर हमलों की बारंबारता इतनी है कि अब वैसी खबरों को समाचारपत्रों के पहले पन्ने पर जगह भी नहीं मिलती। दुनिया के अधिकांश इस्लामी देश आज उपद्रवग्रस्त हैं, वहां गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई है। कहीं अधिनायकवादी सरकार से मुक्ति पाने के लिए तो कहीं कथित प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम करने के लिए सड़कों पर कत्लेआम मचाया गया। किंतु मिस्र का उदाहरण समाने है। वास्तव में, इन तमाम देषों में एक दूसरे किस्म के अधिनायकवाद की स्थापना के लिए जंग जारी है। वहां के जनमानस में यह तड़प उस व्यवस्था के लिए है, जहां इस्लामी मान्यताएं, परंपराएं और षरीआ सर्वोच्च हो। मिस्र के हिंसक आंदोलन की कमान ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के हाथ में है, जिसका घोषित लक्ष्य कुरान और सुन्ना को एकमात्र संविधान बनाना है। नाइजीरिया में इस्लामी शासन के दस्ते और बोको हराम नामक मजहबी चरमपंथी आंदोलन के बीच युद्ध की स्थिति है। उधर मुस्लिम बहुल अल्जीरिया में सेना के समर्थन से इस्लामी सरकार कट्टरपंथी जिहादियों का नृषंसतापूर्वक दमन कर रही है। यमन में इसी तरह गृहयुद्ध की स्थिति है। ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद इस्लामी आतंकवाद के समाप्त होने की आशा व्यर्थ है। पिछले साल ईद के मौके पर लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम में लश्करे तैयबा के आतंकी व जमात उद दवा के प्रमुख हाफिज सईद ने ईद की नमाज की अगुवाई की थी। उसने भारत को धमकी देते हुए कहा था, ‘‘बहुत जल्द वह समय आएगा, जब कश्मीर, बर्मा और फिलीस्तीन के दबेकुचले लोग आजादी की हवा में ईद मनाएंगे।’’ इसके कुछ दिन पूर्व भी उसने दिल्ली पर हमला करने की धमकी दी थी। इस हाफिज सईद को 1981 में जिया उल हक ने कथित उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए सउदी अरब भेजा था। वहां से लौटकर वह जिहादी इस्लाम का प्रचारक बना। 1990 में उसने जमात उद दवा और लश्करे तैयबा की स्थापना की और तब से निरंतर पाकिस्तानी हुक्मरानों के संरक्षण में भारतीय सभ्य समाज को लहूलुहान करने में जुटा है। कश्मीर घाटी से हिंसा के बल पर कश्मीरी पंडितों को खदेड़ भगाना इस्लामी कट्टरवाद की असहिष्णुता की ही पुष्टि करता है। दुनियाभर में फैले इस्लामी कट्टरवाद से जिहादी इस्लाम का एक कटु सत्य रेखांकित होता है। सन् 2003 में प्रकाषित ‘दि क्राइसिस ऑफ इस्लाम’ नामक अपनी पुस्तक में अमेरिकी विद्वान बर्नार्ड लुइस ने लिखा है, ‘‘यदि स्वतंत्रता हारती है और आतंक विजयी होता है तो इसके सर्वाधिक और सर्वप्रथम शिकार इस्लामी लोग होंगे। वे अकेले नहीं होंगे, दूसरे कई भी उनके साथ संत्रस्त होंगे।’’ मिस्र, सीरिया, तुर्की, पाकिस्तान, इराक, ईरान, नाइजेरिया आदि में जो हिंसक घटनाक्रम चल रहा है, वह स्वधर्मी मुसलमानों के लिए एक संदेश है। जिहादी चरमपंथी इस्लाम के जिस संस्करण को सच्चा बताते हैं, उस इस्लाम को मानो या फिर मरने को तैयार रहो। इसी जिहादी मानसिकता का शिकार दुनिया का सभ्य समाज हो रहा है, उससे भारत भी अछूता नहीं है।