Dainik Jagran 2014-08-06

नेपाल: नए युग की शुरुआत

भारत का प्रधानमंत्री बनने के बाद श्री नरेंद्र मोदी का विदेश दौरे पर सबसे पहले भूटान और उसके बाद पिछले दिनों नेपाल का दौरा करना क्या रेखांकित करता है? नरेंद्र मोदी नेपाली संसद को संबोधित करने वाले पहले विदेशी राष्ट्र प्रमुख बन गए हैं, किंतु उनके संबोधन के बाद जिस तरह नेपाल की जनता और संसद ने भारत पर अपना अगाध विश्वास प्रकट किया है, उसका क्या निहितार्थ है? नेपाल में भारत के कटु आलोचक माओवादी रहे हैं, किंतु मोदी के अभिभाषण के बाद पुष्प कमल दहल और बाबूराम भट्टराई जैसे माओवादी विचारकों के बदले सुर मोदी की कूटनीतिक सफलता को ही इंगित करते हैं। ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ भारत की दिषा और दशा बदलने में कर्मलीन प्रधानमंत्री ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस देषों को आमंत्रित कर यह संकेत पहले ही दे दिया था कि भारत के लिए अपने पड़ोसी देशों से बेहतर संबंध और संवाद कायम करना क्षेत्रीय विकास और सत्ता संतुलन के लिए आवश्यक है। दक्षेस देशों की एकता और उनके बीच बेहतर समन्वय मोदी की विदेश नीति की प्राथमिकता है। स्वाभाविक तौर पर अपने नेपाल दौरे में प्रधानमंत्री ने नेपाल में लोकतंत्र की मजबूती, देश के विकास और समृद्धि के लिए आवश्यक हर मदद देने का वादा किया है। नेपाल को एक बिलियन डालर की सहायता देने के साथ उन्होंने दोनों देषों के बीच दशकों से लंबित जलविद्युत परियोजनाओं को प्रारंभ करने की प्रतिबद्धता भी व्यक्त की। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि नेपाल के आंतरिक विषयों में हस्तक्षेप करने की जगह भारत उसके हर कदम में साथ देने का तैयार है। 17 साल पूर्व सन् 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल नेपाल दौरे पर गए थे, तब से लेकर अब तक नेपाल में भारी राजनीतिक बदलाव आया है। नेपाल परंपरागत हिंदू राष्ट्र से पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र की ओर अग्रसर है। सन् 2006 में माओवादी विद्रोहियों ने राजशाही को खत्म कर नेपाल में कथित लोकतंत्र की स्थापना करने का दावा किया था, किंतु पिछले आठ सालों में वहां राजनीतिक अस्थिरता का माहौल रहा है। समय-समय पर लोकतंत्र बहाली के प्रयासों के बावजूद नेपाल का अपना संविधान नहीं है। पहाड़ और तराई के क्षेत्रों में रहने वाले नेपाली नागरिकों के बीच मनभेद और मतभेद, दोनों है। नेपाल की तराई वाले क्षेत्रों का संपर्क भारत के पांच राज्यों, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और सिक्किम से है और इन क्षेत्रों में रहने वाले ‘मधेसी’ अपने को भारत के करीब पाते हैं। जबकि पहाड़ों पर रहने वाले नेपाली इन्हें बाहरी मानते हैं। व्यवस्था में मधेसियों को यथोचित प्रतिनिधित्व भी प्राप्त नहीं है। इसीलिए नेपाल दौरे में मोदी ने नेपाली जनता से अपने मतभेदों को भुलाकर एकसाथ मिलकर आगे आने और नेपाल की नई इबारत लिखने का आहवान भी किया। भारत और नेपाल के बीच सदियों पुराना संबंध है, इसलिए स्वाभाविक तौर पर नेपाल के लोग सांस्कृतिक दृष्टि से खुद को भारत के करीब पाते हैं। सन् 1950 की संधि के अनुसार दोनों देशों के बीच विशिष्ट संबंध भी हैं। इस संधि के अनुच्छेद 6 और 7 के अनुसार दोनों देशों के नागरिकों को रिहायश, संपत्ति अर्जन, रोजगार-कारोबार के क्षेत्र में बराबर के अधिकार प्राप्त हैं। दोनों को ही एक दूसरे की सीमाओं में आने-जाने की छूट है। इसी संधि के कारण विदेश सेवा को छोड़कर नेपाली नागरिक भारतीय सेना तक में काम कर रहे हैं और अपनी बहादुरी से दोनों देशों का मान-सम्मान बढ़ा पा रहे हैं। किंतु भारत विरोधी तत्व इस संधि का दुष्प्रचार कर यह साबित करने का कुप्रयास करते आए हैं कि भारत इस संधि के बूते नेपाल की संप्रभुता को दबाने का प्रयास करता है। नेपाल दौरे में मोदी ने इस संधि की पुनः विवेचना करने के लिए समिति बनाए जाने की बात भी की। उत्तरखंड एवं नेपाल की सीमा पर स्थित चंपावत जिले में सन् 1996 से महाकाली नदी पर बांध बनाने की योजना लंबित है। 