Amar Ujala 2020-10-30

पाकिस्तान का डीएनए ही संकट का कारण

विगत कई दिनों से पाकिस्तान विभिन्न घटनाक्रमों से गुजर रहा है। 26 अक्टबूर (सोमवार) को पाकिस्तानी संसद ने "इस्लाम विरोधी वक्तव्य" देने वाले फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया। इस्लाम के नाम पर वहां मजहबी एकजुटता दिखाने का प्रयास ऐसे समय पर हो रहा है, जब पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आई.एस.आई के खिलाफ विपक्षी दलों और सिंध पुलिस ने बगावत का बिगूल फूंक दिया था। क्या ऐसा संभव है कि विपक्षी दलों की एकता पाकिस्तान में लोकतंत्र की नई सुबह लेकर आएं और पुलिस विद्रोह के बाद वहां सेना का प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त हो जाएं?- इसका उत्तर दो तथ्यों में छिपा है। पहला- पाकिस्तान की राजनीति में मुल्ला-मौलवियों और सेना का वर्चस्व है। दूसरा- इस इस्लामी देश का वैचारिक अधिष्ठान और स्थिरता विरोधाभासी है। यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान जनता द्वारा "निर्वाचित" कम, सेना द्वारा "स्थापित" अधिक है। उनके विरुद्ध वहां 11 विपक्षी दलों ने पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) नामक गठबंधन बनाया है। यह घमासान उस समय और बढ़ गया, जब नवाज शरीफ के दामाद मुहम्मद सफदर को कराची पुलिस ने 18-19 अक्टूबर की आधी रात होटल में उनके कमरे का दरवाजा तोड़कर गिरफ्तार कर लिया। उस समय वे अपनी पत्नी मरियम के साथ थे। सफदर पर जिन्नाह की मजार की पवित्रता भंग करने का आरोप था। खुलासा हुआ कि सेना ने सिंध पुलिस के उच्चाधिकारी का अपहरण करके उनपर सफदर को गिरफ्तार करने का दवाब बनाया था। इसके बाद जो कुछ हुआ, उसका आभास शायद सेना और इमरान सरकार को नहीं था। विरोधस्वरूप, सिंध पुलिस के कई बड़े अधिकारी छुट्टी पर चले गए और पुलिसकर्मी- सेना और आई.एस.आई. के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। जब सेना को यह अनपेक्षित विद्रोह बर्दाश्त नहीं हुआ, तो उसने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चला दी- जिसमें 10 पुलिसकर्मी मारे गए। पाकिस्तान में सेना के खिलाफ बगावत पहली बार नहीं है। 2007 में भी तत्कालीन सैन्य तानाशाह परवेज मुशर्रफ और न्यायाधीश इफ्तिकार चौधरी के बीच तनातनी हो चुकी है। वास्तव में, इस अस्थिरता की जड़ें उस सभ्यतागत द्वंद में है, जिसमें पाकिस्तान अपनी मूल हिंदू-बौद्ध सांस्कृतिक पहचान से दूरी बनाने और स्वयं को मध्यपूर्व एशियाई देश के रूप में परिभाषित करने का प्रयास कर रहा है। इस विरोधाभास का मुखर उदाहरण मोहम्मद अली जिन्नाह का वह भाषण भी है, जिसे उन्होंने 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तानी संविधान सभा को संबोधित करते हुए दिया था। उन्होंने कहा था- "पाकिस्ताकन में हर व्यसक्ति मंदिर और मस्जिद या फिर अन्य किसी पूजास्थल जाने के लिए स्वपतंत्र होगा। व्यक्ति के मजहब, जाति और पंथ से राज्य को कोई मतलब नहीं होगा।" वास्वत में, जिन्नाह के मुख से यह सर्वधर्म सद्भाव जैसा उद्गार शायद उनके हिंदू पूर्वजों के संस्कारों का परिणाम