Dainik Jagran 2013-04-18

बेकाबू इस्लामी आतंकवाद

अमेरिका के सर्वाधिक सुरक्षित शहर बोस्टन में तमाम सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद इस्लामी आतंक ने एक बार फिर तांडव मचा ही दिया। इस हमले के दूसरे दिन हमारे देश में बंगलौर के मलेश्वरम में भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय के निकट हुए आतंकी हमले में 13 लोग गंभीर रूप से घायल हुए हैं। बोस्टन मैराथन में भाग लेने आए 90 देषों के 28 हजार धावकों के लिए स्वाभाविक तौर पर कड़े सुरक्षा इंतजाम किए गए होंगे, किंतु आतंकी अपने मंसूबे में कामयाब रहे। दोहरे बम विस्फोट में तीन निरपराध मारे गए, जबकि दो सौ लोग गंभीर रूप से घायल हैं। भारत पर आतंकी हमलों की लंबी सूची है। भारत सहित कई ऐसे देश जो इस्लाम के अनुयायी नहीं हैं, वे सर्वभौम इस्लामी एजेंडे के कारण जिहादियों के निषाने पर हैं। शरीआ का पूर्ण पालन नहीं करने वाले इस्लामी देश भी जिहादियों के कहर से अछूते नहीं हैं। किंतु इस्लामी आतंकवाद को लेकर सेकुलर दलों की जो सोच है, उसके कारण इस्लामी आतंकवाद पर काबू पाना असंभव हो रहा है। सेकुलर विकृति अब इतनी बढ़ गई है कि स्वयंभू मानवाधिकारी निरपराधों का खून बहाने वाले इस्लामी दानवों के मानवाधिकारों की चिंता में सड़कों पर नारे लगाते हैं। मानवता के नाम पर इन राक्षसों को क्षमादान देने के लिए कथित उदारवादी लेखक व चिंतक अखबारों के पन्ने स्याह करते हैं। ऐसे लेखकों में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष और पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू इन दिनों ज्यादा ही सक्रिय हैं, जिन्होंने अभी हाल ही में सन् 1993 के मुंबई हमलों के आरोपियों को क्षमादान से लेकर इस्लामी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में भारतीय जेलों में बंद मुस्लिम युवाओं की रिहाई के लिए मुहिम छेड़ रखी है। ऐसे कैदियों की रिहाई के लिए सेकुलर दलों का कुनबा हाल ही में प्रधानमंत्री के दरबार में गुहार लगा चुका है। इसके साथ ही एक और विकृति तेजी से पनपी है। पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने वाले इस्लामी आतंकियों के पक्ष में सेकुलर दल एकजुट हो उठते हैं और मुठभेड़ को फर्जी साबित करने की मुहिम छेड़ देते हैं। वोट बैंक की राजनीति के लिए सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़कर क्या आतंकवाद से पार पाना संभव है? बोस्टन पर हुए हमले से पूर्व 9 सितंबर, 2001 को अमेरिका के विश्व व्यापार केंद्र को आतंकियों ने ध्वस्त कर दिया था, जिसमें 3,000 से अधिक लोग मारे गए थे। अपने को संप्रभु समझने वाले अमेरिका के लिए यह बड़ी चुनौती थी। हमले के बाद अमेरिका ने अपने यहां तो कड़े बंदोबस्त किए ही, हमले के आरोपियों को पकड़ने के लिए अफगानिस्तान की धरती लाल कर दी। इस मुहिम में उसने उस पाकिस्तान को अपना सहभागी बनाया, जो स्वयं भारत को रक्तरंजित करने में निरंतर जुटा है। विश्व व्यापार केंद्र पर हमले के मुख्य आरोपी ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान के अबोटाबाद में निश्चिंत छिपा था। अमेरिका ने पाकिस्तान की धरती पर घुसकर ओसामा बिन लादेन को भले ही मार गिराया, किंतु क्या उसे ओसामा को पनाह देने वाले पाकिस्तान को दंडित नहीं करना चाहिए था? क्या संयुक्त राष्ट्र से पाकिस्तान को आतंकी राष्ट्र घोषित करने की पहल नहीं करनी चाहिए थी? भारत लंबे अर्से से यह कहता आ रहा है कि भारत पर होने वाले आतंकी हमले का पोषण पाकिस्तान कर रहा है। किंतु अपनी दोगली नीतियों के कारण अमेरिका ने सदा पाकिस्तान का साथ दिया। उसे अकूत धनराशि सहायता के नाम पर दी। अमेरिका से मिलने वाली आर्थिक सहायता का बड़ा भाग पाकिस्तान खुद को सैन्य रूप से सशक्त करने में खर्च करता रहा, ताकि भारत को अधिक से अधिक रक्तरंजित करने की सामर्थ्य आ सके। इसकी जानकारी अमेरिका को भी है, किंतु अपने स्वार्थ के लिए वह पाकिस्तान से नाता तोड़ने को राजी नहीं है। 