Sahara 2020-11-07

इस्लामोफोबिया का सच

हाल के वर्षों में अंग्रेजी शब्दकोश में एक नया शब्द "इस्लामोफोबिया" जुड़ गया है। "सेकुलरवाद" और "उदारवाद" के नाम पर विश्वभर (भारत सहित) के तथाकथित बुद्धिजीवी और अधिकांश मुस्लिम-विचारक इस संज्ञा का उपयोग धड़ल्ले से कर रहे है। इसके माध्यम से वह लोग यह संदेश देने का प्रयास कर रहे है कि इस्लाम के नाम पर लोगों को अकारण भयभीत, मुस्लिमों को प्रताड़ित और मुसलमानों को घृणा का पात्र बनाया जा रहा है। फ्रांस में पैगंबर साहब के कार्टून संबंधित हिंसक घटनाक्रम के संदर्भ में "इस्लामोफोबिया" फिर से सुर्खियों में है। फ्रांस की कुल आबादी 6.5 करोड़ में 8-9 प्रतिशत मुसलमान अर्थात् 55-60 लाख के बीच है। अधिकांश मुसलमान आप्रवासी मूल के है, जिनका संबंध गृहयुद्ध से जूझते या युद्धग्रस्त मध्यपूर्वी इस्लामी देशों से है। प्रश्न उठता है कि फ्रांस जैसे गैर-इस्लामी देश में इन लोगों ने शरण क्यों ली?- वह भी तब, जब विश्व में 56 मुस्लिम बहुल या इस्लामी गणराज्य है- जहां शरीयत का वर्चस्व है। शरण देने वाले अधिकांश यूरोपीय देशों में समस्या तब शुरू हुई, जब इन शरणार्थियों ने वहां की "उदारवादी" जीवनशैली पर जबरन इस्लाम को थोपना चाहा। फ्रांस की हालिया आतंकी घटना- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहां पैगंबर साहब का कार्टून दिखाने पर चार लोगों की हत्या कर दी गई। इस यूरोपीय देश ने "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" पर किसी भी प्रकार का समझौता करने से इनकार कर दिया है। क्या इसे "इस्लामोफोबिया" कहना उचित होगा? क्या फ्रांस के लोगों को अपनी जीवनमूल्यों के अनुरूप जीने का अधिकार नहीं है? लगभग पिछले 1400 वर्षों में विश्व के जिस क्षेत्र में इस्लाम ने प्रवेश किया- उस क्षेत्र की मूल संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली को कालांतर में हिंसा के बल पर या तो बदल दिया गया या फिर उसका प्रयास आज भी हो रहा है? 637-651 में इस्लामी आक्रमण से पहले ईरान में सासैनियन साम्राज्य का शासकीय मजहब पारसी था। 1960 के दशक में जब ईरान के अंतिम शाह मोहम्मद रजा पहलवी ने देश को आधुनिक बनाने की दिशा में इस्लाम की भूमिका को कम करने हेतु मूल ईरानी सभ्यता को प्राथमिकता दी, तो इस्लामी क्रांति हुई। परिणामस्वरूप, ईरान घोषित इस्लामिक गणराज्य बन गया। इसी तरह, 11वीं-12वीं शताब्दी तक वर्तमान समय का अफगानिस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर घाटी मुख्य रूप से हिंदू-बौद्ध बहुल था। अब इस्लामी शासन में किसी गैर-मुस्लिम की नियति क्या होती है- उसकी झलक पूर्व मलेशियाई प्रधानमंत्री महातिर बिन मोहम्मद के इस ट्वीट में दिखती है। फ्रांस में हुए आतंकी हमलों का समर्थन करते हुए महातिर ने लिखा था- "मुस्लिमों को लाखों फ्रांसिसी नागरिकों को मारने का अधिकार है।" अभी पाकिस्तान और बांग्लादेश में क्या हुआ? फ्रांस विरोधी प्रदर्शन की आड़ में कराची स्थित प्रदर्शनकारियों ने एक हिंदू मंदिर तोड़कर उसमें रखी मूर्तियों को नष्ट कर दिया, तो बांग्लादेश में ढाका स्थित कोमिला में उन्मादी भीड़ ने दर्जनों अल्पसंख्यक हिंदुओं के घरों को आग लगा दी। यह कोई पहली बार नहीं रहा है। विभाजन के समय पाकिस्तान और बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) में क्रमश: हिंदू-सिख और हिंदू-बौद्ध अनुयायियों की संख्या 15-16 प्रतिशत और 30 प्रतिशत थी। किंतु