Dainik Jagran 2013-05-09

पिंजड़े में बंद तोते की कहानी

कोलगेट घोटाले की जांच रिपोर्ट सरकार से साझा करने को लेकर विगत बुधवार को सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीई को कड़ी फटकार लगाते हुए उसे ‘पिंजड़े में बंद तोते’की संज्ञा दी है। अदालत ने कहा कि यह तोता अपने पालक की जुबां ही बोलता है। इसके साथ ही अदालत ने कानूनमंत्री द्वारा रिपोर्ट में संशोधन करने और कोयला मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के सचिवों द्वारा रिपोर्ट का अवलोकन करने पर गंभीर आपत्ति जताई है। अदालत ने पूरे प्रकरण को ‘पिंजड़े में बंद एक तोते और कई मालिकों’की दुर्भाग्यपूर्ण कहानी बताया। अदालत ने सरकार को चेताते हुए साफ संकेत भी दे दिया है कि यदि सीबीआई को स्वतंत्र नहीं किया गया तो अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ेगा। अदालत की उपरोक्त टिप्पणी ऐसे समय में आई है, जब पूरी सरकार घोटालों और भ्रष्टाचार के कारण कटघरे में खड़ी है। भानुमति के पिटारे की तरह रोज यूपीए सरकार में हुए घोटाले सामने आ रहे हैं, किंतु प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह और यूपीए का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी नैतिकता को ताक पर रख बेपरवाह नजर आ रही हैं। विगत मंगलवार को सोनिया गांधी ने जिस तरह लोकसभा में अधिनायकवादी मानसिकता का परिचय दिया, उससे इस घोटालेबाज सरकार से देश को कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। कोलगेट और रेलगेट घोटाले को लेकर प्रतिपक्ष द्वारा दोषियों को बर्खास्त करने की निरंतर मांग से उकताई यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी ने विगत मंगलवार को लोकसभा में ‘दादागीरी चलेगी और ऐसे ही चलेगी,’’ कहते हुए अपनी मुट्ठियां लहराईं। यूपीए सरकार में हुए अभूतपूर्व लूटखसोट को लेकर संसद से लेकर सड़क पर जनाक्रोश पसरा है, किंतु सरकार का सारा ध्यान अपनी कारगुजारियां छिपाने पर केंद्रित है। यही कारण है कि आज नीतिगत प्रषासनिक काम का बोझ भी अदालत को वहन करना पड़ रहा है। यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल में हुए हर घोटाले को नकारने का प्रयास किया है, किंतु अदालत की चाबुक पड़ने से उसकी बोलती बंद हुई है। किंतु अदालत की अवमानना करते हुए सीबीआई की जांच रिपोर्ट सरकार से साझा करने की घटना से साफ है कि वह येनकेनप्रकारेण सर्वोच्च न्यायालय को भी निष्प्रभावी बनाने की जुगत में है। सर्वोच्च न्यायालय स्वयं कोयला घोटाले की जांच की निगरानी कर रहा है। अदालत ने सीबीआई को जांच रिपोर्ट सरकार से साझा नहीं करने की हिदायत दे रखी थी, किंतु हुआ क्या? विचित्र स्थिति है कि कोलगेट घोटाले में कोयला मंत्री और प्रधानमंत्री प्रमुख संदिग्ध हैं। उनके खिलाफ जांच करने वाली एजेंसी-सीबीआई और अदालत में उनके खिलाफ अभियोग चलाने वाले अभियोजक अटार्नी जनरल गुलाम वाहनवती और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हरिन रावल स्वयं गुनहगारों से जा मिले। अदालत में जांच रिपोर्ट पेश करने से पूर्व सीबीआई ने सरकार से न केवल रिपोर्ट साझा किया, बल्कि कानून मंत्री अष्विनी कुमार, कोयला और प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों के आदेष-निर्देष पर उसमें संषोधन भी किए गए। पहले तो अटार्नी जनरल हरिन रावल ने अदालत में हलफनाम दाखिल कर कहा कि रिपोर्ट सरकार से साझा नहीं की गई है। बाद में सीबीआई ने हलफनामा दाखिल कर रिपोर्ट साझा करने की बात स्वीकार की। इस हलफनामे में सीबीआई ने बताया है कि रिपोर्ट को लेकर सरकार के साथ तीन बैठकें हुई थीं, जिसमें कानूनमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय ने महत्त्वपूर्ण संशोधन कराए। सीबीआई द्वारा अदालत में पेश की जाने वाली स्टेट्स जांच रिपोर्ट में