कश्मीरी हिंदुओं का पलायन: दोषी कौन?
विगत गुरुवार (24 जून) जम्मू-कश्मीर को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देश के 14 नेताओं के साथ बैठक हुई। तब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने अन्य विषयों के साथ, घाटी में कश्मीरी पंडितों के पुर्नवास की मांग भी रखी। क्या यह सत्य नहीं कि तीन दशक पहले जिस कुत्सित मानसिकता ने लगभग पांच लाख कश्मीरी पंडितों को पलायन हेतु विवश किया, वह मजहबी घृणा से प्रेरित जिहाद था और घाटी में व्याप्त इको-सिस्टम दशकों से उसी चिंतन से जनित है? क्या उसी दर्शन को घाटी में पुष्ट करने या फिर उसपर अपनी आंख मूंदे रहने के लिए यही 14 नेता किसी न किसी रूप में जिम्मेदार नहीं? क्या यह सत्य नहीं कि जब कश्मीरी पंडित जघन्य अपराध के शिकार हो रहे थे और कालांतर में न्याय की मांग कर रहे थे, तब इन्हीं नेताओं में से कोई न कोई प्रदेश के जिम्मेदार पद पर थे?
कश्मीरी पंडितों की निर्मम हत्या, उनकी महिलाओं से बलात्कार, उनकी पैतृक संपत्ति पर कब्जा करने वाले हजारों में से शायद ही किसी को सजा हुई है। यह ठीक है कि इन मामलों में दर्ज कुछ प्राथमिकियों में आरोपियों के नाम थे और जांच का नाटक भी हुआ, किंतु अधिकांश जमानत पर बाहर है। क्या इस अन्याय के लिए यही 14 नेता जिम्मेदार नहीं, जोकि अलग-अलग समय पर प्रदेश की सत्ता में रहे?
कश्मीरी पंडितों के खिलाफ "काफिर-कुफ्र" जनित जिहाद की शुरूआत 14 सितंबर 1989 को हुई थी। तब श्रीनगर स्थित हब्बाकदल में प्रतिष्ठित अधिवक्ता, समाजसेवी और जनसंघ/भाजपा के बड़े नेता पंडित टीकालाल टपलू की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई थी। उसी वर्ष चार नवंबर को आतंकियों ने सेवानिवृत न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की श्रीनगर में व्यस्तम हरिसिंह मार्ग पर सरेआम गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया। वे कश्मीरी पंडितों के सबसे मुखर चेहरों में से एक थे।
घोर घृणाग्रस्त और अंधा-लालच या फिर इन दोनों दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति या समूह- समाज को कितने भयंकर संकट में डाल सकता है, इसकी बानगी हमें कोविड-19 के दौर में देखने को मिल रही है। इस विकृत कड़ी में नवीनतम प्रयास कांग्रेस में सोशल मीडिया और डिजिटल संचार के राष्ट्रीय समन्वयक गौरव पांधी ने हाल ही में किया है। उन्होंने कोवैक्सीन में "गाय के नवजात बछड़े का सीरम" होने का दावा किया था। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि पांधी या फिर उनकी पार्टी की गोवंश के प्रति कोई श्रद्धा है। यहां गौरव का उद्देश्य केवल लोगों को वैक्सीन के प्रति पुन: हतोत्साहित करना है। स्मरण रहे कि 2017 में केरल की सड़क पर कांग्रेस के नेताओं ने दिनदहाड़े सरेआम गाय के बछड़े की हत्या और उसके मांस का सेवन करके "सेकुलरवाद" में अपनी आस्था का प्रमाण दिया था।
वैश्विक महामारी के खिलाफ भारत विगत वर्ष से संघर्षरत है। किंतु विशुद्ध राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से घृणा करने वालों का कुनबा- इस युद्ध में भारत का पक्ष कमजोर कर रहा है। इस षड़यंत्र के एक छोर पर जहां सांप्रदायिक मानस से प्रेरित उत्तरप्रदेश की कनिष्ठ स्वास्थ्य कर्मचारी निहा खान है, तो दूसरी ओर प्रभावशाली स्थानों पर आसीन स्वघोषित सेकुलरवादियों की जमात- दुष्प्रचार और कुतर्क के आधार पर कोविड विषाणु के साथ खड़ी है। इस कुनबे को "कोरोना बंधु" की संज्ञा से भी परिभाषित किया जा सकता है।
