Dainik Jagran 2020-10-28

ग्लोबल हंगर इंडेक्स: कितना झूठ, कितना सच

हाल ही में कंसर्न वर्ल्डवाइड और वेल्टहंगरहिल्फे द्वारा प्रकाशित "ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020" रिपोर्ट जारी हुई। इसके अनुसार, भारत में भुखमरी की स्थिति गंभीर है और उसका स्थान 107 देशों की सूची में 94वां है। पिछले वर्ष की तुलना में इसमें कुछ सुधार हुआ है। बावजूद इसके आर्थिक रूप से कमजोर पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और पाकिस्तान से अभी भारत पीछे है। जैसे ही यह विदेशी रिपोर्ट सार्वजनिक हुई, वैसे ही भारतीय मीडिया- विशेषकर अंग्रेजी मीडिया ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित/प्रसारित किया। कांग्रेस सहित विपक्षी दलों ने भी इसी रिपोर्ट को आधार बनाकर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। विदेशी गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) कंसर्न वर्ल्डवाइड और वेल्टहंगरहिल्फे द्वारा प्रकाशित यह 15वीं "ग्लोबल हंगर इंडेक्स" रिपोर्ट है। क्या मीडिया ने इस रिपोर्ट और इसके रचनाकार संगठनों की प्रमाणिकता को जांचा या खोजबीन की? वेल्टहंगरहिल्फे और कंसर्न वर्ल्डवाइड- दोनों संगठनों की उत्पत्ति 1960-70 के दशक में रोमन कैथोलिक चर्च और ईसाई मिशनरियों ने की थी- जिनका भूत, वर्तमान और भविष्य "वाइट मैन बर्डन" के विषाक्त चिंतन के कारण भय-लालच-प्रलोभ के माध्यम से मतांतरण में लिप्त है। कंसर्न वर्ल्डवाइड की स्थापना आयरिश ईसाई मिशनरी के कहने पर 1968 में तब हुई, जब नाइजीरिया को ब्रितानी औपनिवेश से मुक्ति मिले 8 वर्ष हो चुके थे और उस समय वह भीषण गृह युद्ध की चपेट में था। इस अफ्रीकी देश में वर्ष 1914-60 के ब्रितानी राज के दौरान ईसाइयत का प्रचुर मात्रा में प्रचार हुआ, जो अब भी जारी है। इसी तरह, जर्मनी स्थित वेल्टहंगरहिल्फे नामक संगठन की स्थापना वर्ष 1962 में पूर्व-जर्मनी के तत्कालीन संघीय राष्ट्रपति और रोमन कैथोलिक चर्च के सदस्य हेनरिक लुब्के ने की थी। वर्तमान समय में इस संस्था का नेतृत्व मरलेह्न थिएमे के हाथों में है, जो 2003 से जर्मन ईसाई धर्म प्रचार चर्च परिषद से जुड़ी हुई है। चर्च के अतिरिक्त, कैथोलिक बिशप कमीशन, जर्मनी के वामपंथी राजनीतिक दल (डी-लिंक) और वाम-समर्थित व्यापारिक संघ- इसके प्रमुख सदस्य है। क्या ऐसा संभव है कि कोई विशुद्ध भारतीय संस्था किसी अन्य देश पर नकारात्मक रिपोर्ट तैयार करें और वहां का समाज (मीडिया सहित) उसका तुरंत संज्ञान लेकर उसपर विश्वास कर लें? पिछले दिनों लीगल राइट ऑब्सर्वेटरी (एल.आर.ओ.) नामक भारतीय संगठन ने खुलासा किया था कि कैसे नागरिक संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) विरोधी हिंसा के षड़यंत्रकारी, जिनके खिलाफ अदालत में मामले लंबित है- उनकी पैरवी करने हेतु जर्मनी-बेल्जियम स्थित चर्चों ने 50 करोड़ रुपये भारत भेजे थे। इस रिपोर्ट पर संबंधित देशों की मीडिया का संज्ञान लेना तो दूर, स्वयं अपने ही देश के अधिकांश अखबारों और न्यूज़ चैनलों ने वैचारिक-राजनीतिक-व्यक्तिगत कारणों से इसपर चर्चा तक नहीं की। निसंदेह, देश में कुछ स्वयंसेवी संगठन ऐसे हैं- जो सीमित संसाधनों के बावजूद देश के विकास में महती भूमिका निभा रहे हैं। किंतु कई एनजीओ ऐसी भी है- जो पर्यावरण, सामाजिक न्याय, गरीबी, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, मजहबी सहिष्णुता, मानवाधिकार और पशु-अधिकारों की रक्षा के नाम पर- न केवल भारत विरोधी, अपितु यहां की मूल सनातन संस्कृति और बहुलतावादी परंपराओं पर दशकों से हमला कर रहे हैं। साथ ही विदेशी शक्तियों के इशारों पर विकास कार्यों में रोड़े भी अटका रहे है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। अधिकांश भारतीय एनजीओ को अलग-अलग नामों से स्थापित अमेरिकी और यूरोपीय विदेशी ईसाई संगठनों (चर्च सहित) से "सेवा" के नाम पर चंदा मिलता है। सच तो