"अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" पर यह कैसा दोहरा मापदंड?
विगत कई वर्षों से देश में बार-बार "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" और "असहमति के अधिकार" का मुद्दा विपक्ष द्वारा उठाया जा रहा है। क्या मोदी सरकार में देश के भीतर ऐसा वातावरण बन गया है, जिसमें अन्य विचारों के प्रति असहिष्णुता बढ़ गई है? नववर्ष 2020 के मेरे पहले कॉलम में इस प्रश्न का जन्म केरल की उस घटना के गर्भ से हुआ है, जिसमें राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को अपनी राय रखने से मार्क्सवादी इतिहासकार इरफान हबीब ने न केवल रोकने का प्रयास किया, अपितु आरिफ तक पहुंचने की कोशिश में उन्होंने सुरक्षाकर्मियों से धक्का-मुक्की तक भी कर डाली।
विडंबना देखिए कि देश का जो वर्ग वर्ष 2014 से उपरोक्त संवैधानिक मूल्यों के तथाकथित हनन को मुद्दा बनाकर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रहा है, वह केरल के मामले में चुप है और इसके विरुद्ध कोई आंदोलन भी नहीं कर रहे है। क्या केरल का घटनाक्रम असहिष्णुता के साथ "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" और "असहमति के अधिकार" पर अघात नहीं है? आखिर इस दोहरे मापदंड के पीछे कौन-सा विचार है?