खतरे में चीन की विश्वसनीयता
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन की स्थिति कितनी खराब है, इसका अंदाजा हाल के वैश्विक घटनाक्रम से सहज लग जाता है। दुनिया की सात सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले समूह जी-7 ने कोविड-19 संक्रमण उत्पत्ति संबंधित जांच में पारदर्शिता लाने का आह्वान किया है। वही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी अपना पुराना रूख बदलते हुए चीन से कोरोनावायरस के स्रोत ढूंढने की जांच में सहयोग करने को कहा है। इसपर चीन की सख्त प्रतिक्रिया भी आई है। यह अकाट्य सत्य है कि समस्त विश्व में कई रूपों में तबाही मचा रहा कोविड-19 अपनी उत्पत्ति के डेढ़ वर्ष बाद भी एक रहस्य बना हुआ है।
क्या कोविड-19 एक प्राकृतिक वायरस है या इसकी उत्पत्ति चीन में मानवीय भूल या फिर किसी विशेष उद्देश्य के लिए हुई है? अबतक जो शोध सामने आए है, उसके अनुसार- इस संक्रमण का पहला मामला चीन के वुहान में ही सामने आया था। वुहान वही चीनी नगर है, जहां उच्च सुरक्षा वाला अनुसंधान केंद्र- "इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी" स्थित है और उसी हुनान सी-फूड बाजार से सटा हुआ है, जहां सबसे पहले कोरोना मामलों का विस्फोट हुआ था। कालांतर में यह वायरस वुहान से पूरी दुनिया में फैल गया और अगले 18 माह में अबतक लगभग 18 करोड़ लोग संक्रमित कर चुका है, जिसमें 38 लाख से अधिक पीड़ित कालकवलित हो चुके है। यही नहीं, इस संक्रमण जनित प्रतिकूल परिस्थितियों (लॉकडाउन सहित) से विश्व की बड़ी-बड़ी विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाएं देखते ही देखते धराशायी हो गई।
दोमुंहे अमेरिका से सचेत रहे भारत
विगत दिनों सामने आए एक घटनाक्रम ने अमेरिका के वास्तविक चेहरे को पुन: रेखांकित कर दिया। पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह भारत-अमेरिका के बीच संबंध प्रगाढ़ हो रहे है, उसमें 7 अप्रैल की एक घटना ने न केवल दोनों देशों के राजनयिक संबंधों में अड़ंगा डालने का काम किया है, अपितु अमेरिका ने भारत और चीन को एक लाठी से हांकने का प्रयास भी किया है।
आखिर 7 अप्रैल को क्या हुआ था? उस दिन अमेरिकी नौसैनिक जहाज़ जॉन पॉल जोन्स (डीडीजी 53), जो विध्वंसक मिसाइलों से लैस था- उसने लक्षद्वीप समूह के समीप 130 समुद्री मील पश्चिम में भारत के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र में न केवल बिना अनुमति प्रवेश करने का साहस किया, अपितु सार्वजनिक रूप से अमेरिकी नौसेना के सातवें बेड़े ने अपनी वेबसाइट पर हेकड़ी दिखाते हुए इस अभियान की जानकारी दी। उसने कहा कि हमनें अपने शत्रुओं और मित्रों द्वारा समुद्र पर किए गए दावों चुनौती दी है।
अपने बयान में अमेरिकी नौसेना ने इस कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अनुरूप बताते हुए कहा, "फ़्रीडम ऑफ़ नैविगेशन ऑपरेशन के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अंतर्गत अधिकारों, स्वतंत्रता और समुद्र के वैधानिक उपयोग को बरकरार रखा गया है और भारत के अत्यधिक समुद्री दावों को चुनौती दी गई है। जहां भी अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अनुसार अनुमति होगी, वहां अमेरिका उड़ान भरेगा, जहाज़ लेकर जाएगा और कार्रवाई करेगा।"
