Dainik Jagran 2014-06-04

शुद्ध हो जगत्तारिणी गंगा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपने सार्वजनिक जीवन का शुभारंभ गंगा आरती से किया। संभवतः वे देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं। प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार के लिए सौ दिन का जो एजेंडा तैयार किया है, उस पर अमल करते हुए जल संसाधन और पर्यटन मंत्रालय ने गंगा नदी की स्वच्छता और उसके घाटों का पुनरुद्धार कार्य प्रमुखता से लिया है। गंगा हमारी सांस्कृतिक विविधता के बीच एकता की गवाह है। हिमालय को ‘वाटर टावर ऑफ एशिया’ कहा जाता है, जहां गंगोत्री ग्लेशियर में गौमुख से निकलने वाली गंगा का आगे चलकर सहयोगी नदियों- मंदाकिनी, अलकनंदा, पिंडर, धौली, काली, गौरी गंगा और यमुना समेत सैकड़ों छोटी-बड़ी जल धाराओं से मिलन होता है। हिमालय में अपने उद्गम से निकल कर गंगा बंगाल की खाड़ी में गंगासागर में जाकर गिरती हैं। नाना प्रदेशों व भिन्न वर्ण-मतों के बीच से गुजरती हुई गंगा सर्वत्र उसी सम्मान से देखी जाती है। किंतु जगतारिणी गंगा आज विकास की अंधगति को भोगने के लिए अभिषप्त है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता की चर्चा चलते ही हमारे सामने अनायास छाती ताने विषाल हिमालय और हहराती हुई गंगा चली आती है। पर्वतराज हिमालय जहां षिव के वासस्थल के रूप में पूज्य है, वहीं गंगा षिव की जटाओं से निकली होने की मान्यता के कारण पावन मानी जाती हैं। युगों से करोड़ों जनमानस गंगा को मातृरूप में पूजता आया है। पद्मपुराण में उल्लेख है, ‘‘अग्निना दह्यते तूलं तृणं षुष्कं क्षणाद् यथा। तथा गंगाजलं स्पर्षात् पुंसां पापं दहेत् क्षणात्। (जैसे अग्नि का संसर्ग होने से रुई और सूखे तिनके क्षण भर में भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार गंगा जी अपने जल का स्पर्श होने पर मनुष्यों के सारे पाप एक ही क्षण में दग्ध कर देती हैं।) गंगा नदी न होकर भारतवासियों के लिए एक आस्था है, एक जीवन दर्शन है। हिंदू देवता ब्रह्मा, विष्णु व महेश से गंगा किसी न किसी प्रकार जुड़ी हुई हैं। इसीलिए जन्म से मृत्यु तक के विभिन्न संस्कारों में गंगाजल, गंगातटीय तीर्थस्थलों का महात्म्य है। कहा जाता है कि भगीरथ ने गंगाजल के स्पर्शमात्र से अपने पूर्वजों का उद्धार कर दिया था। अनादि काल से गंगा भारतीय संस्कृति से जुड़ी हुई हैं। पहले पश्चिमी साहित्य में सिंधु नदी की चर्चा होती थी, किंतु संपर्क बढ़ने के उपरांत गंगा की चर्चा व्यापक रूप में होने लगी। विश्वविजयी बनने का सपना देखने वाला सिकंदर भी गंगा तट तक पहुंचना चाहता था। सिकंदर ने अपने थके हुए सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा था- ‘‘यदि कोई मेरे इस युद्ध का अंत सुनना चाहता है तो उसे यह जानना चाहिए कि जब तक हम गंगा तक नहीं पहुंचें, इसका अंत नहीं है।’’ विजय अभियान पर निकले सेल्यूकस को भी गंगा ज्ञात थी। सेल्यूकस का राजदूत मेगेस्थनीज कई वर्षों तक चंद्रगुप्त की राजधानी में रहा। मेगेस्थनीज ने उल्लेख किया है- गंगा पृथ्वी की महानतम नदी है। तीसरी शताब्दी में ईसाई लेखकों ने गंगा को स्वर्ग की नदी के रूप में उल्लेख किया। अबुल फजल के ‘आइने अकबरी’ में भी गंगा की चर्चा है। अकबर को गंगाजल बहुत प्रिय था। फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने उल्लेख किया है कि औरंगजेब भी गंगा जल का सेवन करता था। अन्य फ्रांसीसी यात्री टैवर्नियर ने लिखा है कि गंगा के स्वास्थ्य संबंधी गुणों को देखकर मुसलमान नवाब गंगाजल दूर-दूर से मंगाते थे। गंगा की अविरल जलधारा