यह है कि इन संगठनों के लिए "सेवा" का एकमात्र अर्थ- मतांतरण है। चूंकि अमेरिका और यूरोपीय देशों का मूल चरित्र सदियों पहले ईसाई बहुल हो चुका है- इसलिए वहां "सेवा" का कोई अर्थ नहीं है। अब भारतीय समाज के, जो लोग उन्हीं संगठनों की "विशेष उद्देश्य से प्रेरित" रिपोर्ट में लिखे एक-एक शब्द को, स्वतंत्रता मिलने के 73 वर्ष बाद भी ब्रह्मवाक्य मान रहे है- वह वास्तव में "बौद्धिक दासता" से जकड़े हुए है। ऐसे लोग न केवल हीन-भावना से ग्रस्त है, साथ ही उनमें आत्मविश्वास का भी नितांत आभाव है। यदि ऐसा नहीं है, तो क्यों समाज का एक वर्ग (मीडिया सहित) किसी भारत विरोधी विदेशी रिपोर्ट को विश्वसनीय मानकर उसपर विश्वास कर लेता है? क्या चर्च प्रेरित एनजीओ की भुखमरी रिपोर्ट और भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त गैर-सरकारी संगठनों के खिलाफ मोदी सरकार की कार्रवाई में कोई संबंध है?- वर्ष 2019 तक मोदी सरकार लगभग 16,500 एनजीओ का पंजीकरण रद्द कर चुकी हैं, जिसके बाद विदेशी चंदे में लगभग 40 प्रतिशत कमी आई है। सुधी पाठक इस कार्रवाई की गंभीरता का अंदाजा इससे भी लगा सकते है कि वर्ष 2016-19 के बीच विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) पंजीकृत एनजीओ को 58,000 करोड़ का विदेशी अनुदान प्राप्त हुआ था। इन तथाकथित स्वयंसेवी संगठनों का वैश्विक संजाल कितनी गहराई तक फैला हुआ?- इसका उत्तर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बाखलेट के एक वक्तव्य में मिल जाता है। गत माह संसद द्वारा पारित एफसीआरए संशोधन विधेयक पर बाखलेट कहती हैं, "अस्पष्ट रूप से परिभाषित कानून, तेजी से मानवाधिकारों की आवाजों को दबाने के लिए उपयोग किए जा रहे हैं।" इसपर भारतीय विदेश मंत्रालय ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "कानून बनाना निश्चित तौर पर एक संप्रभु विशेषाधिकार होता है। उसे तोड़ने वाले को मानवाधिकार के बहाने बख्शा नहीं जा सकता। इस संस्था से अधिक जानकारी वाले दृष्टिकोण की अपेक्षा थी।" अब बाखलेट के भारत विरोधी वक्तव्य का कालक्रम ऐसे समझिए कि उनसे पहले विवादित ब्रितानी "एमनेस्टी इंटरनेशनल" ने भारत में अपना संचालन रोक चुकी है, तो ब्रितानी चर्च द्वारा संरक्षित अंतरराष्ट्रीय धर्मार्थ संस्था ऑक्सफैम ने एफसीआरए संशोधनों पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया दी है। एमनेस्टी पर जहां देश में गंभीर एफसीआरए उल्लंघन का मामला चल रहा है, तो वही ऑक्सफैम की सच्चाई उसके क्रियाकलापों में छिपी है। इस संगठन के पदाधिकारी और कर्मचारी 2010 में भूंकप का शिकार हुए कैरेबियाई देश हैती में चंदे के पैसे अपनी वासना को शांत करने हेतु वेश्याओं पर लुटा चुके है। यही नहीं, उन्होंने भूकंप पीड़ित नाबालिग लड़कियों सहित कई महिलाओं की सहायता (वित्तीय सहित) के बदले उनका यौन-उत्पीड़न भी किया था। मानवता पर कलंक लगाते इस घटनाक्रम की ब्रितानी संसद (हाउस ऑफ कॉमन्स) भी निंदा कर चुका है। अब यहां दोगलेपन की पराकाष्ठा देखिए- जिन भारतीय पासपोर्टधारकों ने ब्रितानी गैर-सरकारी संगठन "थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन" द्वारा 2018 में मात्र 548 लोगों से फोन पर बात करके तैयार रिपोर्ट, जिसमें भारत को महिलाओं के लिए विश्व का सबसे खतरनाक देश घोषित कर दिया था- उसपर तुरंत विश्वास कर लिया था, उनका मुंह ऑक्सफैम की काली करतूत पर आजतक नहीं खुला। इस स्थिति के लिए वह चिंतन जिम्मेदार है, जो मानसिक रूप से गुलाम होने के कारण जाने-अनजाने में उन शक्तियों के सहयोगी जाते है- जिनका एकमात्र उद्देश्य, भारत को टुकड़ों-टुकड़ों में खंडित करना है। बहुलतावाद और सनातन संस्कृति से घृणा करने वाले इन संगठनों के मुखौटे अलग-अलग हो सकते है, किंतु एजेंडा एक है। इस पृष्ठभूमि में पूर्वाग्रह से ग्रसित "ग्लोबल हंगर इंडेक्स" जैसी रिपोर्ट को अकाट्य मानने वाले क्या अपने गिरेबां में झाकेंगे?