देश के लोकप्रिय अभिनेताओं में से एक और "थलाइवा" नाम से विख्यात- रजनीकांत (शिवाजीराव गायकवाड़) इन दिनों सुर्खियों में है। पिछले 45 वर्षों से दक्षिण भारतीय फिल्मों के साथ हिंदी सिनेमा में भी अपने दमदार अभिनय और संवाद के कारण वे देश-विदेश में बसे अपने करोड़ों प्रशंसकों के दिलों पर राज कर रहे है। फिर ऐसा क्या हुआ कि अपनी कर्मभूमि तमिलनाडु में एक वर्ग उनका न केवल विरोध कर रहा है, अपितु उनसे नाराज भी हो गया है? इसका संबंध प्रसिद्ध तमिल साप्ताहिक पत्रिका "तुगलक" की 50वीं वर्षगांठ पर 14 जनवरी को आयोजित वह कार्यक्रम है, जिसमें रजनीकांत ने कहा था- "तमिलनाडु के सेलम में एक रैली के दौरान पेरियार (इरोड वेंकट रामासामी नायकर) ने श्रीरामचंद्र और सीता की निर्वस्त्र मूर्तियों का जूतों की माला के साथ जुलूस निकाला था। किसी ने ये ख़बर नहीं छापी थी, किंतु चो रामास्वामी (तुगलक पत्रिका के संस्थापक और तत्कालीन संपादक) ने इसकी कड़ी आलोचना की थी और पत्रिका के मुख्यपृष्ठ पर इसे प्रकाशित किया था।" रजनीकांत के इस वक्तव्य से एकाएक मुख्य विपक्षी दल डीएमके (द्रमुक) और उसके समर्थक संगठन भड़क उठे। उनका कहना है- "रजनीकांत अपने वक्तव्य पर पुनर्विचार करें और झूठ बोलने के लिए माफी मांगे।" इसपर रजनीकांत का कहना है- "मैं अपनी बात से पीछे नहीं हटूंगा, मैं इसे सिद्ध भी कर सकता हूं।" पांच दशक पूर्व सेलम की जिस घटना का उल्लेख रजनीकांत ने किया है, वह वास्तव में 24 जनवरी 1971 से संबंधित है। इसे लेकर प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक "द हिंदू" ने 17 फरवरी 1971 को अपना संपादकीय भी लिखा था, जिसमें तमिल साप्ताहिक पत्रिका "तुगलक" पर हुई तत्कालीन द्रमुक सरकार की कार्रवाई का भी उल्लेख है। अब "तुगलक" 1971 के सेलम घटनाक्रम पर छपे अपने संस्करण को पुन: प्रकाशित करने जा रही है। इसपर "थंथई पेरियार द्रविड़ कषगम" नामक संगठन के कुछ लोगों ने "तुगलक" के संपादक और वरिष्ठ अर्थशास्त्री एस.गुरुमूर्ति को धमकाने के उद्देश्य से चेन्नई स्थित उनके घर पर रविवार (26 जनवरी) को पेट्रोल बम से हमले का विफल प्रयास किया। पेरियार इरोड वेंकट रामासामी नायकर कौन थे और उनके हिंदू-विरोधी चिंतन के पीछे की मानसिकता क्या थी?- इसका उत्तर "द्रविड़ आंदोलन" और "द्रविड़ कड़गम" (डी.के.) के इतिहास में मिल जाता है, जिसका जन्म भारत में चर्च और ईसाई मिशनरियों द्वारा मतांतरण अर्थात्- "आत्मा के व्यापार", ईसाइयत के प्रचार-प्रसार और साम्राज्यवादी ब्रितानियों द्वारा देश में लंबे समय तक अपने औपनिवेशिक शासन को कायम रखने हेतु हुआ था। वर्ष 1813 में चर्च के दवाब में आकर ब्रितानियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में एक विवादित धारा को जोड़ दिया, जिसके माध्यम से ईसाई मिशनरियों को भारत में आकर खुले तौर पर मतांतरण करने का रास्ता प्रशस्त हो गया था। "द वाइट मैन बर्डन" के मजहबी कर्तव्य की पूर्ति हेतु अंग्रेजी हुकूमत ने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से चर्च और