Dainik Jagran 2020-11-12

चीन पर चुप्पी, फ्रांस का विरोध क्यों?

पेरिस-नीस की आतंकवादी घटनाओं पर फ्रांसीसी प्रतिक्रिया के खिलाफ तमाम इस्लामी राष्ट्र और भारतीय उपमहाद्वीप के लाखों मुसलमान गोलबंद है। कराची स्थित इस्लामी उपद्रवियों ने जहां फ्रांस विरोधी प्रदर्शन में हिंदू मंदिर तोड़कर उसमें रखी मूर्तियों को नष्ट कर दिया, तो उन्मादी भीड़ ने ढाका स्थित कोमिला में दर्जनों अल्पसंख्यक हिंदुओं के घरों को आग लगा दी। अब घटना हुई फ्रांस में, किंतु हिंदुओं पर गुस्सा क्यों फूटा? शायद इसलिए, क्योंकि ईसाइयों की भांति हिंदू भी जिहादियों की नज़र में "काफिर" है। भारत में- भोपाल, मुंबई, हैदराबाद आदि नगरों में, जहां हजारों मुसलमानों ने उत्तेजित नारों के साथ प्रदर्शन किया, तो कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों (मुनव्वर राणा सहित) ने फ्रांस की आतंकवादी घटनाओं को उचित ठहराते नजर आए। मुसलमान आखिर किस बात से आक्रोशित है? उत्तेजित प्रदर्शनकारियों की नाराज़गी का कारण पैगंबर मोहम्मद साहब के कार्टून से जनित हिंसक घटनाक्रम में फ्रांस का "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" की रक्षा में डटे रहना है। वह इसे पैगंबर साहब का अपमान और इस्लाम पर हमला मान रहे है। क्या वाकई फ्रांस ने ऐसा कुछ किया है? फ्रांसीसी संस्कृति में सभी नागरिकों को, चाहे वह किसी भी समुदाय का हो- उसे किसी भी मजहब-पंथ संबंधित विषय, व्यक्ति, मान्यता और परंपरा पर अपनी बात रखने (व्यंग्य कसने और उपहास करने सहित) की स्वतंत्रता है। यह फ्रांस की उदारवादी जीवनशैली का प्रतीक भी है। इस यूरोपीय देश की कुल 6.5 करोड़ की आबादी में मुस्लिम 55-60 लाख है, जिसमें अधिकांश मुस्लिम अप्रवासी मूल के है। अधिकतर लूट-पीटकर शरणार्थी बनकर फ्रांस आए है। फ्रांसीसी मुस्लिम नागरिकों को वही समान अधिकार प्राप्त है, जो वहां के बहुसंख्यक ईसाइयों, अन्य अल्पसंख्यकों और नास्तिक नागरिकों को मिले हुए है। यह कलतक के शरणार्थी और आज नागरिक बने लोग अपने और इस्लाम के लिए विशेषाधिकार चाहते है। फ्रांस सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के मामले इस्लाम और उसके प्रतीकों को उसी कसौटी पर कसा जाएगा, जैसे दशकों से ईसाई, हिंदू, यहूदी आदि कसे जा रहे है। भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश मुसलमान आक्रोशित क्यों है? क्या यह पैगंबर साहब के अपमान और इस्लाम पर फ्रांसीसी सरकार द्वारा तथाकथित चोट से संबंधित है या फिर कोई और कारण है? क्योंकि यदि बात इस्लाम पर हमले या पैगंबर साहब के अपमान की होती, तो चीन के खिलाफ इस क्षेत्र के मुसलमान कहीं अधिक आंदोलित होते। यह साम्यवादी देश योजनाबद्ध तरीके से न केवल 1.2 करोड़ उइगर मुसलमानों का उत्पीड़न कर रहा है, साथ ही उनकी मजहबी पहचान को भी नष्ट कर रहा है। संक्षेप में कहे, तो चीन में इनका "सांस्कृतिक नरसंहार" हो रहा है। अब चीन, जो खुलकर पैगंबर मोहम्मद साहब की विरासत और इस्लाम को समाप्त करने में जुटा है- उसके खिलाफ इस क्षेत्र में किसी प्रकार का आंदोलन तो दूर, मुसलमान इसका संज्ञान तक नहीं ले रहा है। क्यों? पाकिस्तान एक घोषित इस्लामी देश है और स्वयं को विश्व में इस्लामी संस्कृति का नेता मानता है। हैरानी की बात यह है कि पाकिस्तान न केवल "वीटो-शक्ति" चीन के इस्लाम विरोधी अभियान पर चुप है, अपितु चीन की "सैटलाइट स्टेट", संक्षेप में कहे तो, दुमछल्ला भी बना हुआ है। इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान की चीन से गहरी मित्रता का शायद एक कारण यह भी है कि उसका वैचारिक अधिष्ठान, जो "काफिर" भारत को "हजारों घाव देकर मौत के घाट उतारने" का प्रपंच दशकों से रच रहा है, उसमें चीन उसका सहयोगी बन सकता है। इस्लामी बांग्लादेश भी चीन का "अच्छा रणनीतिक साझीदार" है। अब भारतीय