क्या "लव-जिहाद" वास्तविकता है या मिथक? यह प्रश्न इसलिए उठ रहा है, क्योंकि गत 24 नवंबर को उत्तरप्रदेश सरकार ने गैरकानूनी मतांतरण संबंधी अध्यादेश पारित कर दिया। मध्यप्रदेश, हरियाणा, असम और कर्नाटक की सरकारों ने भी ऐसा ही कानून लाने निर्णय किया है। प्रस्तावित प्रारूप के अनुसार, बहला-फुसलाकर, प्रलोभन, लालच, बलपूर्वक, झूठ बोलकर हुए मतांतरण को अपराध माना जाएगा और ऐसा करने वाले को 1-10 वर्ष कारावास हो सकती है। यह सभी लोगों पर समान रूप से लागू होगा।
जैसे ही इसपर सार्वजनिक विमर्श शुरू हुआ, वैसे ही स्वघोषित सेकुलरिस्टों और वामपंथियों के कुनबे ने इसे सांप्रदायिक और प्रतिगामी बताकर सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कटघरे में खड़ा कर दिया। इसी बीच विवाह हेतु मतांतरण पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो निर्णय सामने आए। एक मामले में मुस्लिम युवती समरीन हिंदू से शादी पश्चात प्रियांशी बन गई, जिसे अदालत ने अवैध माना और कहा, "केवल विवाह के लिए मतांतरण वैध नहीं"। वही दूसरे घटनाक्रम में हिंदू युवती प्रियंका, सलामत अंसारी से निकाह पश्चात मुस्लिम बन गई, जिसे उसी न्यायालय ने "पसंद का जीवनसाथी चुनने का अधिकार" बता दिया।
गुरु नानक देवजी की शिक्षाओं को समझने का समय
"सतगुरु नानक प्रगट्या, मिटी धुंध जग चानन होया, कलतारण गुरु नानक आया.." आगामी 30 नवंबर को विश्वभर में सिख पंथ के संस्थापक श्री गुरु नानक देवजी (1469-1539) की 552वीं जयंती मनाई जाएगी। जब हम इस पवित्र दिन के बारे में सोचते है, तो एक राष्ट्र के रूप में हमने क्या भूल की है- उसका भी एकाएक स्मरण होता है। 1930-40 में जब इस्लाम के नाम भारत के विभाजन हेतु मुस्लिम लीग, ब्रिटिश और वामपंथी मिलकर विषाक्त कार्ययोजना तैयार कर रहे थे, तब हमने जो सबसे बड़ी गलतियां की थी- उनमें से एक यह भी है कि खंडित भारत ने गुरु नानकजी की जन्मस्थली ननकाना साहिब पर अपना दावा छोड़ दिया।
पाकिस्तान एक घोषित इस्लामी राष्ट्र है। पिछले 73 वर्षों से पवित्र ननकाना साहिब उसी पाकिस्तान में स्थित है- जहां के सत्ता-अधिष्ठान ने मिसाइलों और युद्धपोत के नाम उन्हीं क्रूर इस्लामी आक्रांताओं- गजनवी, बाबर, गौरी, अब्दाली और टीपू-सुल्तान आदि पर रखे है- जिसके विषैले चिंतन से संघर्ष करते हुए सिख गुरुओं सहित अनेक शूरवीरों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था। इतने वर्षों बाद भी यदि आज हमारी मौलिक पहचान (हिंदू और सिख) सुरक्षित है, तो बहुत हद तक इसका श्रेय उन अमर बलिदानियों को जाता है, जिन्होंने कौम और हिंदुस्तान की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। इन हुतात्माओं की श्रृंखला में गुरु अर्जनदेवजी, गुरु तेग बहादुरजी, गुरु गोबिंद सिंहजी, बंदा सिंह बहादुर बैरागी, अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह इत्यादि का बलिदान- एक कृतज्ञ राष्ट्र को सदैव स्मरण रहेगा।
देश में नागरिकों की "गैर-जिम्मेदारी" का कारण
दमघोंटू वायु-प्रदूषण के कारण राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने एक आदेश जारी करते हुए देशभर में 30 नवंबर तक पटाखे जलाने और उसके विक्रय पर रोक लगाई थी। किंतु दीपावली (14 नवंबर) पर लोगों ने एनजीटी द्वारा जारी प्रतिबंधों की धज्जियां उड़ा दी और जमकर आतिशबाजियां की। स्वाभाविक है कि इससे बहुत से सुधी नागरिकों में क्षोभ और आक्रोश उत्पन्न हुआ। अधिकांश को लगा कि हम भारतीय अपने नागरिक कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं है। उनकी चिंता इसलिए भी तर्कसंगत है, क्योंकि जहरीली हवा न केवल कई रोगों को जन्म देती है, अपितु यह पहले से श्वास संबंधी रोगियों के लिए परेशानी का पर्याय बन जाती है। वैश्विक महामारी कोविड-19 के कालखंड में तो यह स्थिति "कोढ़ में खुजली" जैसी है।
यह सही है कि कुछ देशों में नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति भारतीयों की तुलना में अधिक जागरुक है। किंतु क्या दीपावली के समय एनजीटी के आदेशों की अवहेलना का एकमात्र कारण भारतीयों में समाज, पर्यावरण और देश के प्रति संवेदनशीलता का गहरा आभाव होना है? क्या यह सच नहीं कि किसी समाज को प्रभावित करने में किसी भी संस्थान या व्यक्ति-विशेष की विश्वसनीयता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है? जैसा एनजीटी का रिकॉर्ड रहा है- क्या उस पृष्ठभूमि में इस संस्था पर लोगों का विश्वास है?
