Punjab Kesari 2020-09-23

भारत, चीन से कैसे निपटे?

भारत आखिर चीन से कैसे निपटे? एक तरीका तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने 13 पूर्ववर्तियों का अनुसरण करते रहे, जिन नीतियों का परिणाम है कि आज भी 38 हजार वर्ग कि.मी. भारतीय भूखंड पर चीनी कब्जा है। चीन से व्यापार में प्रतिवर्ष लाखों करोड़ रुपयों का व्यापारिक घाटा हो रहा है। सीमा पर भारतीय सैनिक कभी शत्रुओं की गोली, तो कभी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो रहे है। "काफिर" भारत के खिलाफ पाकिस्तान के जिहाद को चीन का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन प्राप्त है। नेपाल- जिसके भारत से सांस्कृतिक-पारिवारिक संबंध रहे है, वह चीनी हाथों में खेलकर यदाकदा भारत को गीदड़-भभकी देने की कोशिश करता रहता है। यदि भारत उन्हीं नीतियों पर चलता रहा, तो हमारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। भारत ने सबसे पहली गलती तब की, जब 1950 में चीन ने तिब्बत को अपना आहार बना लिया और हम चुपचाप देखते रहे। एक तरफ भारत ने वर्ष 1959 के बाद तिब्बती धर्मगुरू दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो और कालांतर में अन्य तिब्बतियों को शरण दी, तो दूसरी ओर तिब्बत पर चीन का दावा स्वीकार कर लिया। सच तो यह कि 1950 से पहले तिब्बत के, भारत और चीन के साथ बराबर के संबंध थे। चीन से उसकी खटपट पहले से होती रही है। स्मरण रहे, तेरहवें दलाई लामा थुबटेन ग्यात्सो 1910-11 में भागकर भारत आ गए थे। 1913-14 में शिमला समझौता होने से पहले तक वे दो वर्षों के लिए सिक्किम और दार्जिलिंग में शरण लिए हुए थे। किंतु हमनें स्वतंत्रता मिलने के बाद वामपंथी चीनी तानाशाह माओ से-तुंग की विस्तारवादी नीति के समक्ष समर्पण कर दिया। दशकों से तिब्बत में साम्यवादी चीनी सरकार द्वारा प्रायोजित बौद्ध संस्कृति और पूजा-पद्धति को नष्ट करने का दुष्चक्र चल रहा है। हाल ही में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तिब्बत को एक "नया आधुनिक समाजवादी" क्षेत्र बनाने, वहां अलगाववाद के खिलाफ एक "अभेद्य दीवार" का निर्माण और तिब्बती बौद्ध अनुयायियों के "सिनीकरण", अर्थात- गैर-चीनी समुदायों को चीनी संस्कृति के अधीन लाना और उनपर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीतिक व्यवस्था लागू करना- इसका आह्वान किया है। संक्षेप में कहे, तो यह तिब्बती धरती पर तिब्बती पहचान को नष्ट करने का खुला ऐलान है। भारत को चाहिए कि वह तिब्बत मामले में अपनी भूलों को सुधारे और संबंधित नीति में बदलाव करें। चीनी संदर्भ में भारत की दूसरी गलती- उसने इस साम्यवादी देश से सटी सीमा को सुरक्षित करने में सक्रियता नहीं दिखाई। प्रारंभिक भारतीय नेतृत्व तो इस भ्रम में था कि "मित्र" चीन हमारे हिमालयी क्षेत्र का ढाल बनेगा। किंतु 1962 के चीनी आक्रमण में हमें करारी हार मिली और हमने कई हजार वर्ग किलोमीटर भूमि और आत्मसम्मान- दोनों को खो दिया। चीन के साथ भारत ने 1993-2013 के बीच सीमा-प्रबंधन को लेकर पांच समझौते किए, जिसने भारत को सर्वाधिक क्षति पहुंचाई। चीन जहां 1980-90 तक सीमा पर आर्थिक, सैन्य और बुनियादी ढांचे के निर्माण कर चुका था, वही इस दिशा में भारत कुछ वर्ष पहले तक कुछ नहीं कर पाया था। संप्रगकाल में रक्षा मंत्री रहे एके एंटनी ने संसद में स्वीकार किया था कि हम चीन के साथ आधारभूत ढांचे की दौड़ में काफी पीछे रह गए है। इस संबंध में हाल के वर्षों में व्यापक सुधार हुआ है। सीमा सड़क संगठन के एक आंकड़े के अनुसार, चीन सीमा पर वर्ष 2008-17 के बीच प्रतिवर्ष 230 किलोमीटर रोड बनी, तो 2017 से अबतक ये आंकड़ा सालाना 470 किलोमीटर पर पहुंच गया। 