भारत विरोधी शक्तियों के नए हथियार
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर चरम पर पहुंच चुका है। कांग्रेस, तृणमूल सहित कई स्वघोषित सेकुलरिस्ट अपने प्रचार में पुन: "लोकतंत्र-संविधान खतरे में है" जैसे जुमलों का उपयोग करके सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कटघरे में खड़ा कर रहे है। इस बार इन दलों ने इसके लिए उन विदेशी संगठनों की रिपोर्ट को आधार बनाया है, जिसमें भारत के लोकतांत्रिक स्वरूप के तथाकथित रूप से क्षीण होने और देश में निरंकुशता बढ़ने की बात कही गई है। इन्हीं संगठनों में से एक "फ्रीडम हाउस", तो दूसरी "वी-डैम" है।
यह निर्विवाद सत्य है कि हमारा देश 800 वर्षों के परतंत्र कालखंड के बाद स्वयं को उभारने हेतु प्रयासरत है और इस दिशा में ऐतिहासिक भूलों को सुधारते हुए अभी बहुत कुछ करना शेष है। हाल के वर्षों में भारत में हो रहे सकारात्मक परिवर्तन को शेष विश्व अनुभव भी कर रहा है। स्वदेशी कोविड-19 टीका संबंधी भारत का "वैक्सीन मैत्री अभियान"- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
एक अकाट्य सत्य यह भी है कि भारत अपनी सांस्कृतिक पहचान के कारण हजारों वर्षों से पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक बना हुआ है। वह ऐसा केवल भारतीय संविधान में "सेकुलर" शब्द जोड़ने या अन्य किसी प्रावधान के कारण नहीं है- क्योंकि यदि ऐसा होता, तो देश का "सेकुलर" संविधान इस्लामी चरित्र वाले घाटी में कश्मीरी पंडितों को जिहाद की खुराक बनने से बचा लेता। किंतु ऐसा हुआ नहीं। सच तो यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में खंडित भारत का हिंदू चरित्र ही इस भूखंड के लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्षी होने की एकमात्र गारंटी है।
जम्मू-कश्मीर में परिवर्तन का दौर
क्या जम्मू-कश्मीर अपनी मूल सांस्कृतिक विरासत की पुनर्स्थापना की ओर अग्रसर है? इसका उत्तर जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा लिए एक निर्णय में मिल जाता है। उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की अध्यक्षता वाली प्रशासनिक परिषद ने एक अप्रैल को तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) को जम्मू संभाग में 25 हेक्टेयर भूखंड पर तिरुपति बालाजी मंदिर की भांति देवालय बनाने की स्वीकृति दी है। इस संबंध में टीटीडी को 40 वर्षों के लिए पट्टे पर जमीन मिलेगी, जहां वेद-पाठशाला, आध्यात्मिक/ध्यान केंद्र आदि का निर्माण किया जाएगा।
धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण और जम्मू-कश्मीर राज्य के पुनर्गठन के बाद यह संभवत: पहला ऐसा निर्णय है, जिसमें इस भूखंड की मूल पहचान को पुनर्स्थापित करने के उद्देश्य से किसी हिंदू सनातनी धर्मार्थ संगठन को भूमि दी गई है। वर्ष 1932 में तत्कालीन तमिलनाडु सरकार ने तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम मंडल का गठन किया था। करोड़ों हिंदुओं की मान्यता और उनका विश्वास है कि आंध्रप्रदेश स्थित तिरुमाला की पहाड़ियों में भगवान विष्णु, तिरुपति बालाजी के रूप में अपनी पत्नी पद्मावति के साथ विराजमान हैं। यहां हर वर्ष श्रद्धालु बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। इस मंदिर की गणना देश के कुछ सबसे धनी मंदिरों में होती है।
दलित मुस्लिम गठजोड़ कितना स्वाभाविक?