इतनी पावन व पवित्र मानी गई है, जिसमें कृमिकीट व अन्य अषुद्धियों को खत्म करने की क्षमता है। हिमालय की जड़ी-बूटियों, औषधियों व अन्य खनिजों के बीच से बहती आती गंगा में ऐसे दुर्लभ गुणों की वैज्ञानिक पुष्टि भी हो गई है और ऐसे कई प्रमाण भी हैं। इंग्लैंड के सम्राट एडवर्ड सप्तम के राजतिलक समारोह में जाते समय जयपुर के राजा सवाई माधोसिंह (द्वितीय) चांदी के दो घड़ों में हरिद्वार से गंगा का 615 लीटर जल ले गए थे। ये घड़े उनकी मृत्यु के पष्चात 1922 में राजप्रासाद में रख दिए गए थे। 1962 में जब उन्हें खोला गया, तब भी गंगा जल वैसा ही निर्मल व स्वच्छ था। 1983 में हरिद्वार में गंगा जल का परीक्षण करने वाले यूनेस्को के वैज्ञानिकों ने पाया कि गंगा में मुर्दों, हड्डियों आदि विभिन्न प्रदूषणों के बहने पर भी कुछ ही फीट नीचे से जल पूर्णतः स्वच्छ था। गंगा की यह निर्मलता उसके अविरल प्रवाह के कारण है। किंतु युगों-युगों से जारी मां गंगा के प्राकृतिक एवं अविच्छिन्न प्रवाह को व्यावसायिक लाभों के लिए रोकने की कोषिष होती रही है। यह न केवल उसके प्राकृतिक स्वरूप को बिगाड़ना है, बल्कि जनआस्थाओं के साथ खिलवाड़ भी है। उत्तराखंड में बनाई जा रही जल विद्युत परियोजनाओं के कारण पर्यावरणीय संकट के साथ सामाजिक व सांस्कृतिक दुष्प्रभाव अपरिहार्य है। मनेरी, टिहरी और कोटेष्वर बांध के कारण गंगा झील और नहरों में कैद हो गई है। अंतिम संस्कार के लिए गंगा तटीय वासियों को गंगा जल दुर्लभ है। इसके साथ ही बड़ा प्रष्न यह भी है कि गंगा के अविरल प्रवाह को रोककर क्या उसकी निर्मलता को बचाना संभव होगा? ब्रिटिश राजकाल में भी गंगा के प्रवाह को रोकने की कोशिश की गई थी। 1839 में अंग्रेजी शासन के सचिव सर प्रोबी टी. कौटले ने गंगा पर नहर व बांध बनाने का काम शुरू किया। 1912 में हरिद्वार में स्थायी बांध बनाने का काम शुरू किया गया। इसके विरुद्ध विरुद्ध उभरे जनअसंतोष के कारण ब्रितानियों को अपने पैर खींचने पड़े। एक समझौते के द्वारा ब्रितानियों ने यह वादा किया कि गंगा के प्रवाह को कहीं भी रोका नहीं जाएगा। किंतु 1914 में पुनः गंगा पर बांध बनाने की कोषिष की गई। इस के विरोध में 1916 में मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में प्रबल जनविरोध शुरू हुआ। दिसंबर, 1916 में कई क्षेत्रीय राजाओं के समक्ष ब्रिटिश सरकार ने गारंटी दी कि गंगा का अविरल प्रवाह निरंतर बना रहेगा। इसमें कोई भी परिवर्तन हिंदू समाज की अनुमति के बिना नहीं होगा। किंतु आजादी के बाद पुनः गंगा के अविरल प्रवाह को रोकने की कोशिश की गई और हिंदुओं की भावनाओं का कोई ख्याल नहीं रखा गया। एक ओर हम लुप्त सरस्वती की खोज में लगे हैं तो दूसरी ओर प्रकट गंगा को विलुप्त करने की कोशिश हो रही है। हरिद्वार, प्रयाग, काशी जैसे तीर्थ स्थलों का पवित्र भाव गंगाजल के प्रवाह के कारण ही है। गंगा से जल का गायब होना करोड़ों जनभावनाओं व उनकी आस्था को ठेस पहुंचाएगा। गंगा जल की उपस्थिति के कारण ही उनके तटों पर बसे तीर्थस्थलों का महत्व है। ये तीर्थस्थल राष्ट्र की एकात्मकता के सबसे बड़े आधार स्तंभ हैं। जब गंगा के तट सूखे होंगे तो इन तीर्थस्थलों का भी कोई औचित्य नहीं रह जाएगा। भारतीय संस्कृति की प्राणरेखा, गंगा गौमुख से निकलकर गंगा सागर तक अविरल बहे, इसके लिए हमें अपने स्तर पर भी प्रकृति की रक्षा करने का संकल्प लेना चाहिए। गंगा की धारा तभी निर्मल रहेगी, जब हम उसे औद्योगिक व अन्य कचरों से प्रदूषित होने से बचा सकेंगे। अन्यथा हमारी बहुमूल्य धरोहरों का अक्षुण्ण प्रवाह आने वाली पीढ़ियों तक संभव नहीं हो सकेगा।