ईसाई मिशनरियों को हरसंभव सुविधा भी दी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि वर्ष 1857 की पहली स्वतंत्रता क्रांति में देश का एकमात्र समाज, जो पूरी तरह अंग्रेजों के साथ और स्वाधीनता के विरोध में खड़ा था- वह केवल नव-मतांतरित ईसाई समुदाय था। जब कालांतर में ब्रितानी शासक सर सैयद अहमद खान के माध्यम से हिंदू-मुसलमान संबंधों में सदियों पुराने अविश्वास का लाभ उठाकर उत्तर-भारत में मुस्लिम अलगाववाद की पटकथा लिख रहे थे, तब मद्रास में चर्च और ईसाई मिशनरियों ने ब्राह्मणों के साथ हिंदू समुदाय के उच्च और शिक्षित वर्ग के मतांतरण का प्रयास किया। किंतु उन्हे आपेक्षित सफलता नहीं मिली। तबतक दक्षिण भारत सहित समूचे देश में स्वाधीनता की भावना सुदृढ़ हो चुकी थी और चर्च-ईसाई मिशनरियों के मजहबी एजेंडे में तत्कालीन कांग्रेस बड़ी रुकावट बन गई। तब पश्चात ईसाई मिशनरियों ने अपनी रणनीति बदली और हिंदुओं में उपेक्षित, शोषित और वंचित वर्ग- जिन्हे आज दलित कहकर संबोधित किया जाता है, उनपर अपना ध्यान केंद्रित किया। तथाकथित सामाजिक न्याय के नाम पर ब्राह्मणों के खिलाफ गैर-ब्राह्मणों को खड़ा किया गया- जिसमें से "द्रविड़ आंदोलन" का जन्म हुआ और तत्कालीन कांग्रेस के पूर्व सदस्य (1919-25) पेरियार ई.वी.रामासामी नायकर इसके मुख्य स्तंभ बनकर उभरे। 1947 आते-आते वे खुलकर हिंदुओं को ईसाइयत और इस्लाम मतांतरण के लिए प्रेरित करने लगे। कुटिल मानसिकता के साथ गैर-ब्राह्मणों को एकजुट करने के उद्देश्य से ब्रितानी शासकों के संरक्षण में वर्ष 1917 में जस्टिस पार्टी का गठन हुआ, जो 1944 के बाद "द्रविड़ कड़गम" (डी.के.) के नाम से प्रचलित हुई। सामाजिक न्याय के नाम पर इस दल ने भारत में अंग्रेजों के शाश्वत राज की कल्पना की और तत्कालीन कांग्रेस को ब्राह्मणों की पार्टी घोषित कर दिया। पार्टी का कुतर्क था- यदि भारत से अंग्रेज चले गए, तब देश पर ब्राह्मणों का राज होगा और मनुस्मृति को लागू करते हुए ब्राह्मणों को छोड़कर बाकी सभी लोग दोयम दर्जे के नागरिक हो जाएंगे। अंग्रेजों के प्रति वफादार जस्टिस पार्टी ने जलियांवाला बाग कांड में जनरल डायर के निर्देश पर हुए नरसंहार का समर्थन तक कर दिया था। कालांतर में पेरियार ने योजनाबद्ध तरीके से आत्म-सम्मान आंदोलन (द्रविड़ आंदोलन) शुरू किया, जिसमें असमानता और अन्याय के नाम पर "ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण", "हिंदी बनाम तमिल", "तमिलवासी बनाम गैर-तमिलवासी", "दक्षिण-भारत बनाम उत्तर-भारत" का विषाक्त राजनीतिक दर्शन था। जब 1939 में पेरियार जस्टिस पार्टी के मुखिया बने, तब उन्होंने कालांतर में पार्टी का नाम द्रविड़ कड़गम करते हुए "द्रविड़नाडु" नामक पृथक राष्ट्र की मांग कर मुस्लिम लीग के पाकिस्तान आंदोलन को समर्थन दे दिया। यही नहीं, स्वतंत्रता के बाद 26 जनवरी 1950 को लागू हुए भारतीय संविधान को परियार ने शोक दिवस के रूप में मनाया। वास्तव में, पेरियार का द्रविड़ आंदोलन घृणा और वैमनस्य के दर्शन पर टिका हुआ था। इसलिए वे हिंदू