Amar Ujala 2021-01-22

किसान आंदोलन- यथास्थितिवाद का पलटवार

शुक्रवार (22 जनवरी) को सरकार और किसान संगठनों के बीच 11वें दौर का संवाद होगा। क्या दोनों पक्ष किसी समझौते पर पहुंचेंगे? इससे पहले बुधवार (20 जनवरी) की बातचीत तो विफल हो गई, परंतु समझौते के बीज अंकुरित होते दिखाई दिए। जहां आंदोलनकारी किसान तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग पर अड़े है, वही सरकार किसी भी कीमत पर आंदोलनकारी किसानों पर बलप्रयोग करने से बच रही है। प्रारंभ में सरकार इन कानूनों के माध्यम से कृषि क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन लाने हेतु कटिबद्ध दिख रही थी। किंतु लोकतंत्र में दृढ़-निश्चयी अल्पसंख्यक वर्ग कैसे एक अच्छी पहल को अवरुद्ध कर सकता है- कृषि कानून संबंधित घटनाक्रम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। सर्वप्रथम, यह नए कृषि कानून अकस्मात नहीं आए। पिछले दो दशकों से कृषि क्षेत्र की विकासहीनता और उसके शिकार किसानों द्वारा आत्महत्याओं से सभी राजनीतिक दल चिंतित है और उसमें सुधार को प्राथमिकता देते रहे है। इसी पृष्ठभूमि में सत्तारुढ़ भाजपा ने 2019 लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में 2022-23 तक किसान आमदनी को दोगुना करने का वादा किया था। इसके लिए सरकार जहां सरकार 23 कृषि उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिया, तो पीएम-किसान योजना के माध्यम से सात किस्तों में 1.26 लाख करोड़ रुपये भी 11.5 करोड़ किसानों के खातों में सीधा पहुंचाया। फिर भी हजारों किसान पिछले डेढ़ महीने से दिल्ली सीमा पर धरना दे रहे है। इस स्थिति कारण ढूंढने हेतु हमें थोड़ा पीछे जाना होगा। भारत 1960 दशक में भूखमरी के कगार पर था। न ही हम अपनी जरुरत के अनुरूप अनाज पैदा कर पा रहे थे और न ही हमारे पास अंतरराष्ट्रीय बाजार से खरीदने हेतु विदेशी मुद्रा थी। तब देश घटिया गुणवत्ता के अमेरिकी पीएल-480 गेहूं पर निर्भर था। इस विकट स्थिति को आम-बोलचाल की भाषा में Ship to Mouth कहा जाता था। फिर रसायनिक खादों के दौर, नए बीजों, किसानों के अथक परिश्रम और सरकारी नीतियों से भारतीय कृषि की सूरत बदल गई। उसी कालखंड में गेहूं-धान पर भी पहली बार एमएसपी लागू हुआ था।
Punjab Kesari 2020-12-09

क्या दक्षिण की राजनीति बदलेगी?

क्या अब दक्षिण भारत की राजनीति में परिवर्तन आएगा? अभी तक कर्नाटक को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी की आंधप्रदेश, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु में उपस्थिति अभी बहुत सीमित है। यहां तक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी इस चार प्रदेशों की भाजपा ईकाई में जान नहीं फूंक पाई है। किंतु क्या अब इसमें परिवर्तन होगा? हाल ही में ग्रेटर हैदराबाद नगर निकाय चुनाव के नतीजे आए, जिसमें भाजपा 4 से सीधा 48 सीटों पर पहुंच गई। वर्ष 2016 के चुनाव में जहां उसे 10.34 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे, वह इस वर्ष बढ़कर 35.5 प्रतिशत पर पहुंच गया। इससे पहले तेलगांना विधानसभा की एक सीट पर हुए उप-चुनाव में भी भाजपा 38.5 प्रतिशत मतों के साथ विजयी हुई थी। ऐसा क्या हुआ है कि दक्षिण भारत में भाजपा एक विकल्प बन रही है? इस प्रश्न का उत्तर- कांग्रेस के वैचारिक स्खलन और उसके संकुचित होते राजनीतिक आधार में छिपा है। स्वतंत्रता के समय तक कांग्रेस का वैचारिक अधिष्ठान सरदार पटेल के राष्ट्रवाद और गांधीजी के सनातन विचारों से ओतप्रोत था। किंतु इन दोनों जननेताओं के निधन पश्चात कांग्रेस पर "समाजवादी" पं.नेहरू का प्रभाव बढ़ गया। परिणामस्वरूप, कालांतर में पं.नेहरू की सुपुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 1969-70 में वामपंथी चिंतन को आत्मसात करने के बाद कांग्रेस का शेष राष्ट्रवादी और सनातनी दृष्टिकोण विकृत हो गया।
Amar Ujala 2020-11-12