होंगे, जिसका "काफिर-कुफ्र" की अवधारणा पर जन्मे पाकिस्तान में कोई स्थान नहीं। जिन्नाह का यह विचार उस "दो राष्ट्र सिद्धांत" के भी विरुद्ध था, जो स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंदुओं के साथ बराबर बैठने में घृणा से सिंचित था, जिसमें 600 वर्षों तक पराजित हिंदुओं पर राज करने की भावना थी। इसलिए 1949 में पाकिस्तानी नीति-निर्माताओं ने "शरीयत" को अंगीकार कर लिया। राजनीति के प्रारंभिक दशकों में जिन्नाह ने न तो स्वयं को मुस्लिमों का नेता माना और न ही मुसलमानों ने उन्हे अपना रहनुमा। संभवत: इसकी जड़े उनके व्यक्तिगत जीवन और पारिवारिक इतिहास में है। जिन्नाह के दादा प्रेमजीभाई मेघजी ठक्कर हिंदू थे, जो गुजरात में काठियावाड़ स्थित पनेली गांव में लोहना समाज परिवार से संबंधित थे। चूंकि लोहाना शुद्ध शाकाहारी समुदाय था, इसलिए समाज ने प्रेमजीभाई के मत्स्य व्यापार का बहिष्कार किया। प्रेमजीभाई के बेटे (जिन्नाह के पिता) पुंजालाल ठक्कर ने इसका विरोध करते हुए इस्लाम अंगीकार कर लिया। किंतु उन्होंने अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा इस्लामी मान्यताओं के अनुरूप कभी नहीं की। इसका प्रभाव यह हुआ कि जिन्नाह ने जो जीवनशैली अपनाई, वह इस्लाम विरोधी रही। उदाहरणस्वरूप, जिन्नाह शूकर-मांस और शराब का सेवन करते थे। जब जिन्नाह ने पारसी समुदाय की रत्तनबाई पेटिट से विवाह किया, तब वह इस्लामी बंधनों से मुक्त रहीं। दोनों की एकलौती सुपुत्री डीना ने पारसी उद्योगपति नेविल वाडिया से विवाह किया और विभाजन के बाद भारत को अपनी मातृभूमि बताया। केवल अपने पिता के देहांत पर डीना सितंबर 1948 में पहली और आखिरी बार पाकिस्तान गई थी। संपन्न-समृद्ध वाडिया परिवार के वंशज आज भी मुंबई में रहते है। पाकिस्तान का वैचारिक खोखलापन उसके राष्ट्रगान में भी नजर आता है। जिन्नाह ने हिंदू मूल के उर्दू शायर जगन्नाथ आजाद द्वारा लिखित एक उर्दू गीत को राष्ट्रगान बनाया था। अब चूंकि इसे एक "काफिर" हिंदू ने लिखा था, इसलिए इसका पाकिस्तानी नेतृत्व से लेकर आम लोगों ने भारी विरोध किया। परिणामस्वरूप, कुछ समय के भीतर इसे प्रतिबंधित कर दिया गया और आवश्यकता के समय राष्ट्रगान के रूप में एक बिना गीत वाला धुन बजा दिया जाता। वर्ष 1954 में हाफिज जालंधर द्वारा विदेशी भाषा फारसी में लिखित गाने को आधिकारिक राष्ट्रगान बनाना सुनिश्चित हुआ। इस इस्लामी देश की आधिकारिक राष्ट्रीय भाषा उर्दू और अंग्रेजी है। इसके अतिरिक्त यहां पंजाबी, सिंधी, पश्तो, बलूची, सराइकी इत्यादि भाषाएं बोली जाती है। फिर भी "कौमी-तराना" उस विदेशी फारसी भाषा में लिखा हुआ है, जिसे बोलने/समझने वालों की संख्या पाकिस्तान में सीमित है। इसमें उर्दू के नाम पर केवल "का" शब्द का उपयोग हुआ है। पाकिस्तान की त्रासदी उस जुमले में भी झलकती है, जिसे मैंने अधिकांश पाकिस्तानियों के मुख से ही सुना है। विश्व के हर देश के पास सेना होती है, किंतु पाकिस्तान उन अपवादों में से एक है, जिसमें सेना के पास पूरा देश है। सच तो यह है कि पाकिस्तान की अस्थिरता का कारण उसके मजहबी डीएनए में है।