से कोयला आवंटन का पैरा ही गायब करा दिया गया, जबकि कोयला घोटाले का सारा विवाद ही आवंटन पर केंद्रित है। पिछले साल जून में सरकार ने आवंटित कोयला खदानों में हुए खनन की जांच के लिए एक अंतर मंत्रालय समूह बनाया था। उसने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 53 आवंटन तुरंत रद्द किया जाए। महालेखा परीक्षक ने जिन 145 कोयला ब्लॉक के कुल 57 आवंटन पर 1.86 लाख करोड़ का घोटाला होने की बात की है, उनमें से यही 53 ब्लॉक अकेले 1.85 लाख करोड़ के घोटाले के लिए जिम्मेवार हैं अर्थात् 57 में से 53 निकाल दें तो चार आवंटन केवल 1000 करोड़ के घोटाले के लिए जिम्मेवार हैं। इतने बड़े पैमाने पर लूट हुई और सरकार लंबे समय तक ‘जीरो लॉस’होने का दावा करती रही। यदि कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई तो सीबीआई ने तथ्य छिपाने, त्रुटिपूर्ण जानकारी देने और जालसाजी करने के आरोप में कंपनियों पर छापे क्यों मारे थे? उन कंपनियों के खिलाफ केस क्यों दर्ज किए गए? कोलगेट घोटाले की आंच से प्रधानमंत्री बच नहीं सकते। सीबीआई की रिपोर्ट में किया गया फेरबदल वस्तुतः प्रधानमंत्री को बचाने का भोंडा प्रयास है, जिसके कारण पूरी दुनिया में भारत की हास्यास्पद स्थिति बनी। प्रधानमंत्री स्वयं दो बार- जुलाई से नवंबर, 2004 और नवंबर, 2006 से मई 2009 कोयला मंत्री रहे हैं। कोयला राज्यमंत्री भी हमेशा कांग्रेस पार्टी के ही रहे हैं। मई, 2004 से अप्रैल, 2008 तक दषारी नारायण राव और उनके बाद संतोष बगरोडिया, जो कोलकाता के व्यापारी हैं और उनके बाद श्री प्रकाश जायसवाल, जो अभी कोयला राज्यमंत्री हैं, सभी कांग्रेसी जन हैं। विवादित ब्लॉकों का आवंटन 2005 से 2009 के बीच हुआ। इस अवधि में नवंबर, 2006 से मई, 2009 तक प्रधानमंत्री कोयला विभाग के प्रभारी थे। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेष के बाद प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार कटघरे में है। रेलगेट मामले में भी सरकार देष को बेवकूफ बनाने का प्रयास कर रही है। पवन बंसल के भांजे विजय सिंगला को रेलवे में महत्त्वपूर्ण ओहदे पर बहाली के लिए दलाली लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। इसमें बंसल की संलिप्तता से कैसे इनकार किया जा सकता है? दलाली लेने वाला भांजा अपने मामा की बदौलत ही तो बहाली कराने वाला था। महेश कुमार ने सदस्य, रेलवे (विद्युत) बनने के लिए भांजे को दस करोड़ रिश्वत देने का सौदा किया था। क्या भांजा अपनी कलम से उसे सदस्य बनाता? महेश कुमार को रेलवे बोर्ड में सदस्य बनाने की सिफारिश स्वयं रेलमंत्री ने की थी। तब रेलराज्यमंत्री अधीर रंजन चैधरी ने बाकायदा नोट भेजकर रेलमंत्री का ध्यान इस ओर दिलाया था कि वरिष्ठताक्रम में पश्चिम मध्य रेलवे के महाप्रबंधक आरसी अग्रवाल का हक इस पद पर बनता है। क्या उस समय भी वरिष्ठताक्रम की अनदेखी करने के लिए मोटी रकम वसूली गई थी? रेलवे बोर्ड का सदस्य बनाए जाने के बाद भी महेश कुमार के पास पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक का अतिरिक्त प्रभार क्यों रहने दिया गया? ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न हैं, जिनकी जांच सीबीआई को करनी होगी। किंतु यक्ष प्रश्न यह है कि क्या रेलमंत्री के पद पर बंसल के बने रहने से सीबीआई स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच करने में सक्षम होगी? कांग्रेस का इतिहास गवाह है कि ‘पिंजड़े में बंद तोता’अपने पालकों को कभी अल्पमत में जाने से उबारता है तो कभी बोफोर्स की तरह उन्हें क्लीनचिट भी देता है। अदालत के हस्तक्षेप के बाद पिंजड़े का तोता स्वच्छंद उड़ान भर पाएगा, यह भविष्य ही बताएगा। किंतु अधिनायकवादी आचरण पर उतारू कांग्रेस उसके पर काटने का प्रयास करेगी, इसमें क्या कोई संदेह शेष रह गया है?