5600 मेगावाट जलविद्युत पैदा करने की पंचेश्वर परियोजना तीन दशकों से लंबित है। इस में 30,000 करोड़ रु. की लागत आने का अनुमान है। भारत ने इस परियोजना के लिए 6300 करोड़ रु. देने का वादा किया है। नेपाल में छह हजार से अधिक छोटी-बड़ी नदियां हैं। विश्व के 2.27 प्रतिशत जल भंडार नेपाल में है। यदि उनका बेहतर दोहन हो तो दूसरे देशों को ऊर्जा बेचकर नेपाल आर्थिक दृष्टि से ताकतवर देश बन सकता है। एक अनुमान के अनुसार केवल ऊर्जा क्षेत्र से नेपाल सालाना 40 अरब डालर राजस्व उगाह सकता है। नेपाल में 83,000 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता है, किंतु अभी केवल 800 मेगावाट बिजली ही उत्पादन संभव हो रहा है। मोदी ने नेपाल का अंधेरा दूर करने के लिए अभी वित्तीय सहायता जरूर दी है, किंतु समझौते पर अमल हुआ तो सन् 2016 तक नेपाल दूसरे देशों का अंधेरा दूर करने में स्वयं सक्षम हो जाएगा। कूटनीतिक दृष्टि से मोदी के नेपाल दौरे का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू भी है। अब तक नेपाल के साथ रिश्तों की बागडोर अधिकांशतः नौकरशाही के स्तर तक सीमित थी और उस शून्य का बड़ा फायदा साम्राज्यवादी चीन ने उठाया है। हालांकि नेपाल के विदेशी निवेश में भारत की भागीदारी 47 प्रतिशत है और दोनों के बीच सालाना व्यापार करीब पांच अरब डालर का है। किंतु पिछले कुछ समय में नेपाल के ढांचागत विकास में चीन ने 60 प्रतिशथ निवेश किया है। तिब्बत से काठमांडू तक रेलमार्ग और सड़क का विकास चीन की महत्वाकांक्षी योजना है, जिसका सामरिक महत्त्व भी है। नेपाल में सड़क आदि आधारभूत संरचनाओं के विकास में चीन धनबल और श्रमबल, दोनों की आपूर्ति बड़ी मात्रा में कर रहा है। चीन की योजना अपने हान नागरिकों को बड़ी संख्या में नेपाल में बसाने की भी है, ताकि नेपाल की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में चीन का दबदबा कायम हो सके। प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी सरकार में माओवादियों ने एक-एक कर देश के संवैधानिक निकायों में सेंधमारी की, ताकि व्यवस्था तंत्र पर माओवादी शिकंजा कायम हो सके। सत्ता पर आते ही प्रचंड ने बीजिंग का दामन थाम लिया और भारत विरोधी रवैया अख्तियार कर लिया। इसके बाद भारत के साथ के दशकों पुराने सांस्कृतिक व धार्मिक रिश्तों पर कुठाराघात किए गए। नेपाल में राजशाही को खत्म करने के लिए पहले तो माओवादियों ने प्रजातांत्रिक दलों के साथ होने का स्वांग किया था, किंतु सत्ता में आते ही नेपाल नरेष को राजमहल से निकाल बाहर करने की माओवादियों की मांग पूरी करने के साथ उनकी सौदेबाजी भी बढ़ती गई। उन्होंने नेपाल से इकलौते हिंदू राष्ट्र होने का गौरव तो छीना ही, सुनियोजित तरीके से नेपाल की हिंदूवादी संस्कृति पर भी आघात किए गए। नेपाली माओवादियों को चीन को पूरा समर्थन प्राप्त है, जिसकी सेना सीमा पर तैनात है तो उसके प्रमुख अधिकारी आधारभूत संरचनाओं के निर्माता और वित्तीय मददगार के रूप में नेपाल में ही विराजमान हैं। मोदी के दौरे के बाद नेपाल के नीतिनियंता स्वाभाविक तौर पर चीन के बढ़ते प्रभाव पर सोचने को मजबूर होंगे। इसलिए अपने नेपाल दौरे से मोदी ने ‘एक तीर से दो शिकार किए’, यह कहना अतिषयोक्ति नहीं होगी।