चीन पर चुप्पी, फ्रांस का विरोध क्यों?
पेरिस-नीस की आतंकवादी घटनाओं पर फ्रांसीसी प्रतिक्रिया के खिलाफ तमाम इस्लामी राष्ट्र और भारतीय उपमहाद्वीप के लाखों मुसलमान गोलबंद है। कराची स्थित इस्लामी उपद्रवियों ने जहां फ्रांस विरोधी प्रदर्शन में हिंदू मंदिर तोड़कर उसमें रखी मूर्तियों को नष्ट कर दिया, तो उन्मादी भीड़ ने ढाका स्थित कोमिला में दर्जनों अल्पसंख्यक हिंदुओं के घरों को आग लगा दी। अब घटना हुई फ्रांस में, किंतु हिंदुओं पर गुस्सा क्यों फूटा? शायद इसलिए, क्योंकि ईसाइयों की भांति हिंदू भी जिहादियों की नज़र में "काफिर" है। भारत में- भोपाल, मुंबई, हैदराबाद आदि नगरों में, जहां हजारों मुसलमानों ने उत्तेजित नारों के साथ प्रदर्शन किया, तो कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों (मुनव्वर राणा सहित) ने फ्रांस की आतंकवादी घटनाओं को उचित ठहराते नजर आए।
मुसलमान आखिर किस बात से आक्रोशित है? उत्तेजित प्रदर्शनकारियों की नाराज़गी का कारण पैगंबर मोहम्मद साहब के कार्टून से जनित हिंसक घटनाक्रम में फ्रांस का "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" की रक्षा में डटे रहना है। वह इसे पैगंबर साहब का अपमान और इस्लाम पर हमला मान रहे है। क्या वाकई फ्रांस ने ऐसा कुछ किया है?
बिहार चुनाव और उसके परिणाम में निहित संदेश
हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव का परिणाम आया। कांटे की टक्कर में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन पूर्ण बहुमत के साथ बिहार में फिर से सरकार बनाने में सफल हुई। वहां राजग- विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, वामपंथियों ने मिलकर जिस महागठबंधन की छत्रछाया में चुनाव लड़ा, उसका घोषित आधार "सेकुलरवाद" था। क्या बिहार में मोदी-नीतीश की जीत, सेकुलरिज्म की हार होगी?- नहीं। वास्तव में, यह उस विकृत गोलबंदी की पराजय थी, जिसका दंश भारतीय राजनीति दशकों से झेल रहा है।
स्वतंत्रता के बाद देश नेहरूवादी नीतियों से जकड़ा हुआ था, जिसमें वाम-समाजवाद का प्रभाव अत्याधिक था। जब आपातकाल के दौरान 1976 में असंवैधानिक रूप से बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा रचित संविधान की प्रस्तावना में लिखे "संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य" में "सेकुलर" शब्द जोड़ दिया गया, तब स्थिति और विकृत हो गई। उस समय तक भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी। परिणामस्वरूप, 1991 में देश को अपने दैनिक-व्यय और अंतरराष्ट्रीय देनदारियों की पूर्ति हेतु अपना स्वर्ण भंडार गिरवी रखने की शर्मिंदगी झेलनी पड़ी।
बिहार वि.स. चुनाव 2020- भाजपा का स्ट्राइक रेट क्या कहता है?