आज इन दोनों इस्लामी देशों में उनकी संख्या क्रमश: घटकर 1.5-2 प्रतिशत और 8 प्रतिशत हो गई है। सदियों तक बौद्ध-शैव मत का केंद्र रहा कश्मीर भी शत-प्रतिशत हिंदू-विहीन हो चुका है। वास्तव में, बहुलतावाद और मानवता विरोधी इस अक्षम्य मानसिकता को वैचारिक खुराक "काफिर-कुफ्र" की अवधारणा से मिल रही है। विश्व के समक्ष संकट का पर्याय बनी इस्लामी हिंसा की जड़े काफी गहरी है। हजरत मोहम्मद पैगंबर साहब का जन्म 570 में हुआ था और 609-10 के आसपास उन्होंने दावा किया कि अल्लाह ने उन्हे पैगंबर नियुक्त किया है। इसके बाद पैगंबर साहब ने मक्का-मदीना में इस्लामी शिक्षा देना प्रारंभ किया। कुछ वर्ष पश्चात इस्लाम के प्रचार-प्रसार हेतु शक्तिबल का उपयोग शुरू हुआ। हजरत साहब की मृत्यु के 80 वर्ष बाद सन् 712 में "उमय्यद खलीफा" मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर जिहाद छेड़कर तत्कालीन "काफिर" हिंदू राजा दाहिर को पराजित किया। लगभग तीन शताब्दी बाद मोहम्मद गजनी ने भारत पर हमला किया। उसने भी कासिम की तरह मंदिर तोड़े, लूटपाट की और तलवार के बल पर इस्लाम का प्रसार किया। जब 11वीं सदी के पूर्वार्ध में गजनी 17 वर्ष की उम्र में खलीफा बना, तो उसने घोषणा की थी कि वो हर साल भारत के खिलाफ जिहाद करते हुए मंदिरों-मूर्तियों को खंडित करेगा और "काफिर" हिंदुओं (बौद्ध और जैन सहित) आदि को तलवार के बल पर इस्लाम अपनाने या मौत को चुनने का विकल्प देगा। यह ठीक है कि वह 32 वर्षों के शासनकाल में हर वर्ष भारत आने का वचन पूरा नहीं कर पाया, परंतु उसने एक दर्जन से अधिक बार भारत पर हमला किया। इस दौरान उसने सोमनाथ मंदिर पर हमला कर, उसे ध्वस्त कर दिया। प्रत्येक 100-200 वर्षों के कालांतर में मोहम्मद गौरी, बख्तियार खिलजी, बाबर से लेकर टीपू सुल्तान और औरंगजेब जैसे क्रूर इस्लामी आक्रांताओं के विषाक्त दौर में जिहाद की पुनरावृति होती गई। "काफिर-कुफ्र" की अवधारणा से प्रेरित होकर राम-मंदिर सहित सैकड़ों ऐतिहासिक मंदिरों-पूजास्थलों को तोड़ा गया, तलवार के बल पर असंख्य स्थानीय लोगों को मतांतरित किया गया और जिस किसी ने इसका विरोध किया- वह मारा गया। कालांतर में उसी विषैले चिंतन के गर्भ से अविभाजित भारत में मुस्लिम अलगाववाद का बीजारोपण हुआ। सैयद अहमद खान द्वारा प्रतिपादित "दो राष्ट्र सिद्धांत"- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। कुछ दशक पश्चात इस्लाम के नाम पर सनातन भारत का रक्तरंजित विभाजन हो गया और वह तीन टुकड़ों में खंडित हो गया। भले ही सभी इस्लामी आक्रांता सदियों पहले मर गए हो, किंतु उनकी विषाक्त मानसिकता विश्व में आज भी जीवित है। यही कारण है कि अधिकांश मुस्लिम आज भी उन्हे अपना नायक मानते है। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस्लाम आधारित हिंसा में मरने और मारने वाले अधिकांश मुस्लिम ही है। सीरिया, इराक, लीबिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि ऐसे ही इस्लामी देश है, जहां अक्सर मुस्लिम कभी अल्लाह, तो कभी दीन के नाम पर मुसलमान को मौत के घाट उतार रहे है। तेजी से बदलते विश्व में अब मध्यकालीन मान्यताओं को गोली-तलवार के बल पर लागू नहीं किया जा सकता। इसका विरोध होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बहुलतावादी परंपराओं में सच्ची निष्ठा रखने वाले अधिकांश लोग इस वैचारिक संघर्ष में शामिल है। अब यदि इसे कोई "इस्लामोफोबिया" कहे, तो कहें।