दिल्ली स्थित सराय काले खां घटनाक्रम से स्वयंभू सेकुलरवादी, वामपंथी-जिहादी और उदारवादी-प्रगतिशील कुनबा अवाक है। इसके तीन कारण है। पहला- पूरा मामला देश के किसी पिछड़े क्षेत्र में ना होकर राजधानी दिल्ली के दलित-बसती से संबंधित है। दूसरा- इस कृत्य को प्रेरित करने वाली मानसिकता के केंद्रबिंदु में घृणा है। और तीसरा- पीड़ित वर्ग दलित है, तो आरोपी मुस्लिम समाज से संबंध रखता है। "जय भीम-जय मीम" का नारा बुलंद करने वालों और दलित-मुस्लिम गठबंधन के पैरोकारों के लिए इस घटनाक्रम में तथ्यों को अपने विकृत नैरेटिव के अनुरूप तोड़ना-मरोड़ना कठिन है।
मामला सराय काले खां से सटे दलित बस्ती में 22 वर्षीय हिंदू युवक के 19 वर्षीय मुस्लिम युवती से प्रेम-विवाह से जुड़ा है। सोशल मीडिया में वायरल तस्वीरों और मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, सुमित नामक युवक ने 17 मार्च को एक मंदिर में हिंदू वैदिक संस्कार और रीति-रिवाज के साथ अपनी प्रेमिका खुशी से विवाह किया था। उसी मंदिर में मुस्लिम युवती ने अपनी इच्छा से मतांतरण भी किया। इस संबंध में युवती ने थाने जाकर सहमति से शादी करने संबंधी बयान भी दर्ज करवाया था।
इन सबसे नाराज मुस्लिम लड़की के परिजनों और उनके साथियों ने 20 मार्च (शनिवार) रात दलित बस्ती में घुसकर जमकर उत्पात मचाया और दोनों को जान से मारने की धमकी दी। देर रात 20-25 युवकों की मुस्लिम भीड़ ने हिंदुओं की कुल तीन गलियों को निशाना बनाकर तलवार लाठी डंडे और पत्थरों के साथ हमला कर दिया। आरोपी पक्ष पर आरोप है कि वे "खून की होली" खेलने जैसी धमकियां दे रहे थे। दिल्ली पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज करके युवती के भाई सहित चार युवकों को गिरफ्तार किया है। आलेख लिखे जाने तक, क्षेत्र में फिलहाल शांति है और अर्धसैनिक बल तैनात हैं। पीड़ित प्रेमी-युगल ने एक वीडियो जारी करके स्थानीय प्रशासन से सुरक्षा मांगी है, तो दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुलिस से 6 अप्रैल तक रिपोर्ट।
चीन: चोर की दाढ़ी में तिनका
गत दिनों क्वाड देशों- भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच सुरक्षा संवाद हुआ। वर्चुअल कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से संपन्न इस अनौपचारिक स्वरूपी सम्मेलन का महत्व इसलिए भी अधिक है, क्योंकि पहली बार चारों देशों के राष्ट्रप्रमुखों ने बैठक की। यूं तो बैठक में स्वतंत्र, मुक्त और समृद्ध हिंद-प्रशांत क्षेत्र, महामारी कोविड-19 रोधी टीकाकरण, जलवायु परिवर्तन, समुद्री सुरक्षा और उभरती प्रौद्योगिकियों जैसे विषय पर बात हुई, जिसमें चीन का किसी भी सदस्य देश ने एक बार भी नाम नहीं लिया गया। फिर भी चीन भड़क गया।
चीनी विदेश मंत्रालय के अनुसार, "हमें उम्मीद है कि संबंधित देश इस बात को ध्यान में रखेंगे कि क्षेत्रीय देशों के समान हितों में खुलेपन, समावेशीकरण और लाभकारी सहयोग के सिद्धांतों को बरकरार रखा जाए। ऐसी नीतियों पर बल दिया जाए, जो विरोधाभासी होने के बजाय क्षेत्रीय शांति, स्थिरता और समृद्धि के लिए हितकर हो।" इससे पहले चीन क्वाड समूह को "मिनी नाटो" अर्थात् सैन्य गठबंधन तक कह चुका है। क्वाड समूह, जो अभी तक अपने अनौपचारिक स्वरूप में है- आखिर उससे चीन इतना असहज क्यों है?