बिहार चुनाव और उसके परिणाम में निहित संदेश

हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव का परिणाम आया। कांटे की टक्कर में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन पूर्ण बहुमत के साथ बिहार में फिर से सरकार बनाने में सफल हुई। वहां राजग- विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, वामपंथियों ने मिलकर जिस महागठबंधन की छत्रछाया में चुनाव लड़ा, उसका घोषित आधार "सेकुलरवाद" था। क्या बिहार में मोदी-नीतीश की जीत, सेकुलरिज्म की हार होगी?- नहीं। वास्तव में, यह उस विकृत गोलबंदी की पराजय थी, जिसका दंश भारतीय राजनीति दशकों से झेल रहा है। स्वतंत्रता के बाद देश नेहरूवादी नीतियों से जकड़ा हुआ था, जिसमें वाम-समाजवाद का प्रभाव अत्याधिक था। जब आपातकाल के दौरान 1976 में असंवैधानिक रूप से बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा रचित संविधान की प्रस्तावना में लिखे "संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य" में "सेकुलर" शब्द जोड़ दिया गया, तब स्थिति और विकृत हो गई। उस समय तक भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी। परिणामस्वरूप, 1991 में देश को अपने दैनिक-व्यय और अंतरराष्ट्रीय देनदारियों की पूर्ति हेतु अपना स्वर्ण भंडार गिरवी रखने की शर्मिंदगी झेलनी पड़ी।
Punjab Kesari 2020-11-11

बिहार वि.स. चुनाव 2020- भाजपा का स्ट्राइक रेट क्या कहता है?

बिहार में अधिकांश एग्जिट/ओपीनियन पोल के अनुमानों को धता बताकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने बिहार में बहुमत प्राप्त कर लिया। परिणाम से अधिक उसमें निहित तीन संदेश काफी महत्वपूर्ण है। पहला- राजग के मुख्य दल भारतीय जनता पार्टी का स्ट्राइक रेट- अर्थात् 110 सीटों पर उसने चुनाव लड़ा और 74 सीटों पर उसकी विजय हुई- वह 67.2 प्रतिशत से अधिक है। स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सशक्त, राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण छवि और लोकप्रियता के साथ भाजपा की राष्ट्रीय नीतियों पर बिहार के मतदाताओं ने मुहर लगा दी। बिहार के अतिरिक्त 11 राज्यों की 59 विधानसभा सीटों पर हुए उप-चुनाव में भाजपा 41 सीटों पर विजयी हुई है। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार बनी रहेगी, क्योंकि यहां हुए उप-चुनाव में भाजपा 28 में से 19 सीटें जीतने में सफल हुई है। मणिपुर की 5 से 4 सीटों पर भाजपा ने विजय प्राप्त की है। इसके अतिरिक्त उत्तरप्रदेश, जहां गत दिनों हाथरस कथित बलात्कार मामले को लेकर स्वघोषित सेकुलरवादियों और स्वयंभू उदारवादियों ने हिंदू समाज को जाति के नाम पर बांटने का प्रयास किया था- वहां 7 सीटों पर हुए उप-चुनाव में से 6 पर भाजपा ने अपना परचम लहराया है। तेलंगाना में एक सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा 38.5 प्रतिशत मतों के साथ विजयी हुई है। कर्नाटक उपचुनाव में भाजपा ने 52 प्रतिशत वोट, गुजरात में 55 प्रतिशत वोट के साथ ओडिशा, नागालैंड, झारखंड और हरियाणा के उप-चुनाव में भी दमदार प्रदर्शन किया है। इन राज्यों के जनादेश ने भी स्पष्ट कर दिया है कि जनता अब ढोंगी सेकुलरवाद के नाम पर टुकड़े-टुकड़े गैंग, देशविरोधियों और अलगाववादी शक्तियों को बिल्कुल भी सहन नहीं करेगी और उसे अपने मताधिकार से चुनौती देती रहेगी।
Amar Ujala 2020-10-17

गुलाम मानसिकता के प्रतीक हैं फारूक अब्दुल्ला

भारत क्यों 800 वर्षों तक गुलाम रहा?- इसका उत्तर, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला के हालिया वक्तव्य में मिल जाता है। एक टीवी चैनल द्वारा पूछे चीन संबंधी सवाल पर अब्दुल्ला कहते हैं, "अल्लाह करे कि उनके जोर से हमारे लोगों को मदद मिले और धारा 370-35ए बहाल हो।" फारूक का यह वक्तव्य ऐसे समय पर आया है, जब सीमा पर भारत-चीन युद्ध के मुहाने पर खड़े है। यह ना तो कोई पहली घटना है और ना ही फारूक ऐसा विचार रखने वाले पहले व्यक्ति। वास्तव में, फारूक उन भारतीयों में से एक है, जो "बौद्धिक दासता" रूपी रूग्ण रोग से ग्रस्त है। यह पहली बार नहीं है, जब भारत में "व्यक्तिगत हिसाब", "महत्वकांशा" और "मजहबी जुनून" पूरा करने और सत्ता पाने की उत्कंठा में जन्म से "भारतीय" अपने देश के लिए गद्दार या विदेशी शक्तियों के दलाल के रूप में सामने आए हो।





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