मुस्लिम का एक वर्ग- जो लोग फ्रांस पर बिलबिला रहा है, वह भारत के खिलाफ युद्ध की मुद्रा में बैठे चीन की इस्लाम विरोधी हरकतों पर वर्षों से चुप क्यों है? क्या यह खामोशी "संपार्श्विक क्षति" (collateral damage) का हिस्सा है, जिसमें मजहबी उद्देश्य "गजवा-ए-हिंद" की प्राप्ति निहित है? क्या भारत में फ्रांस का विरोध इसलिए भी किया जा रहा, क्योंकि फ्रांसीसी अत्याधुनिक राफेल लड़ाकू जहाज भारतीय जंगी बेड़े में शामिल है- जो पाकिस्तान के जिहादी मंसूबों को चुनौती देगा? फ्रांस के घटनाक्रम में एक और विचित्र प्रतिक्रिया 130 भारतीय पासपोर्टधारक "बुद्धिजीवियों" ने भी दी है। अपने संयुक्त बयान में उन्होंने फ्रांस में हुए इस्लामी हमलों और उन मुस्लिम बुद्धिजीवियों के वक्तव्यों की निंदा की है, जो फ्रांस के आतंकी हमलों को उपयुक्त बता रहे थे। क्या इनकी प्रतिक्रिया में दोहरे मापदंड की दुर्गंध नहीं आ रही? यह स्वयंभू "सेकुलरवादी-उदारवादी-प्रगतिशील" कुनबा यदा-कदा देश में हुए इस्लामी आतंकवादी हमले या मजहबी हिंसा की नपे-तुले शब्दों में निंदा करता है। किंतु जब किसी आतंकी-जिहादी पर संकट आता है, तब यही लोग उनका कवच बन जाते है। राजनीतिक रूप से सही होने के लिए वह "आतंकवाद" को तो झिड़कते है, किंतु "आतंकवादियों" का साथ देते नजर आते है। 1993 के मुंबई आतंकी हमले में दोषी याकूब मेनन की फांसी रूकवाने हेतु मध्यरात्रि सर्वोच्च न्यायालय पहुंचना और 2001 संसद हमले के दोषी अफजल गुरू सहित कश्मीर में आतंकियों-अलगाववादियों से सहानुभूति रखना- इसका जीवंत प्रमाण है। फ्रांस में इस्लामी आतंकवाद का शिकार हुए लोगों के लिए इन 130 "बुद्धिजीवियों" की संवेदनाएं तो उमड़ गई, किंतु कमलेश तिवारी की दुर्भाग्यपूर्ण नियति पर यह लोग चुप रहे। गत वर्ष दो जिहादियों ने कमलेश की गला काटकर, 15 बार चाकू घोंपकर और गोली मारकर हत्या इसलिए कर दी, क्योंकि उसने पैगंबर साहब का "अपमान" किया था। क्या ऐसा ही "अपराध" उस फ्रांसीसी शिक्षक ने भी नहीं किया था, जिसकी जिहादी द्वारा निर्मम हत्या होने पर इन "बुद्धिजीवियों" की आत्मा भीतर तक हिल गई? क्या इस विरोधाभास का कारण पीड़ित की आस्था है? फ्रांस में इस्लाम के नाम पर मौत के घाट उतारे गए चारों लोग ईसाई थे, जिसमें तीन की हत्या चर्च के भीतर हुई थी- जबकि कमलेश हिंदू थे। सच तो यह है कि देश के स्वघोषित बुद्धिजीवियों-विचारकों में से अधिकांश का प्रत्यक्ष-परोक्ष संबंध पश्चिमी देशों से संचालित एनजीओ से है, जो किसी न किसी रूप में यूरोपीय-अमेरिकी चर्च द्वारा वित्तपोषित है। ऐसे में 130 "बुद्धिजीवियों" का फ्रांस के संदर्भ में इस्लामी हिंसा का विरोध केवल खानापूर्ति और पश्चिमी देशों में बसे अपने "आकाओं" को संतुष्ट करने का कुप्रयास है। यदि यह वर्ग वाकई इस्लामी आतंकवाद-कट्टरवाद के खिलाफ होता, तो वह उन पांच लाख कश्मीरी पंडितों के लिए भी अपनी आवाज़ बुलंद करते- जो 30 वर्ष पहले जिहादी दंश के कारण पलायन हेतु विवश हो गए थे और अबतक अपनी मातृभूमि पर नहीं लौट पाए है। जब 1985-86 में शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय इस्लामी कट्टरपंथियों के दवाब में आकर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संसद में पलट दिया था, तब इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इसके विरोध में एक बार भी मुंह नहीं खोला। सच तो यह है कि हालिया फ्रांसीसी घटनाक्रम का विरोध करने वाला भारतीय वर्ग और फ्रांस का साथ देने वाला 130 बुद्धिजीवियों का समूह- उसी विषाक्त चिंतन का प्रतिनिधित्व करते है, जिसने 1947 में इस्लाम के नाम पर भारत के रक्तरंजित विभाजन की लकीर खींची थी और अब भी खंडित भारत को कई टुकड़ों में देखना चाहते है। इस वर्ष नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध (हिंसा सहित)- इसका प्रमाण है।