बिहार में अधिकांश एग्जिट/ओपीनियन पोल के अनुमानों को धता बताकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने बिहार में बहुमत प्राप्त कर लिया। परिणाम से अधिक उसमें निहित तीन संदेश काफी महत्वपूर्ण है। पहला- राजग के मुख्य दल भारतीय जनता पार्टी का स्ट्राइक रेट- अर्थात् 110 सीटों पर उसने चुनाव लड़ा और 74 सीटों पर उसकी विजय हुई- वह 67.2 प्रतिशत से अधिक है। स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सशक्त, राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण छवि और लोकप्रियता के साथ भाजपा की राष्ट्रीय नीतियों पर बिहार के मतदाताओं ने मुहर लगा दी।
बिहार के अतिरिक्त 11 राज्यों की 59 विधानसभा सीटों पर हुए उप-चुनाव में भाजपा 41 सीटों पर विजयी हुई है। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार बनी रहेगी, क्योंकि यहां हुए उप-चुनाव में भाजपा 28 में से 19 सीटें जीतने में सफल हुई है। मणिपुर की 5 से 4 सीटों पर भाजपा ने विजय प्राप्त की है। इसके अतिरिक्त उत्तरप्रदेश, जहां गत दिनों हाथरस कथित बलात्कार मामले को लेकर स्वघोषित सेकुलरवादियों और स्वयंभू उदारवादियों ने हिंदू समाज को जाति के नाम पर बांटने का प्रयास किया था- वहां 7 सीटों पर हुए उप-चुनाव में से 6 पर भाजपा ने अपना परचम लहराया है। तेलंगाना में एक सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा 38.5 प्रतिशत मतों के साथ विजयी हुई है। कर्नाटक उपचुनाव में भाजपा ने 52 प्रतिशत वोट, गुजरात में 55 प्रतिशत वोट के साथ ओडिशा, नागालैंड, झारखंड और हरियाणा के उप-चुनाव में भी दमदार प्रदर्शन किया है। इन राज्यों के जनादेश ने भी स्पष्ट कर दिया है कि जनता अब ढोंगी सेकुलरवाद के नाम पर टुकड़े-टुकड़े गैंग, देशविरोधियों और अलगाववादी शक्तियों को बिल्कुल भी सहन नहीं करेगी और उसे अपने मताधिकार से चुनौती देती रहेगी।
हाल के वर्षों में अंग्रेजी शब्दकोश में एक नया शब्द "इस्लामोफोबिया" जुड़ गया है। "सेकुलरवाद" और "उदारवाद" के नाम पर विश्वभर (भारत सहित) के तथाकथित बुद्धिजीवी और अधिकांश मुस्लिम-विचारक इस संज्ञा का उपयोग धड़ल्ले से कर रहे है। इसके माध्यम से वह लोग यह संदेश देने का प्रयास कर रहे है कि इस्लाम के नाम पर लोगों को अकारण भयभीत, मुस्लिमों को प्रताड़ित और मुसलमानों को घृणा का पात्र बनाया जा रहा है। फ्रांस में पैगंबर साहब के कार्टून संबंधित हिंसक घटनाक्रम के संदर्भ में "इस्लामोफोबिया" फिर से सुर्खियों में है।
फ्रांस की कुल आबादी 6.5 करोड़ में 8-9 प्रतिशत मुसलमान अर्थात् 55-60 लाख के बीच है। अधिकांश मुसलमान आप्रवासी मूल के है, जिनका संबंध गृहयुद्ध से जूझते या युद्धग्रस्त मध्यपूर्वी इस्लामी देशों से है। प्रश्न उठता है कि फ्रांस जैसे गैर-इस्लामी देश में इन लोगों ने शरण क्यों ली?- वह भी तब, जब विश्व में 56 मुस्लिम बहुल या इस्लामी गणराज्य है- जहां शरीयत का वर्चस्व है।
शरण देने वाले अधिकांश यूरोपीय देशों में समस्या तब शुरू हुई, जब इन शरणार्थियों ने वहां की "उदारवादी" जीवनशैली पर जबरन इस्लाम को थोपना चाहा। फ्रांस की हालिया आतंकी घटना- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहां पैगंबर साहब का कार्टून दिखाने पर चार लोगों की हत्या कर दी गई। इस यूरोपीय देश ने "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" पर किसी भी प्रकार का समझौता करने से इनकार कर दिया है। क्या इसे "इस्लामोफोबिया" कहना उचित होगा? क्या फ्रांस के लोगों को अपनी जीवनमूल्यों के अनुरूप जीने का अधिकार नहीं है?