अनौपचारिक चतुर्भुज सुरक्षा संवाद पर चीन की बौखलाहट का कारण क्वाड का चीनी अधिनायकवाद विरोधी दृष्टिकोण है। यह सही है कि नवंबर 2020 में क्वाड देशों ने अरब सागर में नौसेना अभ्यास में भाग लिया था, किंतु यह कोई सैन्य गठबंधन नहीं है। वास्तव में, इस समूह की मूल अवधारणा में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बहुपक्षीय व्यापार और वाणिज्य की स्वतंत्रता को सुनिश्चित कराना है। साथ ही चीन के एक-पक्षीय और कुटिल साम्राज्यवादी राजनीति को ध्वस्त करके क्षेत्र में अन्य शक्तियों को समरुप और अधिक विकल्प देना है। इस चतुष्कोणीय समूह को बनाने का विचार वर्ष 2007 में जापान द्वारा तब प्रस्तावित हुआ था, जब चीन ने दक्षिण चीन सागर, जोकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है- उसके जलमार्ग पर उग्र रूप से अपना दावा जताना तेज कर दिया था। चीन पूरे दक्षिण चीन सागर पर अपनी सम्प्रभुता का दावा करता है। किंतु वियतनाम, मलेशिया, फिलीपींस, ब्रुनेई और ताइवान भी इसपर अपना अधिकार जताते हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत
भारतीय अर्थव्यवस्था, जोकि महामारी कोविड-19 के कारण अन्य देशों की आर्थिकी की भांति ध्वस्त हो गई थी- क्या वह पटरी पर लौटने लगी है? इस संबंध में उद्योग जगत से लेकर मूडीज-फिच जैसी वैश्विक रेटिंग संस्थाओं और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे प्रमाणित वैश्विक संगठनों ने पिछले दिनों में अपनी जो रिपोर्ट प्रस्तुत की, उसमें भारत की आगामी स्थिति न केवल अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक सकारात्मक बताई गई है, अपितु अधिकांश ने वित्तवर्ष 2021-22 में देश की भावी विकास दर- दहाई अंक में रहने की संभावना जताई है। आखिर वे क्या कारण है, जिनसे संकेत मिलते है कि भारतीय आर्थिकी कोरोनावायरस के चंगुल से बाहर आने लगी है?
इसके कई कारण है- जिसमें स्वदेशी कोविड-19 टीकाकरण मुख्य भूमिका निभा रहा है। कोरोनाकाल में देश की आर्थिकी लगातर दो तिमाही में शून्य से 24 प्रतिशत नीचे गिर गई थी। किंतु मोदी सरकार द्वारा कई आर्थिक प्रोत्साहन पैकेजों की घोषणा और कोविड-19 जनित संकट से निपटने हेतु समयोचित नीतियों के कारण ही अक्टूबर-दिसंबर तिमाही के आंकड़े में आर्थिक वृद्धि दर सकारात्मक अंक 0.4 प्रतिशत पर पहुंच गई। इसमें सेवा क्षेत्र ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस क्षेत्र का कारोबारी सूचकांक (पीएमआई) फरवरी माह में 55.3 अंक रहा, जो जनवरी में 52.8 था। यह लगातार पांचवां महीना है, जब सेवा क्षेत्र की गतिविधियों में वृद्धि हो रही है।
कांग्रेस ब्रांड सेकुलरवाद
भारत में "सेकुलरवाद" कितना विकृत हो चुका है- इसे आगामी विधानसभा चुनावों ने फिर रेखांकित कर दिया। कांग्रेस ने भाजपा के विजय-उपक्रम को रोकने हेतु कुछ तथाकथित "सेकुलर" राजनीतिक दलों से चुनावी समझौता किया है। प.बंगाल में जहां उसने वामपंथियों के साथ हुगली स्थित फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की "इंडियन सेकुलर फ्रंट" (आई.एस.एफ.) से गठबंधन किया है, वही असम में मौलाना बदरुद्दीन अजमल की "ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट" (ए.आई.यू.डी.एफ.) के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है। इन दोनों मजहबी राजनीतिक दलों का परिचय उनके राजनीतिक दृष्टिकोण, जोकि शरीयत और मुस्लिम हित तक सीमित है- उससे स्पष्ट है।
यह पहली बार नहीं है, जब देश में सेकुलरवाद के नाम पर इस्लामी कट्टरता और संबंधित मजहबी मान्यताओं को पोषित किया जा रहा है। कटु सत्य तो यह है कि स्वतंत्रता से पहले और बाद में, सेकुलरिज्म की आड़ में जहां मुस्लिमों को इस्लाम के नाम पर एकजुट किया जा रहा है, वही हिंदू समाज को जातिगत राजनीति से विभाजित करने का प्रयास हो रहा है। इस विकृति का न केवल बीजारोपण, अपितु उसे प्रोत्साहित करने में कांग्रेस ने महती भूमिका निभाई है।
कांग्रेस की इस्लामी कट्टरवादियों से गलबहियां नई नहीं है। केरल में 1976 से कांग्रेस नीत यूनाइनेड डेमोक्रेटिक फ्रंट में "इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग" (आई.यू.एम.एल.) सहयोगी बनी हुई है। यह दल उसी मुस्लिम लीग का अवशेष है, जिसने "काफिर-कुफ्र" की अवधारणा से प्रेरित होकर और हिंदुओं के साथ सत्ता साझा करने से इंकार करते हुए 1947 में देश का रक्तरंजित विभाजन कराया था।