9/11 के बाद बोस्टन पर हुआ आतंकी हमला अमेरिका के लिए आंखें खोलने वाला होना चाहिए, किंतु यदि अमेरिका का इतिहास देखें तो उससे इस्लामी आतंक की लड़ाई में भारत का साथ देने की अपेक्षा बेमानी लगती है। कटु सत्य तो यह है कि साम्यवाद के आतंक को खत्म करने के लिए अमेरिका ने ही इस्लामी जिहाद को पोषित किया। अफगान युद्ध के दौरान सोवियत संघ पर लगाम लगाने के लिए रीगन प्रशासन ने पाकिस्तान के जिया उल हक के तानाशाह शासन को भरपूर आर्थिक और सामरिक मदद दी। मुजाहिदीनों को अनिश्वरवादी सोवियत संघ के विरुद्ध जिहाद के लिए मोर्चे पर खड़ा करने वाला अमेरिका ही था। अफगान युद्ध की सफलता भले ही तब अमेरिका के हित में रहा हो और अपना स्वार्थ साधने में वह पूर्णतः सफल रहा हो, किंतु इस युद्ध में ‘जिहाद’ का जो बीज बोया गया, उसकी पौध आज पूरी दुनिया के लिए विषबेल बन चुकी है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भले ही साम्यवाद का विस्तार बहुत तेजी से हुआ, किंतु उसका अवसान भी उतनी ही शीघ्रता से हुआ। परंतु इस्लाम छठी सदी से ही अस्तित्व में है और उसकी जड़ें पूर्व-पश्चिम में सभी जगहों पर फैल चुकी हैं। वस्तुतः इस्लामी जिहाद ‘एकमात्र सच्चे पंथ’ की कट्टरवादी मानसिकता की ही देन है। कथित उदारवादी बुद्धिजीवी और भारत के सेकुलर चिंतक अर्से से जिहादी जुनून के कारणों के प्रति भ्रांतियां फैलाते रहे हैं। उनके अनुसार गरीबी, अशिक्षा और सच्चे इस्लाम के बारे में सही जानकारी का अभाव मुसलमानों के एक वर्ग को शेष विश्व के खिलाफ हिंसा के लिए उकसाता है। यह भी झूठ यह परोसा जाता है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था आतंकवाद को काबू में रख सकती है। उनका तर्क है कि यदि मुसलमान पूर्ण स्वतंत्रता के साथ रहें और उन्हें प्रजातांत्रिक ढंग से अपना नेता चुनने को मिले तो आतंकवादी पैदा ही नहीं हों। पाश्चात्य आधुनिक प्रजातंत्र में स्वतंत्र और खुशहाल जीवन जीने वाले मुस्लिम युवा फिर किस कारण उसी धरती को लहूलुहान करते हैं? गरीबी, अषिक्षा, सुविधाओं की कमी, राजनीतिक अस्पृष्यता, ऐतिहासिक अन्याय आदि ऐसे कई कुतर्कों से इस्लामी जिहाद के नंगे सच को ढकने की कोशिश की जाती है। जबकि यथार्थ इससे कोसों दूर है। अमेरिका के विष्व व्यापार पर हवाई हमला करने वाले सभी कसूरवार उच्च शिक्षा प्राप्त और संभ्रांत परिवार के थे। लंदन पर आत्मघाती हमला करने वाले फिदायिन ब्रिटेन के प्रगतिशील माहौल में पले-बढ़े। दुनियाभर में आतंकवाद की जितनी भी बड़ी घटनाएं घटी हैं, उन्हें अंजाम देने वालों में अधिकांश डॉक्टर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट आदि हैं। क्या राजनीतिक भेदभाव इस्लामी चरमपंथ का कारण है? अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, भारत जैसे गैर मुस्लिम देषों में क्या मुसलमानों के साथ राजनीतिक स्तर पर भेदभाव का आरोप सच है? हमारे यहां मुसलमानों को बहुसंख्यकों से ज्यादा अधिकार और सुविधाएं प्राप्त हैं। यही स्थिति तमाम अन्य प्रजातांत्रिक देशों में भी है और वहां मुसलमान किसी भी मुस्लिम देश की अपेक्षा ज्यादा खुशहाल व स्वतंत्र हैं। किंतु क्या एक भी ऐसा मुस्लिम देश है, जहां ऐसी ही व्यवस्था हो? वोट बैंक की राजनीति करने वाले सेकुलर दलों को सभ्य समाज और मानवता की रक्षा के लिए अपनी दोहरी मानसिकता त्यागनी चाहिए।