Dainik Jagran 2014-07-09

विश्व शांति को नई चुनौती

गृहयुद्ध से जूझ रहे इराक के घटनाक्रम न केवल पश्चिम एशिया, बल्कि पूरी दुनिया के सामने नई चुनौती है। इराक और सीरिया में सक्रिय सुन्नी आतंकवादी संगठन ‘इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड द लेवेंट’ (आईएसआईएल) ने इराक और सीरिया में अपने कब्जे वाले क्षेत्र को खिलाफत अर्थात इस्लामिक स्टेट घोषित कर अपने मुखिया अबू बकर अल बगदादी को खलीफा बताते हुए उसे दुनिया के मुसलमानों का नेता भी घोषित किया है। उथलपुथल से जूझ रहे इराक पर कुर्द, शिया और सुन्नी बहुल इलाकों के रूप में तीन टुकड़ों में बंटने का खतरा मंडरा रहा है। आईएसआईएल द्वारा इस्लामिक स्टेट की घोषणा के बाद उत्तरी इराक में पूर्ण स्वतंत्र कुर्दिष स्टेट बनाने को लेकर घमासान मचा है। आईएसआईएल की बढ़ती शक्ति और उसका एजेंडा विश्व शांति के लिए अलग खतरा है। सुलग रहे इराक से भारतीय कामगारों की स्वदेश वापसी का सिलसिला लगातार जारी है। विगत शनिवार को बंधक बनाई गई 46 नर्सों को आतंकवादियों के चंगुल से मुक्त कराकर लाना मोदी सरकार की बड़ी कूटनीतिक जीत है। अगवा किए गए 39 भारतीय कामगारों की सुरक्षित रिहाई सरकार की बड़ी चिंता है। इराक में अब भी करीब दस हजार से अधिक भारतीय हैं, जिनकी घर वापसी के लिए संयुक्त राष्ट्र को भी प्रयासरत होने की आवश्यकता है। आईएसआईएल द्वारा ‘उम्मा’ की स्थापना के बाद उसे विश्वास है कि दुनिया भर में जहां कहीं भी मुस्लिम हैं, वे शरीअत का पालन करेंगे और खलीफा के आदेश को शिरोधार्य करेंगे। यदि ऐसा हुआ तो यह मध्यकाल और मध्यकालीन कट्टरपंथ की वापसी साबित हो सकता है। हजरत मुहम्मद साहब के समय में अरब साम्राज्य बहुत शक्तिशाली हो गया था। उस बड़े साम्राज्य की बागडोर खलीफा के हाथ में होती थी। इस पद पर मुहम्मद साहब का उत्तराधिकारी नियुक्त होता था और दुनिया भर में वही मुसलमानों का नेता माना जाता था। सन् 632 ई. से 1517 ई. तक विभिन्न खलीफाओं ने राज किया। 1517 ई. से लेकर 1922 ई. तक इस्लामी जगत में ऑटोमन तुर्कों का वर्चस्व बना रहा, किंतु तुर्की का राष्ट्रपति बनने के बाद कमाल अतातुर्क ने खलीफा पद को समाप्त कर तत्कालीन खलीफा को देश से बाहर निकाल दिया था। तुर्क का शासक कमाल अतातुर्क पंथनिरपेक्षी था और उसने तुर्क को आधुनिक बनाकर इस्लामी जगत में क्रांति लाने की कोशिश की थी। उसने खलीफा पद को समाप्त कर दिया तो उसकी बहाली के लिए भारत में भी खिलाफत आंदोलन छेड़ दिया गया। स्वाभाविक प्रश्न है कि बहुलतावाद, प्रजातांत्रिक व पंथनिरपेक्ष मूल्यों के साथ इस्लाम का टकराव क्यों होता है? सभ्य समाज में यदि अधिनायकवाद स्वीकार नहीं किया जा सकता, तो क्या मजहबी अधिनायकत्व विष्व शांति के लिए खतरा नहीं है? आईएसआईएल द्वारा उम्मा और खलीफा की पुनस्र्थापना पूरी दुनिया के सुन्नी मुसलमानों के लिए एक अपील है। देश की सरहदों के पार आईएसआईएल ने जो भावनात्मक संदेश देने का काम किया है, उसके खतरों की अनदेखी नहीं की जा सकती। सउदी अरब का वहाबी आंदोलन और मिस्र का सलाफी आंदोलन वस्तुतः आधुनिकतावाद और उदारवाद के खिलाफ बगावत से प्रेरित था। अरब देषों पर चलने वाले ऐसे आंदोलनों का अध्ययन करने वाले एक समीक्षक ने लिखा है, ‘‘इस्लाम की दृष्टि में एक मुस्लिम का प्राथमिक दायित्व इस्लामिक स्टेट की स्थापना के लिए कट मरना है। इसके बिना इस्लाम अर्द्धनिर्मित घर के समान है।’’ वहाबी और सलाफी, दोनों ही आंदोलन अपने मजहब की पवित्र पुस्तक के निर्देशानुसार सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था कायम करने पर जोर देते हैं। मिस्र के अयमान अल जवाहिरी द्वारा विकसित अल कायदा की विचारधारा और बाद में ओसामा बिन लादेन द्वारा तैयार उसका हिंसक अवतार आधुनिकवाद के विरोध के साथ उन तमाम इस्लामिक राष्ट्रों के सत्ता अधिष्ठान के भी खिलाफ है, जो महिला शिक्षा, समान नागरिक अधिकार और पंथनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं के साथ अपने देष को आधुनिक इस्लामी राष्ट्र बनाने की पहल कर रहे हैं। यही कारण है कि पाकिस्तान आज अपने ही पाले हुए भस्मासुरों से त्रस्त है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान में आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रही लड़कियों पर होने वाले हमले इसी मानसिकता की पुष्टि करते हैं। ओसामा बिन लादेन के सफाए के बाद अलकायदा के खत्म हो जाने की उम्मीद बेमानी है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अलकायदा और अधिक संकल्प शक्ति के साथ मजबूत हुआ है। लीबिया का षासन लंबे संघर्ष के बाद मुस्लिम ब्रदरहुड के हाथ में है, जो अरब के कई देशों में सबसे बड़ा विपक्षी संगठन है। इसे दुनिया का सबसे प्रभावी इस्लामी आंदोलन भी माना जाता है। मुस्लिम ब्रदरहुड का घोषित लक्ष्य कुरान और सुन्ना को एकमात्र संविधान बनाना है। मुस्लिम ब्रदरहुड की अवधारणा में मजहबी संकीर्णता और कट्टरवाद गहरे समाहित है। मुस्लिम ब्रदरहुड का लक्ष्य हमेषा से ही एक इस्लामिक मध्य-पूर्व की रही है, जिसका हिमायत आईएसआईएल भी करता है। उम्मा और खलीफा की बहाली एक मजहबी जुनून को पैदा करेगा, जिसकी कोई सरहदें नहीं होंगी। खबर है कि भारत के कुछ लड़ाकू भी आईएसआईएल का साथ देने इराक पहुंच चुके हैं। पड़ोसी मुल्क चीन के षिनजियांग के स्थानीय उघेर मुस्लिम भी इसी जुनून से प्रेरित हो रहे हैं। कुछ दिनों पूर्व चीन के टीवी पर कम्युनिस्ट शासन द्वारा पकड़े गए एक युवा उघेर लड़ाकू का साक्षात्कार प्रसारित हुआ था। इसे कथित तौर पर ‘अपराध स्वीकारोक्ति’ की संज्ञा दी गई थी। इस स्वीकारोक्ति में उघेर आतंकी ने अफानिस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर में चल रहे इस्लामी आतंक को ‘जिहाद’ ठहराया था, जिसे अंजाम देने पर जन्नत में हूरें मिलने का भरोसा दिलाया जाता है। पूरी दुनिया की मुस्लिम आबादी में सुन्नियों का अनुपात 80-90 है, जबकि षिया 10 से 20 प्रतिशत के बीच हैं। किंतु जहां कहीं भी शिया या सुन्नी बहुसंख्या में हैं, वे दूसरे को खत्म करने पर आमादा हैं। पाकिस्तान में सुनियोजित तरीके से इस्लामी शासन के समर्थन और संरक्षण में जिहादी संगठन इस्लाम को मानने वाले गैर सुन्नी मतों के अहमदिया, बोहरा, कादियानी और षियायों के सफाए में लगे हैं। मिस्र से लेकर पाकिस्तान तक फैले इस्लामी कट्टरवाद से जिहादी इस्लाम का एक कटु सत्य रेखांकित होता है। मिस्र, सीरिया, तुर्की, पाकिस्तान, इराक, ईरान, नाइजेरिया आदि में जो हिंसक घटनाक्रम चल रहा है, वह इस्लामी साम्राज्यवाद के एजेंडे का ही अंग है। इराक के संकट को केवल स्थानीय घटनाक्रम साबित कर उसकी अनदेखी करना घातक होगा। यह आंदोलन वस्तुतः एक बड़ी साजिश का हिस्सा है, जिसमें दुनियाभर के मुसलमानों को शरीअत के आधार पर व्यवस्था कायम करने के लिए उन्हें अराजकता और हिंसा के रास्ते उतारना है। यह गैर मुस्लिम बहुल देशों में इस्लामी राज कायम करने की मंशा से प्रेरित है। बहुलतावाद और प्रजातंत्र पर विश्वास रखने वाला भारत भी कट्टरपंथी इस्लामी साम्राज्यवादियों के निशाने पर है। नए खलीफा अबू बकर अल बगदादी भारत के खिलाफ पहले भी जहर उगल चुके हैं। अब समय आ गया है कि उदारवाद, पंथनिरपेक्षता और प्रजातंत्र पर विश्वास रखने वाली वैश्विक ताकतों को आईएसआईएल के दमन के लिए एकजुट हो जाना चाहिए।