2008-14 के बीच केवल एक सुरंग और 7,270 मीटर ब्रिज बनाए गए थे, किंतु विगत 3 वर्षों में 6 अतिरिक्त सुरंग और पिछले छह वर्षों 14,450 मीटर ब्रिज का निर्माण हुआ है। इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। भारत को चाहिए कि वह अपना रक्षा बजट बढ़ाएं। अभी देश का रक्षा बजट कुल जीडीपी का लगभग 1.56 प्रतिशत है, जिसे 2.5-3 प्रतिशत किए जाने आवश्यकता है। यदि सीमा सुरक्षित नहीं- तो हम, हमारी अर्थव्यवस्था और हमारा आत्मसम्मान खतरे में है। भारत की तीसरी गलती- "इस्लाम-विरोधी" साम्यवादी चीन और "वामपंथ-रहित" इस्लामी पाकिस्तान के गठजोड़ को पनपने देना। चीन अक्सर पाकिस्तान को ढाल बनाकर भारत के आंतरिक मामलों- विशेषकर कश्मीर पर हस्तक्षेप करता रहा है। यह हास्यास्पद है कि घाटी में मानवाधिकारों की बात करने वाला चीन स्वयं शिंजियांग में मुस्लिम शोषण, तिब्बत में बौद्ध-भिक्षु उत्पीड़न और हॉन्गकॉन्ग में लोकतंत्र समर्थकों के दमन को लेकर दुनियाभर में बदनाम है। इस संदर्भ में भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों से आवाज़ उठाकर चीन को कटघरे में खड़ा करना चाहिए। चीन-पाकिस्तान विषाक्त गठजोड़ को हालिया वर्षों में भारत से कड़ी चुनौती मिली है। यह भारतीय कूटनीति की सफलता है कि 57 सदस्यीय "इस्लामिक सहयोग संगठन" (ओ.आई.सी.), जो कई वर्षों से इस्लाम के नाम पर भारत विरोधी रूख अपनाता रहा है- वह आज इसी मामले में दो खेमों- अरब और गैर-अरब देशों के बीच बंट गया है। भारत को चाहिए कि वह चीन की उस "वन-चाइना" नीति को भी चुनौती दें, जिसके इसके अंतर्गत वह ताइवान को अपना प्रांत और हॉन्गकॉन्ग-मकाऊ को अपना प्रशासित क्षेत्र कहता है। इस संबंध में भारत, ताइवान से राजनयिक संबंध बनाए। गलवान घटनाक्रम के बाद भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हॉन्गकॉन्ग का मुद्दा पहले ही उठा चुका है। चौथी गलती- चीन वर्षों से भारत से सीमा-विवाद और व्यापार को दो अलग मामले बताता रहा है, जिसका विरोध कभी नहीं हुआ। भारत से व्यापार करते हुए चीन प्रतिवर्ष लाखों करोड़ रुपयों का शुद्ध लाभ कमा रहा है, जिसका प्रत्यक्ष-परोक्ष उपयोग वह अपनी भारत विरोधी नीतियों में करता है। विगत एक दशक में चीन से व्यापार करते हुए भारत को प्रतिवर्ष लगभग 50 अरब डॉलर- अर्थात् 3.7 लाख करोड़ का नुकसान हुआ है। इस स्थिति में अब वांछित परिवर्तन दिखने लगा है। सीमा पर हालिया तनाव के बीच जहां मोदी सरकार ने 200 से अधिक चीनी मोबाइल एप्स प्रतिबंधित कर दिए गए, तो वही "मेक-इन-इंडिया" जैसे स्वदेशी अभियानों और उदारवादी औद्योगिक नीतियों ने भारत-चीन व्यापार में सात वर्षों की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज करा दी है। यह जांच का विषय होना चाहिए कि भारत इतने वर्षों तक क्यों नुकसान झेलता रहा?- भारत, विश्व का तीसरा सबसे बड़ा दवा उत्पादक देश है- फिर भी वह एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट (एपीआई) मामले में चीन पर निर्भर है। एपीआई किसी दवा के बनाने का आधार होता है- उदाहरणस्वरूप, क्रोसीन का एपीआई पैरासीटामॉल है। स्थिति यह हो गई है कि आज भारतीय फार्मा की 70 प्रतिशत एपीआई की जरूरत चीनी आयात से पूरी हो रही है। वर्ष 1930-47 से (स्वतंत्रता पूर्व नेहरू-ब्रिटिश द्वारा शेख अब्दुल्ला की निरंतर सहायता और प्रोत्साहन) भारत उस नीति का अनुसरण करता रहा है- जिसके परिणामस्वरूप, कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तानी कब्जे में है, तो शेष भारतीय कश्मीर लगभग हिंदू-विहीन हो चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में धारा 370-35ए का संवैधानिक क्षरण करके इस दिशा में नीति को पुनर्निर्धारित करने की शुरूआत की है। आयोध्या में 492 वर्ष पुराने अन्याय का परिमार्जन करके भव्य राम-मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। सच तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2014 और फिर 2019 में भारी जनादेश परिवर्तन हेतु मिला है, इसलिए जनादेश के पालन का स्वागत होना चाहिए। चीन आखिर चाहता क्या है और वह ऐसा क्यों कर रहा है? चीन यह सब उसी मानसिकता से प्रेरित होकर कर रहा है- जैसा तानाशाह अडोल्फ हिटलर ने जर्मनी, इंग्लैंड सहित कई देशों और अधिनायकवादी जोसेफ स्टालिन ने पूर्वी यूरोप के साथ किया था। इसी विकृत चिंतन से चीन भी ग्रस्त है और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग उसका हालिया मूर्त रूप। साम्यवादी चीन के नागपाश का शिकार पाकिस्तान-नेपाल हो चुके है। क्या भारत के खिलाफ चीन के कुत्सित इरादें सफल होंगे? नहीं- क्योंकि आज का भारत, 1962 का नहीं है। वह बदल गया है, और बदल रहा है।