बदलेंगे जम्मू-कश्मीर के हालात
पेरिस और कश्मीर- बीते दिनों आतंकी घटनाओं के साक्षी बने। जहां विगत दो सप्ताह के भीतर पेरिस में इस्लाम के नाम पर जिहादियों ने चार निरपराधों की हत्या कर दी, तो वही कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी के तीन नेताओं को आतंकियों ने मौत के घाट उतार दिया। पेरिस में मरने वाले गैर-मुस्लिम, तो मारने वाले स्वघोषित सच्चे मुसलमान थे। वही घाटी में मरने और मारने वाले दोनों मुसलमान थे। यक्ष प्रश्न उठता है कि मुस्लिमों ने तीन मुस्लिम नेताओं की हत्या क्यों की? यह तीनों घाटी में भाजपा के माध्यम से बहुलतावादी सनातन भारत और उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था से जुड़े थे। संभवत: हत्यारों को इस जुड़ाव में इस्लाम के लिए खतरा नजर आया।
कश्मीर में यह हत्याएं तब हुई, जब कालांतर में वर्तमान मोदी सरकार ने इस्लामी आतंकवाद-कट्टरपंथ के खिलाफ लड़ाई में फ्रांस का खुलकर समर्थन करने की घोषणा की थी। बात केवल कश्मीर तक सीमित नहीं। जैसे ही भारत ने पेरिस में आतंकी घटनाओं के पश्चात फ्रांसीसी सरकार की कार्रवाई को न्यायोचित ठहराया, वैसे ही फ्रांस विरोधी वैश्विक मजहबी प्रदर्शन में भारतीय मुसलमान का बड़ा वर्ग भी शामिल हो गया। भोपाल में प्रशासनिक अनुमति के बिना कांग्रेस विधायक आरिफ मसूद के नेतृत्व में हजारों मुस्लिमों ने इक़बाल मैदान में प्रदर्शन किया, तो मुंबई स्थित नागपाड़ा और भिंडी बाजार क्षेत्र के व्यस्त सड़क-मार्ग पर विरोधस्वरूप फ्रांसीसी राष्ट्रपति का पोस्टर चिपका दिया। तेलंगाना में भी कांग्रेस प्रदेश अल्पसंख्यक ईकाई ने फ्रांस विरोधी प्रदर्शन किया और राज्य सरकार से फ्रांसीसी उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर दी।
पाकिस्तान का डीएनए ही संकट का कारण
विगत कई दिनों से पाकिस्तान विभिन्न घटनाक्रमों से गुजर रहा है। 26 अक्टबूर (सोमवार) को पाकिस्तानी संसद ने "इस्लाम विरोधी वक्तव्य" देने वाले फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया। इस्लाम के नाम पर वहां मजहबी एकजुटता दिखाने का प्रयास ऐसे समय पर हो रहा है, जब पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आई.एस.आई के खिलाफ विपक्षी दलों और सिंध पुलिस ने बगावत का बिगूल फूंक दिया था।
क्या ऐसा संभव है कि विपक्षी दलों की एकता पाकिस्तान में लोकतंत्र की नई सुबह लेकर आएं और पुलिस विद्रोह के बाद वहां सेना का प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त हो जाएं?- इसका उत्तर दो तथ्यों में छिपा है। पहला- पाकिस्तान की राजनीति में मुल्ला-मौलवियों और सेना का वर्चस्व है। दूसरा- इस इस्लामी देश का वैचारिक अधिष्ठान और स्थिरता विरोधाभासी है।
यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान जनता द्वारा "निर्वाचित" कम, सेना द्वारा "स्थापित" अधिक है। उनके विरुद्ध वहां 11 विपक्षी दलों ने पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) नामक गठबंधन बनाया है। यह घमासान उस समय और बढ़ गया, जब नवाज शरीफ के दामाद मुहम्मद सफदर को कराची पुलिस ने 18-19 अक्टूबर की आधी रात होटल में उनके कमरे का दरवाजा तोड़कर गिरफ्तार कर लिया। उस समय वे अपनी पत्नी मरियम के साथ थे। सफदर पर जिन्नाह की मजार की पवित्रता भंग करने का आरोप था।